रविवार, 5 अगस्त 2012


अवधी उपन्यास की नई रोसनी- चंदावती


- रवीन्द्र कात्यायन

प.शिवराममिश्र शि.सा.सम्मान-2012 के अवसर पर चन्दावती का लोकार्पण बाएँ से श्रीमती भारती मिश्र,सम्मानित साहित्यकार डाँ उमाशंकर शितिकंठ,विभांशु दिव्याल,शिवमूर्ति. और भारतेन्दु मिश्र


चन्दावती पर बोलते हुए वरिष्ठ कथाकार-शिवमूर्ति जी
हिंदी साहित्य के विस्तार के साथ-साथ हिंदी की उपभाषाओं में भी आज नई-नई विधाओं में रचनाकर्म हो रहा है। अवधी, भोजपुरी, ब्रज, मैथिली आदि में लिखे हुए साहित्य की परंपरा बहुत पहले से है। लेकिन आज जिस तरह की रचनाएँ इन उपभाषाओं में लिखी जा रही हैं, उस तरह की पहले नहीं लिखी गईं। इसका नया उदाहरण है अवधी में लिखे जाने वाले उपन्यासों की परंपरा। अवधी में नए उपन्यासों की रचना अवधी में एक नया प्रस्थान बिंदु है। भारतेन्दु मिश्र के दो अवधी उपन्यासों– नई रोसनी और चंदावती के द्वारा अवधी में उपन्यास लेखन का नया दौर शुरू हुआ है। जिसके लिए डॉ. विद्याबिन्दु सिंह ने लिखा है- भाई भारतेन्दु मिश्र कै ई अवधी उपन्यास एक बड़े अभाव कै पूर्ति करै वाला है। वै ई उपन्यास लिखि कै एक लीक बनाइन हैं जौने से अवधी म लिखै वाले अवधीभासी प्रेरणा पाय सकथिन।  (भूमिका, चंदावती)


भारतेन्दु मिश्र का नया उपन्यास चंदावती समकालीन भारतीय ग्राम का यथार्थ रूप प्रस्तुत करता है। यह उनके पहले उपन्यास नई रोसनी का विस्तार ही है जिसमें एक नई कथा और नए वातावरण द्वारा आज के भारत का गाँव पुनः जीवंत हो जाता है। इस गाँव में सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक रूप में जो हो रहा है, उसका यथार्थ चित्रण चंदावती का प्रमुख उद्देश्य है जो पाठकों को तो आकर्षित करता ही है, इसके साथ उनके मन में कई प्रकार के असहज करने वाले प्रश्न भी खड़े करता है। लोक में रची-बसी संस्कृति का सूक्ष्म और मनोहारी वर्णन भी कथाकार की सफलता है। आज के बदलते गाँव की तस्वीर चंदावती उपन्यास में इस तरह प्रस्तुत की गई है कि वो हमारे सामने एक स्वप्न भी निर्मित करता है। स्वप्न परिवर्तन का, स्वप्न एक नई व्यवस्था का, स्वप्न जाति-व्यवस्था के प्राचीन भँवर में फंसे समाज को उससे मुक्त करने का और सबसे ज़रूरी स्वप्न स्त्री की मुक्ति का- वह भी ग्रामीण स्त्री की मुक्ति का। ग्रामीण-स्त्री, जो शायद कुलीन स्त्री-विमर्श के केन्द्र में नहीं है। बहरहाल...
चंदावती की कथा है एक बाल-विधवा लड़की चंदावती और गाँव के सभ्य, कुलीन और विधुर ब्राह्मण हनुमान शुक्ल की प्रेम कथा की, जिसकी परिणति विवाह में होती है। विवाह भी नए प्रकार का। ग्रामीण व्यवस्था में आज से तीस साल पहले इस तरह का विवाह एक क्रांतिकारी कदम था। गाँव के बाहर कुछ लोग नरसिंह भगवान के चबूतरा के सामने जाते हैं और सरपंच के सामने पंचायत होती है। फिर वहीं हनुमान शुक्ल और चंदावती तेलिन का विवाह होता है। न सिर्फ़ जाति के बंधन टूटने के स्तर पर बल्कि स्त्री और पुरुष की सोच में परिवर्तन के स्तर पर भी यह विवाह अनोखा था। यही नहीं समाज को जब पता चलता है, तो भी दोनों को कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। हाँ हनुमान के छोटे भाई छोटकऊ से उनका अलगाव घर में पहले ही हो चुका था, खेती को छोड़कर। और यह खेती ही चंदावती की हत्या और दौलतपुर गाँव में स्त्री जागरण का कारण बनती है।



हाशिए का विमर्श अवधी में इस तरह शायद पहली बार दिखाई दिया है। लोक गीतों और लोक संस्कृति में तो बहुत से चित्रण हुए हैं लेकिन आज के ज़माने का यह चित्रण अवधी में बिलकुल नया है। स्त्री कमज़ोर तो है लेकिन उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाली गाँव की अन्य महिलाएँ भी खड़ी हो जाती हैं। उसे जब उसका देवर और भतीजा उसके पति हनुमान शुक्ल की मृत्यु के बाद घर से बाहर निकाल देते हैं तो वो रोती नहीं बल्कि अपने घर के बाहर अनशन पर बैठ जाती है। यह है आज की स्त्री की जागृति- अपने अधिकारों के लिए। चंदावती शुरू से ही ऐसी ही निडर रही है। जब उसके सामने हनुमान शुक्ल विवाह का प्रस्ताव भेजते हैं तो वो उन्हें अपने घर बुलाती है और उनसे पूछती है कि तुम्हारे घर में हमारी स्थिति क्या होगी? पत्नी की या रखैल की? हमारे बच्चों को ज़मीन ज़ायदाद में हिस्सा मिलेगा या नहीं? आदि-आदि प्रश्न। कहना न होगा कि इस तरह का साहस हमारे समाज की लड़कियों में आज भी नहीं मिलता है। यदि हमारी लड़कियाँ चंदावती की तरह साहस और विवेक से काम लें तो न सिर्फ़ उनके प्रति अपराध कम होंगे बल्कि उनके ख़िलाफ़ होने वाले अत्याचारों को भी विराम लगेगा।        



पुरुष व्यवस्था के षड़यंत्र इतने ख़तरनाक हैं कि ऐसी साहसी चंदावती भी पुरुष द्वारा छली गई। हनुमान शुक्ल ने उसे विवाह से पहले नहीं बताया कि वो पहलवानी करते हुए चोट लगने से नामर्द हो चुके हैं। जब उसे पता चलता है तो बहुत नाराज़ होती है लेकिन क्या कर सकती थी। जितनी कोशिश कर सकती थी, उसने की लेकिन कोई संतान न हुई। और तीस साल के लंबे वैवाहिक जीवन के बाद हनुमान की मृत्यु ने उसे नए भँवरजाल में फंसा दिया। तेरहीं की रात को ही उसके देवर ने उसे घर से बाहर निकल जाने को कहा और सुबह होते ही उसे बाँह पकड़कर घर से निकाल दिया कि अब तुम्हारा यहाँ कोई काम नहीं। चंदावती सोच रही है- सीता होय चहै मीरा यहि दुनिया मा हर औरत का परिच्छा देक परति है। जीका मंसवा न होय, तीकी कवनिउ इज्जति नहीं। औरत तौ अदमी कि छाँह मानी जाति है, आदमी ख़तम तौ औरत जीते जिउ आपुइ खतम हुइ जाति है। बेवा कि जिन्दगी मुजरिम कि जिन्दगी तना कटति है। द्याखौ अब हमरी किस्मति मा का लिखा है। (पृ. 20)



इस षड़यंत्र में गाँव का प्रधान ठाकुर रामफल भी शामिल है, जिसने उन दोनों की शादी कराई थी। चंदावती को उस दिन की याद आ गई जब कूटी पर पंद्रह बीस लोगों की पंचायत लग गई थी- फेरे लेने से पहले। अधिकतर लोगों का विरोध ही था। सबसे अधिक हनुमान के छोटे भाई छोटकऊ का। लेकिन जायदाद के बँटवारे को रोकने के लिए वो मान गया। फिर धर्म के ठेकेदार पंडितजी दक्षिणा बढ़ाकर मंत्र पढ़ने के लिए तैयार हो गए। प्रधान रामफल हनुमान से बहुत से काम निकालता था सो उसने उनके हिसाब से ही सबको तैयार करवा दिया। पंडित ने कहा- तुम सब जनै तैयार हौ तौ बिधि-बिधान हम करवाय द्याबै। हमका तौ मंतर पढ़ैक है, संखु बजावैक है, अपनि दच्छिना लेक है। यू बिहाव नई तना का है। यहिमा दच्छिना सवाई हुइ जाई जजमान। बिहाव होई तो चंदावती तेलिन ते सुकुलाइन हुइ जाई। काहे ते जाति तो मर्द कि होति है। भगवान किसन कि तौ साठि हजार रानी रहै, सबकी अलग-अलग जाति रहै। सबका वहै सनमान रहै। परधान दादा जाति तो करमन ते बनति है, बेदन मा यहै सबु लिखा है। (पृ. 36) और इसी दिन को याद करके चंदावती सोच रही है- क़ि औरत कि जिन्दगी वहिके मर्द के बिना साँचौ माटी है- मर्द चहै सार नपुंसक होय, चहै कुकरमी होय लेकिन होय जरूर। (पृ. 46)



लेकिन चंदावती हार नहीं मानती है और गाँव की ही अन्य विधवा कुंता फूफू के साथ वहीं धरने पर बैठ जाती है। उन दोनों का साथ देने को गाँव की अन्य स्त्रियाँ भी शामिल हो जाती हैं। चंदावती के भाई संकर की बेटियाँ मीरा, मीना और ममता भी इस जंग में शामिल हो जाती हैं। चंदावती स्त्रियों के इस गुट को देवी दल का नाम देती है। वे सब वहीं पर देवी गीत, भजन गाती हैं और बीच-बीच में नारा लगाती हैं- सिव परसाद होश में आओ, चंदावती से ना टकराओ। यह जागरण ग्रामीण-स्त्री का नया जागरण है जो उसे इक्कीसवीं सदी की नारी बनाता है। देवी दल की स्थापना भी चंदावती का सपना है क्योंकि स्त्रियों की एकता ही उन्हें मर्द के अत्याचारों से मुक्त करवा सकती है। उसके लिए दुनिया भर की स्त्रियाँ देवी हैं जिन्हें जागृत करने की आवश्यकता है। वह अपने भाई संकर से कहती है- दुनिया भरेकि मेहेरुआ हमरे लेखे देबी आँय। वुइ जिन्दगी भरि अदमिन क कुछ न कुछ दीनै करती हैं, जेतना अदमी उनका देति है वहिके बदले वुइ हजारन गुना लउटाय देती हैं। वुइ अदमी क पैदा करै वाली हैं। अदमी हरामजादा वहेक बेज्जत करति है, वहेक नंगा कीन चहति है- वहे महतारी बिटिया के नाम ते याक दुसरे क गरियावति है। अब जमाना बदलि गवा है अब हमरे देस कि रास्ट्रपति प्रतिभा देबी सिंह हैं।” (पृ. 73)   
चंदावती के विरोध में गाँव का मुखिया, सारा सवर्ण समाज, उसका देवर और उसका परिवार, पुलिस व्यवस्था सब शामिल हो जाते हैं लेकिन अपनी बुद्धि और साहस के चलते चंदावती हार नहीं मानती। उसका मानना है कि दुनिया की हर स्त्री की एक ही जाति है- स्त्री जाति जिसके पास छिपाने को कुछ भी नहीं है। सभी एक तरह की दुख-तकलीफ़ सहती हैं, सभी एक तरह अपना घर-परिवार छोड़कर दूसरे के घर में अपनी जगह बनाती है और सब एक तरह से ही बाल-बच्चा पैदा करती हैं, और सब एक तरह ही पति की लातें खाती हैं। इसलिए वह अपने गाँव की स्त्रियों को एक जगह इकट्ठा करती है और उन्हें जागृत करती है। वह उन्हें जगाने के लिए एक गीत बनाती है जो देवी दल का स्वर बन जाता है-
गुइयाँ मोरी डटिकै रहौ
गुइयाँ मोरी बचिकै रहौ दर्द अपन आपस मा खुलि कै कहौ।  (पृ. 101)  



लेकिन चंदावती और कुंता दोनों का साहस भी उन दोनों की हत्या को रोक नहीं पाता है। उन्हें नहीं पता था कि उनका सामना पेशेवर हत्यारों से है जो किसी भी तरह से उन्हें छोड़ने वाले नहीं। धन-संपत्ति, जायदाद आदि के लिए तो लोग कुछ भी कर सकते हैं। ऐसे में छोटकऊ और सिवपरसाद अपने घर की स्त्री चंदावती के साहस से बौखलाकर उसके ऊपर हमले पर हमले करते हैं और अंत में कुंता फूफू के साथ उसकी हत्या तक करवा देते हैं। लेकिन जो काम चंदावती जीते-जी नहीं कर सकी, वो उसकी हत्या ने कर दिया। चंदावती के हत्यारे न सिर्फ़ पकड़े गए, बल्कि उसके हक की संपत्ति पर देवी दल, स्कूल और स्त्रियों के स्वरोज़गार केन्द्र की स्थापना भी हुई।



चंदावती उपन्यास को न सिर्फ़ ग्रामीण-स्त्री विमर्श के लिए याद किया जाएगा वरन् अपनी सांस्कृतिक विविधता के वर्णन के लिए भी भुलाया नहीं जा सकता। इसमें अवध के गाँवों की संस्कृति जीवंत रूप से अभिव्यक्त हुई है। विवाह में होने वाले नकटौरा का वर्णन बड़ा ही अद्भुत बन पड़ा है। लोकाचार भी इसमें आज की स्थिति के अनुसार दिखाई देते हैं। आज के गाँवों में राजनीति किस तरह अपना दखल देने लगी है, इसमें पता चलता है। छोटे से काम के लिए मंत्री निरहू परसाद की सिफ़ारिश लगवाना किस तरह घातक हो सकता है, चंदावती उपन्यास में पढ़ा जा सकता है। पुलिस, पत्रकार, मंत्री और प्रधान मिलकर किस तरह एक नई व्यवस्था का निर्माण कर रहे हैं- इस कृति में बड़ी सच्चाई से प्रदर्शित होता है। सबसे बड़ी बात यह कि इक्कीसवीं सदी में भारत में जाति व्यवस्था के प्रश्न अभी भी वैसी ही जड़ें जमाए हुए हैं, जो आज़ादी से पहले थे। भले ही चंदावती ने अंतरजातीय विवाह किया था, वो भी तीस साल पहले लेकिन अभी भी जाति के समीकरण अपनी पूरी शक्ति के साथ ज़िंदा हैं। ऐसा नहीं होता तो पत्रकार रुपए लेकर प्रधान ठाकुर रामफल का नाम रिपोर्ट से निकाल न देता। रामफल पत्रकार से कहता है कि- तुमरी बनायी खबरि क्यार माने होति है। सिवपरसाद, बिनोद औ छोटकौनू का कसिकै लपेटि देव। सब सार चूतिया बाँभन आँय। अपनी बिरादरी क्यार- माने हमार ध्यान राखेव।” (पृ. 122) । इस पर पत्रकार कहता है- “दादा तुम तो मजबूर कै दीन्हेव।” (वही) इससे पता चलता है कि जाति का दबाव अभी भी समाज में बहुत अधिक है जिसका अच्छा-बुरा प्रभाव समाज पर हमेशा पड़ता है।     
एक और आकर्षण है इस उपन्यास का कि यह बेहद पठनीय है और पूर्वदीप्त शैली का उपयोग करता है। चंदावती को बार-बार याद आता है कि किस तरह उनका विवाह हुआ था हनुमान शुक्ल के साथ। उपन्यास वर्तमान और अतीत के बीच कथा को इस तरह सुनाता है जैसे किस्सा सुना रहा हो। और इस किस्सागोई में वर्तमान और अतीत के सभी नाते-रिश्ते, संबंध उघड़ते चले जाते हैं। हर बात कहने के लिए कथाकार के पास कोई न कोई नया पात्र है जो अपनी स्टाइल में उस बात को बताता है। लेकिन इस वर्तमान और अतीत की लुका-छिपी के बीच कथारस में कोई बाधा नहीं आती है। कहीं-कहीं चंदावती का स्वप्न प्रवाह भी है, जब वो अपने अतीत की गहराइयों में खो जाती है। गाँव में स्त्रियों को जागृत करने के लिए लोक गीतों का सहारा लिया गया है। इतना ही नहीं, ग्रामीण संस्कृति में रची बसी गालियों का प्रयोग भी इसकी भाषा को और अधिक आकर्षक और प्रामाणिक बना देता है। छुतेहर, भतारकाटी, दहिजार आदि गालियाँ अश्लील नहीं लगती बल्कि लोक भाषा को जीवंत बना देती हैं।
ये उपन्यास स्त्री की कहानी तो है ही, पुरुष-सत्ता के षड़यंत्रों को समझने का एक सार्थक औजार भी है। गाँव में पुरुष-सत्ता को चुनौती देने का काम किसी स्त्री ने शायद ही किया हो। चंदावती गांव की पुरुषवादी व्यवस्था में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराती है और उसमें सार्थक परिवर्तन भी लाती है, भले ही उसे अपनी कुरबानी देनी पड़ती है- यह इस कृति की सबसे बड़ी विशेषता है। इसका गद्य इसकी ऊर्जा है जो कहीं भी बाधित नहीं होता और बिना रुके पढ़ा जाता है। नई रोसनी और चंदावती के बाद भारतेन्दु से अवधी उपन्यास परंपरा को और भी आगे बढ़ाने की उम्मीद है। हिंदी कहानी के शीर्ष हस्ताक्षर शिवमूर्ति का कहना है- यदि चन्दावती हिन्दी या किसी अन्य भाषा मे लिखी जाती तो बेस्टसेलर बुक होती।  
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संपर्कः अध्यक्ष, हिंदी विभाग एवं संयोजक पत्रकारिता एवं जनसंचार, मणिबेन नानावटी महिला महाविद्यालय, विले पार्ले (प), मुंबई-400056. मोबाइलः 09324389238. ईमेल: katyayans@gmail.com   

समीक्षा २.
(विनोद कुमार-महमूदाबाद )






समीक्षा 3(डा.गुणशेखर ,सूरत )



मंगलवार, 1 मई 2012

याक पुरानि मुलाकात


किसान कवि:आचार्य चतुर्भुज शर्मा



 चतुर्भुज शर्मा

 

(रामपुर मथुरा -सीतापुर के याक कवि सम्मेलन मा कविता पाठ करति भये किसान कवि चतुर्भुज शर्मा)
(1910-1998)

भारतीय श्रम संस्कृति की विवेचना करें तो मिलेगा कि हमारे यहाँ जुलाहे ,बढई,नर्तकियाँ और किसान भी कविता करते रहे हैं।
काव्यं करोमि नहि चारुतरं करोमि
यत्नात्करोमि यदि चारुतरं करोमि।
हे साहसांकमौलिमणिमण्डितपादपीठ
कवयामि वयामि यामि च।
यह एक जुलाहे की कविता है जिसे सुनकर राजा भोज ने अपने समय में उसे कविताई का समुचित पुरस्कार देकर विदा किया था। आचार्य चतुर्भुज शर्मा ऐसे किसान कवि हैं जिन्होने जीवनपर्यंत किसानी की कभी अपनी काविता की एक भी पंक्ति कागज पर नही लिखी। उन्हे सबकुछ कण्ठस्थ था।माने वो तो चलती फिरती किताब थे।जब (कुमुदेश जयंती 16अक्तूबर सन-1985)मैने उनसे बात की तो पाया कि चतुर्भुज शर्मा हिन्दी जगत के एक स्वीकृत ज्ञानस्तम्भ हैं जिनका परिचय गाँव के अपढ से लेकर विश्वविद्यालयो के तमाम शोधछात्रो से भी बराबर बना है। पढीस-वंशीधर शुक्ल-रमई काका की परवर्ती परम्परा में अवधी कवियो मे चतुर्भुज शर्मा का नाम आता है। वे अवधी के विकास हेतु प्रत्नशील थे उनदिनो। नादिरा महाकाव्य,सीताशोधखण्डकाव्य, परशुरामप्रतिज्ञा,ताराबाई, सिंहसियार,ईष्याका फल,तुलसीदास की जीवनी,महात्मागान्धी की जीवनी,हनुमान शतक,कुत्ता भेडहा केरि लडाई आदि अनेक रचनाएँ शर्मा जी कंठाग्र थी। ऐसे किसान कवि चतुर्भुज शर्मा सीतापुर के ग्राम बीहटबीरम के निवासी थे। प्रस्तुत है उससमय हुई बातचीत के प्रमुख अंश-
भा.मि.
आपने नादिरा महाकाव्य की रचना की है तो उसकी प्रेरणा आपको कहाँ से मिली-
शर्मा जी-
नादिरा खडी बोली मे रचा गया प्रबन्ध काव्य है। ये हरगीतिका छन्द में है। जहाँ तक प्रेरणा का प्रश्न है तो मैने  एक दफे सीतापुर पडाव पर नादिरा फिल्म देखी उसमें नादिरा के जीवन के बडे कारुणिक दृश्य थे।मुझपर कुछ ऐसा प्रभाव पडा कि बस इस नायिका को लेकरकुछ लिखने की प्रेरणा जग गयी। उसके बाद कथानक के विस्तार के लिए मै लाहौर गया -वहाँ से कोई 30 किमी.दूर एक मकबरा है जिसमें नादिरा की मजार है।वहाँ जहागीर और नादिरा के तैलचित्र भी मैने देखे वहीं से फारसी भाषा मे नादिरा से सम्बन्धित कुछ साहित्य भी सुलभ हो पाया..तो इस प्रकार मैने नादिरा पर काव्य लिखा।
भा.मि.
आप तो अवधी मे भी बहुत कविताएँ लिख चुके हैं तो क्या अवधी हिन्दी की विभाषा मात्र है या उसका अपना अलग अस्तित्व भी है..?
शर्मा जी-
भैया अवधी बडी सशक्त भाषा है।प्रत्येक अनुभूति का प्रत्येक विधा मा अभिव्यक्त करै मा समर्थ है।गोस्वामी तुलसीदास का साहित्य इस बात का प्रमाण है। आजकल के साहित्यकारो का यथोचित सहयोग अवधी को नही मिल रहा है।कुछ मूर्ख लोग इसे गवाँरो की भाषा मान कर अवधी से परहेज करने लगे हैं परंतु मै तो अपना काव्यगुरु तुलसीदास को ही मानता हूँ।खेद है कि आजकविसम्मेलनी कवि अवधी को केवल हास्य की भाषा बनाने मे जुटे है। जबकि हिन्दी की विभाषाओ मे जितना व्यापक स्थान /क्षेत्र अवधी का है उतना हिन्दी की अन्य किसी विभाषा(बृज,बुन्देली,भोजपुरी,बघेली आदि) का नही है। खेदजनक है कि कुछ स्वार्थी लोगो ने आधुनिक अवधी के प्रतिनिधि कवि वंशीधर शुक्ल को भी एक विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से निकाल दिया है। यह अवधी के लिए ही नही वरन हिन्दी भाषा के विकास के लिए घातक है।
भा.मि.
अवधी मे काव्य की किन विधाओ का प्रयोग किया जा रहा है.? ..आपकी प्रमुख अवधी कविताए कौन सी हैं ?
शर्मा जी
अवधी मे गीत-गजल-दोहा-सोरठा-कवित्त-और सवैया के अलावा मुक्तछन्द आदि काव्यविधाओ का प्रयोग किया जा रहा है। मैने भी इस दिशा मे कुछ प्रयोग किए हैं। मघई काका की चौपाल,कुत्ता भेडहन केरि लडाई,महात्मागान्धी ,बरखा,किसान कै अरदास,बजरंग बिरुदावली आदि अवधी की रचनाए हैं।
भा.मि.
कुछ नवयुवको के मनोभावो को लेकर लिखा हो तो सुनाएँ-
शर्मा जी
भैया लिखा तो बहुत है चार लाइन सुनौ-
हौ बडे पूत बडे घर के,तुमका का परी हियाँ आफति होई।
रोकौ न राह अबेर भई,ननदी कहूँ ढूढति आवति होई।
जाइ अबै कहिबा घर माँ,तब जानि परी जब साँसति होई।
ऐसे कुचालि न भावैं हमै हटौ दूरि रहौ,कोऊ द्याखति होई।
भा.मि.,
,वाह क्या बात है गाँ की युवती और युवक के मनोभावो का मनोरम चित्र है यह तो दादा।
भा.मि.
शर्मा जी मुक्तछन्द कविता के बारे मे आपकी क्या राय है ?
शर्मा जी -
छन्द या छन्दोबद्ध रचना सुनकर गुनगुनाई जाती है,वह याद हो जाती है।मानस की चौपाइयाँ ,गीता के श्लोक सब प्राचीन साहित्य छन्दोबद्ध है जो आज भी समाज का कण्ठहार है,और युगों तक रहेगा। नई कविता या छन्दमुक्त कविता मेरे समझ से परे है। यदि यही दशा रही तो छात्र कविता की आत्मा से कभी परिचित नही हो पायेंगे। स्वार्थो से प्रेरित साहित्यकारो को क्या कहें..।
 भा.मि.
क्या आज के कविसम्मेलनो मे साहित्यिकता विद्यमान है.?
शर्मा जी-
आजकल कविसम्मेलनो का स्तर बहुत गिर चुका है,इसलिए मै अक्सर कविसम्मेलनो मे नही जाता। अब तो कविसम्मेलन एक व्यवसाय हो गया है। अब जो श्रोताओ को हँसाकर मुग्ध करदे वही सफल कवि है। उन कविताओ मे स्तरीय साहित्य खोजना मूर्खता है।
भा.मि.
आपकी दृष्टि मे कविता के मायने क्या हैं..?
शर्मा जी-
कविता क्या है यह तो समीक्षक ही जानें।मै तो जो स्वांत: सुखाय गुनगुनाता हूँ सुनने वाले उसे कविता मान लेते हैं-
कोरो गवाँर पढो नलिखो,कछु साहित की चतुराई न जानौं।
कूर कुसंग सनी मति है,सतसंगति की गति भाई न जानौं।
काँट करीलन मे उरझो परो,आमन की अमराई न जानौं।
गावत हौं रघुनन्दन के गुन,गूढ बिसय कबिताई न जानौं॥

भा.मि.
वाह वाह शर्मा जी बहुत सुन्दर..। कुछ और सुनाइए,आपने तो अवधी मे बहुत लिखा है। कुछ प्रकृति वर्णन से सुनाइए..
शर्मा जी
सन्ध्या के समय का एक चित्र देखिए-जिसे गोधूलि कहा जाता है -
दिनु भरि दौरा धूपी कै अब रथ ते सुर्ज उतरि आये।
गोरू,हरहा सब जंगल ते अपने घर चरि चरि आये।
बछरन ते गैया हुंकारि मिलीं ,गैया का उमगि पियारु परा।
चरवाह बैठि सँहताय लाग,घसियारन बोझु उतारि धरा।।
...एक और वर्षा सुन्दरी का चित्र देखिए-
बिजुरी चमकि उजेरु दिखावै,मेघ मृदंग बजावै
बैठि ताल पर याकै सुर माँ मेढुका आल्हा गावैं।
धरती फिरते भई सुहागिन पहिरे हरियर सारी
रंग बिरंगी फूल कलिन की गोटा जरी किनाई।
बीर बहूटी बडी दूर ते सेंदुर लइके आयी
नद्दी नाउनि पाँव पखारै,नेगु पाय हरषाई।
भा.मि.
वाह दादा क्या कहने हैं..पूरा रूपक हुइगा..औ नद्दी नाउनि का तो जवाब नही..बहुत सुन्दर..। शर्मा जी कालजयी रचनाकार आप किसे मानते हैं.?
शर्मा जी-
भैया जहाँ तक कालजयी रचनाकार की बात है तो कालजयी वही रचनाकार होता है जिसकी रचना की विषयवस्तु शाश्वत होती है। ऐसी रचनाएँ काल की परिधि को पार कर जाती हैं।कबीर-तुलसी-सूर-बिहारी-निराला-प्रसाद-पढीस-बंशीधर शुक्ल-रमई काका आदि की रचनाएँ शाश्वत हैं।ये अपने समय के कालजयी रचनाकार हैं।
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