बुधवार, 23 सितंबर 2015



 आधुनिक अवधी की त्रयी
पढीस  वंशीधर शुक्ल और रमई काका
आधुनिक अवधी के विकास का काल उन्नीसवी सदी के अंतिमदशक से यानी बलभद्र प्साद दीक्षित’पढीस’ जी (अम्बर पुर सीतापुर,उ.प्र.)के आविर्भाव से माना जाता है।उन्होने सप्रयोजन अवधी मे कविता शुरू की।आकाशवाणी लखनऊ से अवधी मे पहला कार्यक्रम शुरू कराया।अपने गांव के पास किसान पाठशाला चलायी।उसी परंपरा का दूरतक निर्वाह उनके बाद वंशीधर शुक्ल(मनेउरा लखीमपुर उ.प्र.) ने किया।किसानो की वेदना को जिस समर्थ आवाज की जरूरत थी उस स्वर मे शुक्ल जी ने अवधी मे कविताई करके उनका उपकार किया।पहली विधान सभा के लिए वे विधायक भी चुने गये बाद मे किसानो की दुर्दशा देखर उन्होने सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया। चन्द्रभूषण त्रिवेदी ‘रमई काका’ ने अवधी को नए पाठक और श्रोता दिये।बहिरे बाबा जैसे पात्र एक जमाने मे बेहद प्रसिद्ध हुए।जीवन भर अवधी की कविता की और किसान की दुनिया मे आते जाते रहे।हमारे अवधी समाज को इन तीनो कवियो पर गर्व है।                                                


शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

पढीस :जीवन परिचय
  (1898 -1942)        
आधुनिक अवधी के उन्नायक एवं सशक्त कथाकार पं बलभद्र प्रसाद दीक्षित पढीस जी का जन्म जिला सीतापुर की तहसील सिधौली के ग्राम अम्बर पुर मे सन 1898 ई.मे हुआ।उस समय यह जिला सन्युक्त प्रांत आगरा एव्ं अवध के अंतर्गत आता था।जो आजादी के बाद उत्तर प्रदेश बन गया ।अम्बरपुर से सिधौली की दूरी लगभग 12 कि.मी.है।अब तो गांव तक सडक बन चुकी है लेकिन पढीस जी के समय में ये एक गलियारा रहा होगा।सीतापुर जिले का अटरिया स्टेशन अम्बरपुर के लिए निकटतम रेलवे स्टेशन है।जो सीतापुर की अपेक्षा उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के अधिक निकट है।उस जमाने मे गांवो मे आम लोगो के पास  पैरगाडी(साइकिल)भी नही थी। लोग अक्सर पैदल ही यात्रा करते थे।बरसात मे ये क्षेत्र अगम्य हो जाता था।बीहड और गोमती की निकटता के कारण जल भराव आदि की समस्या भी रहती थी।ऐसे पिछडे क्षेत्र मे पढीस जी का जन्म हुआ।इनके पिता का नाम श्री कृष्ण कुमार दीक्षित और माता का नाम यशोदा था।पढीस जी के पूर्वज-बत्तीलाल दीक्षित(प्रपितामह) –कन्नौज के निवासी थे।इनके दो पुत्र हुए जवाहर लाल और सुर्जबली प्रसाद।जवाहर अक्खड नामी पहलवान थे जबकि सुर्जबलीप्रसाद सरल और विनम्र।जवाहर लाल जी ने कई विवाह किए और सुर्जबलीप्रसाद ने एक ही विवाह किया और उनकी एक ही संतान प.कृष्ण कुमार दीक्षित के रूप मे हुई।संभवत: पारिवारिक कलह से बचने के लिए कृष्ण कुमार जी अम्बर पुर मे आकर बस गए।परिवार की आजीविका का भी कोई साधन न था।नारायन ठेकेदार पंडित कृष्ण कुमार दीक्षित के आश्रयदाता थे।नारायन जी भी शुक्ल वंश के कान्यकुब्ज ब्रहमण थे।उन्ही के मकान के अहाते -एक हिस्से मे कृष्ण कुमार जी का परिवार रहता था।–
‘उन्ही के मकान के पिछवाडे एक टपरिया पर उनकी मडैया थी जिसमे वह पत्नी जसोदा, बडी बहन जानकी (जो उनके चाचा जवाहर लाल की सात पत्नियो मे से
किसी एक की पुत्री थीं और परित्यक्ता थीं) के साथ रहते थे।इसी मडैयानुमा बखरी मे जसोदा ने पांच संतानो को जन्म दिया।पहलौठी के दीनबन्धु,उनके बाद सुखदेव प्रसाद,फिर कामता प्रसाद,तीन भाइयो की पीठ पर जनमी पुत्री  बियना,बलभद्दर सबसे छोटे और शायद पेटपोछनी (अंतिम)संतान थे जो संवत-1955 के भादौं की शुक्लपक्ष की राधाष्टमी की एक बरसाती रात –तदनुसार गुरुवार 25 सितम्बर सन 1898 ई.मे जन्मे थे।’(युक्तिभद्र दीक्षित पुतान-पढीस ग्रंथावली-पृ.14)
  अभी बलभद्र(पढीस) जी शिशु ही थे कि पिता श्री कृष्ण कुमार जी का देहांत हो गया।बडे भाई दीनबन्धु पर परिवार का सब भार आ गया।गांव मे जिस तिस का कोई न कोई काम कर देते और घर के सदस्यो का पेट भरने का इंतजाम कर लेते।पिता के देहांत के समय बडे भाई दीनबन्धु तब बारह वर्ष के ही थे।पढीस जी का पालन पोषण भी उनके अग्रज दीनबन्धु ने ही किया।जैसा कि पढीस ग्रंथावली मे उल्लेख मिलता है कि उस समय अम्बर पुर मे मूना और मनचित्ता नामक दो ब्राह्मण बहने रहती थीं।कहा जाता है कि वे दोनो पाक कला और गायन मे बहुत कुशल थीं।श्रीमंतो के यहां हमेशा से गुणवंतो की कद्र होती रही है।राजा के दरबार मे भी इन दोनो बहनो का बडा मान था।जब राजा का परिवार लखनऊ से कमलापुर आता तो इन दोनो बहनो के लिए पहले से ही निमंत्रण आ जाता। विधवा हो जाने के बाद जसोदा के सामने जो मुसीबतो का पहाड खडा था।जसोदा की इन दोनो बहनो से अच्छी मित्रता थी,जसोदा के बडे बेटे दीनबन्धु की नौकरी लगवाने मे इन्ही दोनो बहनो का योगदन था।शायद इसके अलावा जसोदा के बडे परिवार को जिन्दा रखने का कोई और उपाय भी न रहा होगा।
बारह वर्षीय पितृविहीन बालक दीनबन्धु की मजदूरी मेहनत ईमानदारी और संघर्ष की प्रतिभा क्षमता को जानकर कसमंडा के राज परिवार से दीनबन्धु को सहायता मिल गई तो पूरा परिवार जी उठा।अम्बरपुर की जवार द्वारा बालक दीनबन्धु की कर्मठता और जीवन संघर्ष के किस्से मूना और मनचित्ता से सुनकर राज परिवार ने दीनबन्धु को अपने दरबार मे खिदमतगार रख लिया।यही से इस परिवार को मानो संजीवनी शक्ति मिल गई।धीरे धीरे परिवार पलने बढने लगा।राजा कसमंडा की कोठी कमलापुर (सीतापुर)मे थी।लखनऊ मे भी कसमंडा हाउस था तो राजा साहब का पारिवार कभी कमलापुर तो कभी लखनऊ मे रहता था।कुछ ही वर्षो मे पढीस जी के अग्रज दीनबन्धु जी ने अपने सद्गुणो से राजा साहब के परिवार का मनमोह लिया।अब राज परिवार की  सब जिम्मेदारी दीनबन्धु पर आ गयी थी।दीनबन्धु पूरी लगन और ईमानदारी से राजपरिवार की सेवा करने लगे। कुछ समय तक सब कुछ सही चलता रहा था फिर जब राजा साहब की बेटी का विवाह तय हुआ तो बेटी ने दहेज मे दीनबन्धु को ही अपने ससुराल विजयनगरम ले जाने का आग्रह किया ।पहले के जमाने मे राज परिवारो मे प्राय: अपने प्रिय सेवक आदि को अपने साथ बेटियां ससुराल ले जाया करती थीं।दीनबन्धु जी जब राजकुमारी के साथ ससुराल जाने लगे तो उन्होने ही अपने सबसे छोटे भाई बलभद्र प्रसाद को राजा साहब के यहां खिदमत के लिए नियुक्त करा दिया।इस प्रकार अपने घर के छोटकन्नू यानी बलभद्र प्रसाद दीक्षित जी कसमंडा आ गये।राजा साहब कसमंडा का परिवार खासकर राजा और महारानी बेहद उदार थे।परिणाम ये हुआ कि बलभद्र प्रसाद की पढाई लिखाई भी युवराज कसमंडा के साथ ही होने लगी।रानी जी बलभद्र प्रसाद को बहुत प्यार करती थीं।लेकिन ब्रह्मणवादी वर्णव्यवस्था की बनी लकीर वो कभी पार नही करती थीं।यज्ञोपवीत होने से पहले तक किशोर बलभद्र को राजा साहब की रसोई का बना भोजन मिलता रहा बाद मे उन्हे अपने लिए स्वय्ं भोजन बनाने का आदेश किया गया-
जनेऊ होने के बाद उन्हे अपने हाथ से ही बनाने खाने की ताकीद कर दी गई।उनके रहने को अलग कमरा और पकाने खाने को उसी के साथ चौके चूल्हे का प्रबन्ध हुआ।बालक ब्रह्मचारी बलभद्दर चौके मे छूत पाक की लक्ष्मण रेखांएं खींचकर भोजन बनाने बैठते तो रानी साहिबा को चैन न आता।वे उनके चौके के बाहर –लक्ष्मण रेखा के उसपार कुर्सी डलवाकर बैठतीं और अपने इस नन्हे ब्रह्मचारी ‘बलिया’को बतातीं कि साग दाल मे कितना नोन हरदी डाले।आंटे मे कितना पानी डालकर गूंथे कि आंटा गीला न हो ’(युक्तिभद्र दीक्षित पुतान-पढीस ग्रंथावली-पृ.16)
तात्पर्य ये कि बचपन मे जिस अभाव को पढीस जी ने जिया होगा वह राज परिवार मे आकर समाप्त हो गया था ।स्वाभाविक है कि उन्हे खाने पीने पहनने ओढने के सभी भौतिक सुख साधन उपलब्ध होने लगे थे।राजा के दरबार मे रहने के तौर तरीके का अनुभव ,राजदरबार के व्यवहार आदि की शिक्षा के साथ राजसी सुख का अनुभव भी होने लगा था। रानी मां उन्हे बहुत चाहती थीं।कसमंडा राज्य की छत्रछाया मे युवराज के साथ ही पढीस जी की प्रारम्भिक शिक्षा संपन्न हुई।वहीं रहकर उन्होने हिन्दी उर्दू मिडिल और आलिम फाजिल की परीक्षा पास की । अब तो बलभद्र जी पढे लिखे सुदर्शन नौजवान बन चुके थे।
इसी बीच पढीस जी का विवाह 1918 मे महमूदाबाद के भंडिया ताल्लुका के कबरा गांव निवासी पांडेय परिवार की कन्या इन्दिरानी देवी से हो गया।हुआ ये कि आलिम फाजिल करने के समय तक पढीस जी की उम्र कोई 20 वर्ष हो आयी थी सो परिवारी जन उनके ब्याह का दबाव बनाने लगे थे। बलभद्र प्रसाद ने ब्याह के दो बरस बाद 1920 मे हाईस्कूल किया, और इंटर फाइनल तक पहुंचते ही पढीस जी 25 नवम्बर 1922 को एक बालक के पिता भी बन गये।बडे बेटे का नाम रखा बुद्धिभद्र।अभी तक का जीवन राजा कसम्ंडा के परिजनो की भांति ही बीता था।लेकिन अब राजा को उनके बुद्धि कौशल की राज्य के संचालन हेतु आवश्यकता थी।पढीस जी की पढाई अब छूट गई थी। लेकिन काल्विन कालेज मे पढाई के दौरान थोडे से समय मे ही उनके भीतर का जन और अभिजन दोनो ही परिमार्जित हो चुका था।प्रतिभाशाली तो बचपन से ही थे।परिणाम स्वरूप उस समय के कर्मचारियों और उच्चवर्ग मे उनका आचरण और व्यवहार राज्य की आवश्यकता के अनुरूप बनता गया फिर कुछ समय बाद ही लखनऊ स्थित कसमांडा स्टेट(राजा कसमांडा के कार्यालय) में अब महराज ने पढीस जी को सयाना समझकर अपना सेक्रेटरी बना लिया।माने कसमन्डा नरेश के प्राइवेट सेक्रेटरी।दरबार की निगरानी मे रहकर पले बढे पढीस जी पर राजा साहब का बहुत विश्वास था। कुछ ही समय में वो महाराज के बहुत विश्वास पात्र हो गये थे।युवराज दिवाकर प्रकाश सिंह अकेले पूरे राज्य के वारिस थे लेकिन अपनी विलासी प्रवृत्तियो के कारण महाराज सूर्यबख्श सिंह अपने ही बेटे युवराज पर बहुत विश्वास नही करते थे।युवराज उम्र मे पढीस जी से कुछ छोटे थे।लेकिन युवराज हमेशा पढीस जी को सेवक की तरह ही देखते थे जबकि महराज का नजरिया भिन्न था।असल में युवराज का सुरा -सुन्दरी का शौकीन होना भी महाराज के अविश्वास का प्रमुख कारण बना।बहरहाल युवराज के रूप मे पढीस जी का नैसर्गिक विरोधी भी उनके सामने सदैव रहता था लेकिन पढीस जी कभी उनसे उलझे नही।समय पर युवराज का विवाह भी अत्यंत सुन्दर कन्या से हुआ,उनके संताने भी हुई किंतु महाराज ने अपने जीते जी सत्ता की बागडोर कभी युवराज को नही सौंपी।महाराज उदार प्रवृत्ति के जनता से जुडे हुए व्यक्ति थे।यही कारण था कि युवराज को उन्होने कभी इस लायक नही समझा और पढीस जी पर राज्य के सभी कार्यो का भार रहने लगा।पढीस जी ने उसका कुशलता पूर्वक निर्वाह किया-
‘जिस स्नेह और विश्वास से कसमंडा राज्य में बलभद्र का पालन पोषण और शिक्षण हुआ था उसे उन्होने कभी खंडित नही होने दिया-राज्य की सेवा मे रहे तो भी निर्लिप्त रहे।....राजा और प्रजा दोनो का ही प्रिय पात्र बने रहना बलभद्र के ही वश का था।राजप्रबन्ध अच्छा होने से कसमंडा रियासत उनके समय में खूब फली फूली।’ (युक्तिभद्र दीक्षित पुतान-पढीस ग्रंथावली-पृ.18)
दो भाइयो के रियासत मे नौकरी पा जाने से पैतृक गांव अम्बरपुर मे भी धीरे धीरे परिवार मे संपन्नता आने लगी थी। खेत,मकान, बैल,गाय, भैस वगैरह सब कुछ हो गया था।पहले वाली मडैया के स्थान पर अब बडे आंगन और कई कमरो वाला मकान ही नही आसपास जवार मे इस परिवार का एक रुतबा कायम हो गया था।  दो मंझले भाई अम्बरपुर मे ही रह गये थे।सुखदेव और कामता प्रसाद दोनो बीच के भाइयो ने घर परिवार को बहुत अच्छे ढंग से संभाल लिया था। चारो भाइयो मे बहुत प्रेम था।गांव के लोग इन्हे राम –लक्ष्मण-भरत -शत्रुघ्न के रूप मे देखते थे-‘जब कभी चारो भाई घर पर होते तो गज भर के ब्यास वाले थार मे एक साथ खाते-जब तक चारो इकट्ठे न बैठते कोई कौर भी न तोडता।आपस मे स्नेह इतना कि जवार मे राम,भरत,लक्ष्मण और शत्रुघ्नादि चारो भाइयों की उपमा दी जाने लगी।’ (युक्तिभद्र दीक्षित पुतान-पढीस ग्रंथावली-पृ.19)
अपना कार्य ईमानदारी और निष्ठा से करना भी रियासत के कुछ कर्मचारियो को अच्छा नही लगता था।पढीस जी पर सबकी नजर रहती थी।लोग राजा साहब से शिकायते करते तो राजा साहब की समझदारी और पढीस जी पर विश्वास के कारण सब षडयंत्र विफल हो जाते।पढीस जी को जब ऐसे षडयंत्रो का पता चलता तो वो जानकर भी उनके प्रति अनजान बने रहते।राजपरिवारो मे नैतिक अनैतिक हर प्रकार के क्रियाकलाप होते रहते है किंतु पढीस जी अपने नियम और चरित्र के बिल्कुल अडिग रहने वाले व्यक्ति थे।युवराज साहब को पढीस जी का ये बहुत अच्छा होना या समझा जाना कतई सही नही लगता था।उनके हिसाब से पठीस जी एक नौकर थे जिसे जो कुछ भी आदेश किया जाए निभाना ही चाहिए लेकिन
पढीस जी युवराज को हित अनहित समझाते और जो उचित जान पडता वही करते।युवराज उन्हे अपमानित करने के सभी अवसर खोजते ,योजनाए बनाते किंतु पढीस जी अपनी सकारात्मक युक्तियो से कभी उनके वश मे नही हुए।कसमंडा राज परिवार का मंसूरी मे समरपैलेस भी था जहां गर्मियों मे नौकरो सहित पूरा
परिवार आराम फरमाने जाता था तब पढीस जी भी उनके साथ जाते।
कसमंडा में नेपाल से भगा कर लाई गई दो लडकियो के बारे मे जब महारानी पता लगा तो महारानी ने उन दोनो लडकियो के लिए दलाल को पैसे देकर दरबार मे बुला लिया उनका पुनर्वास हुआ और उनका नाम क्रमश: अनुसूया और प्रियंवदा रखा गया।दरबार में एक नेपाली युवक मोहनसिह पहले से ही रहता था।दोनो लडकियो मे से प्रियंवदा का विवाह उसी युवक से कराया गया।राज परिवारो मे तमाम अंतर्कथाएं होती हैं।युवराज की भी अनेक कहानियां होंगी लेकिन पढीस जी उम्र मे इन सभी से बडे थे इसीलिए सब महिलाए उन्हे जेठ जैसा सम्मान भी देती थीं और पढीस जी सबका आदर करते।युवराज को ये सब बातें बिल्कुल भी अच्छी न लगती थीं।अब उनकी पत्नी युवरानी साहिबा पढीस जी को वो सम्मान नही दे पा रही थीं जो महरानी साहिबा की नजर मे पढीस जी को मिलता था।पढीस जी बस निर्विकार भाव राज परिवार और जनहित में अपना काम करते रहते किसान और प्रजा संबन्धी कोई निर्णय पढीस जी ही लेते और महराज सूर्यबख्श सिंह से उसकी पुष्टि करवा लेते।
राजपरिवार मे रहकर उनकी परवरिश हुई थी सो राजसी वेशभूषा घुडसवारी और पोलो का शौक उन्हे भी था।अम्बरपुर से कमलापुर स्थित कोठी लगभग 26 कि.मी. थी और हजरतगंज लखनऊ स्थित कोठी की दूरी भी अम्बरपुर से लगभग 40 कि.मी.थी।पढीस जी तब आने जाने के लिए राजपरिवार से मिले घोडे की सवारी का ही उपयोग करते थे।ट्रेन के अलावा तब कोई अन्य तेज चलने वाला साधन न था।उनकी पोषाक दरबारी होती थी-
‘घुडसवारी के लिए वे बन्दगले का कोट और जोधपुरी साफा बान्धते थे।सामान्य रूप से वह दरबारी पोशाक में कोट और साफे के अलावा धोती पहनते।धोती पर मोजे और बूट का रिवाज उनदिनो भद्र लोगों मे आम था।’-(युक्तिभद्र दीक्षित पुतान-पढीस ग्रंथावली-पृ.24)
दरबार मे नौकरी करने के बाद भी पढीस जी ने अपने स्वाभिमान और जनपक्षवादी चेतना से कभी समझौता नही किया।अपना पहला कविता संग्रह-चकल्लस-उन्होने अपने युवराज कुंवर दिवाकर प्रकाश सिंह को ही समर्पित किया उसका प्रकाशन भी कसमंडा हाउस लखनऊ से ही संवत1990 तदनुसार सन1933 मे हुआ ।इसके बावजूद पढीस जी अपने स्वाभिमान को तिरोहित नही करते।रचनाकार की स्थिति का स्वरूप उन्होने साफ कर दिया था।वे कहते हैं-
तुम जो फुलवारी के रक्षक/तिहि के तनकुन्ने माली हम
हम लयि लयि आयी फूल हार/तुम सिरजौ सजौ फूल बंगला
छूटयि अरघानयि छपरन ते/संसारु तमासा देखि रहयि
यहु सिट्टाचारु आपका हयि/जुगजुग ते अइसै चलि आवा
तुम राजा हौ हम परजा हन/तुम छत्री हौ हम बांभन हन
तुमहू कुछु हौ हमहू कुछु हन/यह कयिस चकल्लस द्याखउ तउ।
 तात्पर्य ये है कि पढीस जी दरबार मे रहकर भी अपने स्वाभिमान के प्रति लगातार सजग रहे।उनकी इस पुस्तक की भूमिका निराला जी ने लिखी थी।यह बहुत बडी उपलब्धि उन्हे अपने समय मे ही सहज ही अपनी प्रखर रचनाशीलता के कारण ही मिल गई थी।
 दूसरी ओर पढीस जी अम्बर पुर आते ही अपने परिवारी जनो के उसी सहजता से मिलते।कसमंडा नरेश के प्राइवेट सेक्रेटरी का अपना रुतबा था किंतु गांव मे प्रवेश करते ही वे अपनी माता जी के “छोटकन्नू” और बडे भाइयो के वही पुराने “भद्दर” बन जाते।परिवार बडा हो आया था तो वे सब बच्चो के कक्कू बन गये थे। सन 1930 के दशक मे जहां ब्रहमण लोग गांवो मे जातीय जडता के चलते नीची जातियो के टोले मे जाना भी अशुभ मानते थे।
वहां पढीस जी दलित समाज के टोले मे लगातार आते जाते।धूल सने दलित बच्चे को गोद मे उठा लेते।पढीस जी का मन मनुष्यता की सही दिशा को पहचान चुका था।रचनाशील मन की भावनाएं जीवन मे साफ झलकने लगी थीं।समभाव के बिना हमारा समाज अधूरा ही रह जाता है।पढीस ग्रंथावली मे आई एक घटना का विवरण ध्यान देने योग्य है।पढीस जी को यथारूप समझने मे इस प्रसंग से बहुत लाभ मिलेगा-
‘लखनऊ से आ रहे थे।जेठ का महीना शिद्दत की गर्मीऔर लू के झोकें का आलम।गांव बाह जंगलीनाथ शिवशंकर के शिवाले के पास से होकर गुजरे तो पुजारी से पैलगी हुई।पुजारी जी ने दो पल छ्हां(छाया मे ठहरना) कर जलपान कर लेने का आग्रह किया।बलभद्र जी घोडे से उतर गए।पुजारी जी जलपान लाए।एक मैली सी कटोरिया मे कई दिनो के बासी,शिव जी पर चढे हुए परसाद पेडे –उनपर विहार करते हुए कुछ एक आवारा चींटे और उससे अधिक मैली लुटिया मे घंटो पहले किसी भगत द्वारा भरे गे किसी डोल का पानी।बलभद्र जी ने बहाना बनाया –अभी तपन से चले आ रहे हैं-शरीर ताव पर है ऐसे में पानी नुकसान कर जाएगा और चल दिए।खरी दुपहरिया।चिरई चुनगुन,गांव के कूकुर तक जरा सी ठंडक की तलाश में कहीं न कहीं दुबके पडे थे।आदमी आदम जात की तो बिसात ही क्या?घर का रास्ता चमरटोली से होकर जाता था।रमदासी चमार के दरवाजे से गुजरे तो नाक बडी सोन्धी खुशबू से भर गई।रमदासी की दुलहिन जो रिश्ते मे उनकी भौजाई लगती थी भुर्जिन काकी के यहां से चने भुनाकर घर मे घुसने का उपक्रम कर ही रही थी कि उन्होने आवाज दी भौजी! वह ठिठक गई।बलभद्र जी ने हंसकर कहा-ताजे चने अकेले ही चबाओगी?..हजम न होंगे।वह समझी भद्दर भैया हंसी कर रहे हैं।मठरा कर बोली-‘आकेले काहे?लेव न पूरी चंगिया धरी है|’  ‘प्यास भी लगी है।’बलभद्र ने कहा और घोडे से उतरकर रमदासी के तरवाहे की ओर बढ चले।भौजी के बदन मे काटो तो खून नही।भडभडा कर घर के भीतर भागी और दो क्षण बाद ही रमदासी भाई बाहर निकल आए।...बलभद्र जी तबतक तरवाहे के नीचे बैठ चुके थे।रमदासी अनिश्चय की मुद्रा मे खडे हुए तो बलभद्र जी आंखें तरेर कर बोले-‘भौजी से कहा था प्यास लगी है और तुम हांथ झुलाते चले आए-पिलाओ न पानी,कि नही पिलाओगे ?’
रमदासी के मुंह से बोल न फूटा।मंत्र के मारे से डोल उबहन(रस्सी) उठाई और चमरौटी की कच्ची कुंइया की ओर भागे।भौजी तबतक जलपान लेकर आ चुकी थीं।अरहर की महीन कैनियो से बनी,लिपी पुती साथ चंगरिया मे ताजे भुने चने –बगन मे पत्ते पर रखा हुआ नोन मिर्च और ऊपर से छटाक भर की फगुनहटे गुड की एक डली।पता नही उसके हांथ ही नही सारा शरीर पत्ते की तरह कांप रहा था।रमदासी डोल भरकर लौटे तो उसके बदन मे फिर हरकत हुई।घर मे एक ही लोटा था।उसे बाली और कंडे की राख से मांजकर इतना चमकाया गया कि धूप पडने पर कौन्धा(आंखें चुन्धियाने वाली चमक) मार रहा था।गिलास घर मे होने का सवाल ही नही था।इसलिए जल भरा लोटा ही सामने आ गया।बलभद्र ने चने से मुट्ठी भरी तो भौजी से देखा नही गया-भागकर घर के अन्दर।बलभद्र ने जल्दी से दो तीन मुट्ठी चने चबाए-जीभरकर लोटे मे चुल्लू लगाकर पानी पिया।चने के सोन्धेपन,गुड की मिठास और ठंडे पानी तारीफ की और उठकर खडे हो गए।रमदासी भाई विस्फारित नेत्रों से ये अनहोनी देख रहे थे।‘घोडे को पानी पिलाकर बांध देना’-कहते हुए बलभद्र घर की ओर चल दिए जो उस जगह से
मुश्किल से दो सौअ गज की दूरी पर रहा होगा।इस घटना का जिक्र बलभद्र जी ने अपने एक स्केच ‘चमार भाई’ मे किया है जो माधुरी के किसी अंक मे छपा था।‘--(युक्तिभद्र दीक्षित पुतान-पढीस ग्रंथावली-पृ.26)

 पढीस जी की प्रगतिशीलता किसी नारे या आन्दोलन से उपजी प्रतिक्रिया के रूप मे नही बल्कि स्वाभाविक शिक्षा के संस्कार  से उत्पन्न प्रागतिशीलता थी। वे अपने ब्राह्मणवादी समाज से लडकर निम्न जाति के समाज को प्रगति का मार्ग दिखाना चाहते थे।आम आदमी के सुख दुख और उसके जातीय सरोकारो के यथारूप जानकार और मानवता के सच्चे पक्षधर थे।सामाजिक सुधार की भावना
उनके मन मे कूट कूट कर भरी हुई थी।कल्पना करें सन 1920से 1930 का भारत और उसमे फैली जातीय चेतना और उस चेतना को अपने आचरण और व्यवहार से बदलने की कोशिश करना कितना कठिन कार्य रहा होगा।आज लगभग एक शताब्दी के बाद भी जातीय चेतना मे व्याप्त ऊंच नीच की खाइयां अभी तक हमारे समाज से पूरी तरह से मिट नही पायी है।पढीस जी ने अपने समय मे समाज के सभी मनुष्यो को एक जैसा समझने की कोशिश की यह अपने आप मे बहुत बडी बात थी।तब अम्बरपुर जैसे पिछडे गांव मे महात्मा गान्धी के अछूतोद्धार या सरदार पटेल के स्वराज आन्दोलन की धमक नही पहुंची थी।जैसी देश के शहरो प्राय:आन्दोलन चल रहे थे।जातीय रूढियों मे जकडे हुए श्रमजीवी किसान मजदूरो को अपने भाग्य के अलावा गांव जवार के कुछ सवर्ण सामंत ही सहारा देते थे।कोई दैवी विपत्ति हो सूखा हो या बाढ किसान मजदूर अपने ऐसे ही आश्रयदाताओ के दरवाजे पर जाकर अपनी गुहार लगाता था।घोर अभावो के जीवन से निकल कर अब पढीस जी राजसत्ता के प्रतिनिधि के रूप मे संपन्न और विख्यात हो गए थे।उनका पूरा परिवार आसपास के जवार और शहरो मे संपन्नता की दृष्टि से उल्लेखनीय हो चुका था।किंतु पढीस जी का मन सत्ता के निकट कभी नही रहा।अन्य दरबारियो से भी उनकी कभी बनी नही क्योकि पढीस जी का स्वभाव सर्वहारा की ओर झुका रहता था।यह सब अन्य दरबारियो को पसन्द नही आता था।यहां तक कि राजकुमार को भी पढीस जी के इसी प्रकार के आचरण से चिढ होती थी लेकिन महराज के सामने उनकी चलती न थी।
जहां तक लेखन या रचनाधर्मिता की बात करें तो ऐसा अनुमान लगाया जा स्कता है कि उन्होने तीसरे दशक के प्रारम्भ मे ही कविताए लिखना आरम्भ किया होगा।1933 चकल्लस के प्रकाशन से पूर्व की कोई ऐसी निश्चित तिथि इस आशय की नही मिलती जिससे यह कहा जा सके कि पढीस जी ने कविताएं लिखना कब शुरू किया किंतु यह निश्चित है कि सन 1925 या इसके आसपास से ही उनका लेखन अवश्य ही शुरू हुआ होगा।निर्धन जन किसान मजदूर आदि की समस्याओ के साथ ही दरबारी जन और अभिजन की संपन्नता और संपन्नता से उपजे विकारो आदि का ज्ञान उन्हे बखूबी हो गया थ। ‘चकल्लस’ की कविताओ को पढने से पढीस जी के मन मे व्याप्त सामाजिक सरोकारो को साफ तौर से देखा समझा जा सकता है। इसी कालखंड मे उन्होने अपना नाम पढीस रखा होगा। उस समय समाज मे व्याप्त अशिक्षा अन्धविश्वास जैसी रूढियो से लडने के लिए पढना लिखना बहुत आवश्यक था।पढीस का अर्थ हुआ पढने की ललक रखने वाला व्यक्ति। सचमुच पढीस जी अपने लिए ही नही अपने राज्य,समाज और जवार के विकास के लिए लगातार पढ रहे थे।बाद मे तो उन्होने अपने गांव मे किसानो मजदूरो को पढाने के लिए पाठशाला भी खोली।
सन 1931 से 1935 तक का समय पढीस जी के व्यक्तिगत और साहित्यिक जीवन मे कई परिवर्तन करने वाला साबित हुआ।इसी अवधि मे उनकी पुस्तक ‘चकल्लस’ का प्रकाशन हुआ।इसी बीचे उनका निराला,रामविलास शर्मा और अमृतलाल नागर से संपर्क भी हुआ।यही वह समय था जब उन्हे गद्यकार के रूप मे भी जाना जाने लगा था। आगे चलकर सन1938 मे पटना पब्लिशर्स,बांकीपुर पटना से प्रकाशित कहानी संग्रह-‘ला मजहब’ भी सामने आया।साहित्य की दुनिया मे पढीस जी का नाम चर्चित हो चुका था। महराज बूढे हो चले थे।दरबार का वातावरण अब और खराब हो गया था।बात मसूरी स्थित समर पैलेस की है।बुद्धिभद्र और युवराज के बच्चो मे कुछ खेल खेल मे झगडा हुआ तो युवरानी ने –बुद्धिभद्र को नापदान का कीडा कहकर अपमानित किया बुद्धिभद्र ने भी उसका जवाब अपने लहजे मे दिया और पैलेस से निकल आए।पढीस जी तब वहां नही थी।इस तिरस्कार की घटना को सुनकर पढीस जी का भी मन भर आया ।पढीस जी देहरादून मे थे।उन्होने एक पत्र लिखकर पैलेस मे भिजवाया और लखनऊ की ट्रेन पकडकर दोनो लखनऊ चले आए।,दूसरी ओर1935 मे बडे भाई दीनबन्धु का देहांत हो गया था।अंतत: इसी वर्ष पढीस जी ने दरबार की नौकरी भी पछोड दी थी। सन 1935 तक पढीस जी राजा कसमंडा श्री सूर्यबख्श सिंह के सचिव रहे।पढीस जी ने अपना काव्यसंकलन –चकल्लस-भी कुंवर दिवाकर प्रकाश सिंह को ही समर्पित किया था,लेकिन कुवर साहब से कभी उनकी पटरी नही बैठी। उनदिनो अंग्रेजी राज था तो अक्सर राष्ट्रवादी विचारो के लोग स्वदेशी राजाओ सामंतो के यहां नौकरी करना पसन्द करते थे। उन दिनो पुस्तक का प्रकाशित होना भी सहज नही था।दरबार के प्रभाव का भी असर था कि उनकी किताब राज्य की ओर से ही प्रकाशित हुई थी।अंग्रेजियत का विरोध करना और भी कठिन रहा होगा।पढीस जी बार बार अपनी कविताओ मे अंग्रेजियत का विरोध करते या हंसी उडाते चलते हैं। कहानियो मे समाज के अंतिम जन की संवेदना की गहराई से पडताल करना उनका लक्ष्य सदैव बना रहा।
राजा साहब कसमंडा की नौकरी छोडने के बाद संभवत: काम की तलाश में पढीस जी कुछ समय के लिए बम्बई भी गए।उनके साथ बेटा बुद्धिभद्र भी था।पढीस जी बेटे को वहीं छोडकर वापस अम्बरपुर चले आए। गांव आकर किसानी करने लगे।अपने खेत और समाज का काम करने मे उन्हे कोई थकान या संकोच कभी नही हुआ।परिवार बडा था नौकरी की उन्हे जरूरत भी थी।
सन 1936 मे ही बुद्धिभद्र भी बम्बई से वापस आ गये।अब सन 1936 की सर्दियो मे ही पढीस जी परिवार सहित गांव से लखनऊ आ गये। सुन्दर बाग मे किराए के मकान मे रहने लगे लेकिन कमाई का कोई स्थाई जरिया न था। इसी बीच माता जसोदा का देहांत हुआ,पढीस जी का पूरा परिवार गांव जाकर क्रियाकर्म मे शामिल हुआ।सन 1937 जाते जाते यह बडी क्षति कर गया था।अन्य भाइयो का परिवार भी बढा था सो अम्बर पुर मे रहने के बजाय पढीस जी परिवार सहित फिर लखनऊ आ गए।
 इस समय तक पढीस जी एक गद्यकार के रूप मे प्रतिष्ठित हो चुके थे।निराला जी के अलावा अमृतलाल नागर,रामविलास शर्मा,आदि से निकटता भी पढीस जी के व्यक्तित्व के विकास मे सहायक बनी। इन्ही दिनो सन 1938 में लखनऊ मे आकाशवाणी केन्द्र स्थापित हो रहा था।ग्रामीण भाषा मे काम करने के लिए आकाशवाणी को किसी प्रगतिशील व्यक्ति की आवश्यकता थी।पढीस जी को वहां काम मिल गया। इस प्रकार एक और इतिहास बना,पढीस जी ने ही अवधी के कार्यक्रमो की शुरुआत लखनऊ आकाशवाणी से की।सन 1938 मे उन्हे आकाशवाणी मे नौकरी मिल गई।आकाशवाणी को योग्य अवधी कलाकार मिला और पढीस जी को रोजी रोटी का साधन मिल गया था।
शंकरी का विवाह
 शंकरी पढीस जी की बडी बेटी थी उसे पडोस के एक लडके परशुराम से प्रेम हो गया।शंकरी की उम्र कोई 17 या 18 की रही होगी।परशुराम के पिता हरदोई निवासी पं हजारीलाल दीक्षित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य और स्वतंत्रता आन्दोलन के कार्यकर्ता थे।शंकरी ने खुद ही अपना विवाह परशुराम से तय कर लिया था यह बात पढीस जी की पत्नी को कतई पसन्द न आयी।शंकरी की पिटाई भी की गई।परशुराम का परिवार थोडा निचले स्तर का ब्रह्मण था। जबकि पढीस जी का ब्रहमण परिवार कुलीन बीस बिस्से वाला था।शादियो मे ये कुलीनता आदि का बहुत महत्व होता था।ब्राह्मणो की शादियो मे ये ऊंच नीच का बडा झंझट था। बीस बिसुवा वाले ब्रहमण सबसे अधिक पूज्य और ऊंचे माने जाते थे।उसके बाद 18 बिसुवा वाले फिर इसी निचले क्रम के अनुसार कुछ ब्रहमण पूजा पाठ आदि कराने वाले या महापात्र आदि को उच्च कान्यकुब्जो के समक्ष बहुत हीन माना जाता था। खैर वो जमाना जातीय रूढियो मे जकडे समाज का था।उस समय अपने समाज और जाति बिरादरी की अवहेलना बहुत बडी बात थी।जाति बिरादरी मे ऐसे लोगो की लोटिया डूब जाती थी।अर्थात बिरादरी वाले उस परिवार का  बहिष्कार करने लगते थे।
इन सब बातो की फिक्र शंकरी को न थी।उसे तो बस अपना प्रेम दिखाई दे रहा था।पढीस जी की पत्नी के अनुसार ये बेमेल विवाह था,लेकिन शंकरी न मानी।पढीस जी के प्रगतिशील संस्कार और स्नेही स्वभाव के कारण भी शंकरी ऐसा निर्णय सुनाने का साहस कर सकी थी।परिवार के सब लोग यह जानते थे।विवाह तय हुआ,पठीस जी ने कहा मै कन्यादान नही करूगा-“कन्या कोई गाय- बछिया है क्या जो पूंछ पकडकर दान कर दी जाए?’’(पृ.36 वही)
रूधियो मे जकडे बिरादरी वाले शामिल न हुए।कोई परजा भी नही बुलाया गया ।उसकी आवश्यकता भी न थी।कोई महिला संगीत आदि भी न हुआ।यहां तक कि कोई पंडित भी विवाह कराने के लिए तैयार नही हो रहा था।कन्यादान के बिना कैसे हो विवाह यह समस्या तमाम कर्मकांडी पंडितो के समक्ष थी।बाद मे पढीस जी के साथी कमलापुर निवासी पंडित इन्द्रदत्त शर्मा जी विवाह कराने के लिए तैयार हुए। न कोई बाजा,नकोई खास रोशनी,न कोई साज सज्जा केवल कुछ आम के पत्तो के बन्दनवार बनाए गए थे। चुने हुए 15 बाराती जो ज्यादातर कांग्रेसी सुराजी थी।पढीस जी के रिश्तेदारो मे केवल लडकी के मामा शामिल हुए थे।अन्य रिश्तेदार शामिल न हुए।कई मायनो मे ये उस समय का आदर्श विवाह था।इसमे फिजूल खर्च नही हुआ था। लडका और लडकी के प्रेम को ही सबने महत्व दिया था।जातीय ऊंच नीच की रूढि भी टूटी थी। पढीस जी का ये एक क्रांतिकारी कदम था।न कोई दान दहेज, न कोई आडम्बर।पढीस ग्रंथावली के अनुसार-‘इस विवाह मे मिश्रबन्धु,डां.रामविलास शर्मा,यशपाल और सपत्नीक दुलारेलाल भार्गव आदि जितने भी साहित्यकार थे सब मौजूद थे।महाकवि निराला जी भी मौजूद थे।बाहर दर्शको और जिज्ञासुओ की भीड जुटी थी।....हरमोनियम बजाकर निराला जी ने अपनी प्रसिद्ध वन्दना-वरदे वीणा वादिनि वर दे।से इस कार्य मे मंगल गान की कमी को पूरा किया।सबेरे अर्थात 19 मई 1938 के पायनियर मे इस अभूतपूर्व –सुधारवादी
 विवाह का विस्तृत समाचार पहले पृष्ठ पर मोटे टाइप मे शीर्षक देकर छपा।’ (पृ.38 वही)
आकाशवाणी की नौकरी
इनदिनो पढीस जी आकाशवाणी मे नौकरी करने लगे थे।पढीस जी की खासियत यही थी कि जिस काम मे हाथ लगाते उसे पूरे मनोयोग से करने का प्रयत्न करते।अब आकाशवाणी के ग्रामीण कार्यक्रम भी उन्हे ही देखने होते थे। पढीस जी ये सब अपने लेखन को दांव पर लगा कर कर रहे थे।यहां फारसी और उर्दू के लहजे वाले अलिमो का आकाशवाणी पर वर्चस्व था।हिन्दी अभी मान्य सरकारी भाषा नही बन पायी थी।निराला जी आकाशवाणी की उर्दूधर्मिता से बहुत खिन्न रहते थे। आकाशवाणी तो बाद मे कहा जाने लगा पहले तो इस माध्यम को रेडियो ही कहा जाता था।जाने अनजाने लखनऊ को अंग्रेजी राज मे उर्दू का स्टेशन मान लिया था।ऐसे वातावरण मे किसानो की भाषा के माध्यम से जन जीवन के सरोकारो की बात अवधी मिश्रित हिन्दी मे रेडियो मे की जाने लगी थी।बहरहाल पढीस जी के प्रयास से इतना हुआ कि आकाशवाणी लखनऊ के तत्कालीन अधिकारी आकाशवाणी की आवाज गांव गांव तक पहुंचाने की बात पर सहमत हुए।पढीस ग्रंथावली के अनुसार-‘लखनऊ केन्द्र मे पहले पहल देहाती प्रोग्राम “पंचायत घर’’ उनकी ही देन था।‘ (पृ.39 वही)
पढीस जी के साथ उनका बडा बेटा बुद्धिभद्र भी आकाशवाणी के लिए काम करने लगा था।अब घर गृहस्थी की गाडी अच्छे से चलने लगी थी।इसी कालावधि मे आकाशवाणी लखनऊ से बुद्धिभद्र ने टीम बनाकर एक अवधी कार्यक्रम शुरू किया इसका शीर्षक था ‘मतई काका’ इस कार्यक्रम की टीम मे बुद्धिभद्र के अलावा अवधी के कवि बंशीधर शुक्ल और आकाशवाणी के संगीत विभाग के कलाकार शामिल हुए।कहना अनुचित न होगा कि पढीस जी के आने से आकाशवाणी की भाषा मे बदलाव आया। हिन्दी के उच्चारण आदि के लिए पढीस जी की राय लेने लगे थे।पढीस जी संचार माध्यम की भाषा के सन्दर्भ व्यक्ति के रूप मे चर्चित हो गए थे।तब दूरदर्शन नही था।पढीस जी निराला, रामविलास शर्मा,अमृतलाल नागर और यशपाल जैसे हिन्दी के सानिध्य मे रहने के नाते लगातार अपने व्यक्तित्व और कृतित्व को निखारने मे लगे थे।उनका कहानी संग्रह ‘ला मजहब’प्रकाशित हो चुका था।इसी बीच ‘माधुरी’ जैसी प्रतिष्ठित कहानी की पत्रिका मे उनकी रचनाए लगातार प्रकाशित हो रही थीं।तात्पर्य ये कि पढीस जी ने समय पर आकाशवाणी जैसे श्रव्य माध्यम का बेहतरीन ढंग से जनहित के लिए उपयोग किया।आकाशवाणी के लिए अवधी के पहले कार्यक्रम ‘पंचायत घर’ के जनक के रूप मे वे सदैव याद किए जाते रहेंगे।
निराला का काव्यपाठ
  बात सन 1940 के आसपास की है।पढीस निराला जी को प्रणाम करते थे और बडा भाई मानते थे।निराला जी अपने फक्कडपन और हिन्दी के समर्थन प्रचार प्रसार आदि को लेकर बहुत सजग थे।जब पढीस जी आकाशवाणी मे नौकरी करने लगे तब भी निराला जी के संपर्क मे वो थे।पढीस जी चाहते थे कि निराला जी का काव्यपाठ आकाशवाणी से हो और देश भ को निराला के स्वर का श्रवण लाभ मिले।जब भी पढीस जी निराला जी से कहते निराला जी टाल जाते।लेकिन अनेक मिन्नतोऔर प्रार्थनाओ के बाद निराला जी काव्यपाठ केलिए सहमत हुए।निराला जी को किसी कार्यक्रम के लिए सहमत करा पाना बहुत बडी बात थी।निराला का स्वाभिमान उनकी जातीयता और खासकर हिन्दी की अस्मिता के स्वाभिमान के साथ जोडकर देखने की बात है।पढीस ग्रंथावली मे उल्लिखित प्रसंग के आधार पर-
निराला जी उनदिनो बडे ठाट से रहते थे।चुनी हुई शांतिपुरी चौडी किनारे वाली धोती,बंगाली कट का सिल्क का कुर्ता,पांव मे चमकता हुआ पंप शू और कान्धे के नीचे तक लहराती हुई,कायदे से संवरी जुल्फें,दाढी मूछ सफाचट,बडीबडी रतनारी आंखें-मस्त हाथी जैसी धरती धमक चाल।..पढीस ने तअर्रुफ कराया-‘ये हैं पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला’। ..रेडियो वाले ,बंगाली वेश धारण किए हुए इस महाकाय ग्रीक दीवता को देखकर सकते मे रह गए।वह सोच ही नही सकते थे कि किसी हिन्दी वाले का यह रूप भी हो सकता है।..बडे अदब से उनका इस्तकबाल हुआ और वह लखनऊ रेडियो के स्टूडियो न.चार मे टाकर की कुर्सी पर बैठा दिए गए।खास कर ऐसे विशेष अवसर पर तो पढीस उनके साथ रहे फिर अपने काम मे लग गए।निराला जी के काव्यपाठ का संचालन मिस्टर आयाज को करना था।    आयाज साहब निराला जी को बार बार समझा रहे थे जनाब यू बैठिए,..जनाब जब मै एनाउंस करूंगा आप तब पढिएगा इत्यादि।निराला जी सुन रहे थे और कसमसा रहे थे।शायद पढीस जी ये संचालन कर रहे होते तो निराला जी सहज रहते परंतु वो नही हो पाया।...ब्राडकास्ट का समय हुआ आयाज साहब की आवाज आयी-‘अभी आप फलां प्रोग्राम सुन रहे थे अब हिन्दी मे कविता पाठ समाअत फरमाइए कवी हैं-सुरियाकांता त्रिपाठा निराली’। ...इसके बाद निराला जी कविता पाठ तो नही आया बल्कि कुछ आवाजे-हूं..म..हुच्च हुच्च की सुनाई पडी फिर शांति छा गई। ड्यूटी रूम से केन्द्र निदेशक ने जो देखा तो निराला जी ने मिस्टर अयाज को दबोच रखा था।निराला जी की आंखें लाल हो चुकी थीं।दोनो चुपचाप पकडे और जकडे हुए थोडी देर तक खडे रहे रेडियोस्टेशन पर कर्मचारियो मे अफरा तफरी का माहौल हो गया था।किसी तरह जल्दी से लाइव ब्राडकास्ट की जगह फिलर लगाया गया।फिर पढीस जी की खोज हुई।यह सुनते ही पढीस जी स्टूडियो मे घुसे उन्हे देखते ही निराला जी हरकत मे आ गए।जैसे उनकी चेतना वापस आयी हो।निराला जी तमक कर उठ खडे हुए।आयाज साहब छूटकर वहां से निकल भागे।अब निराला जी के सामने उनके क्रोध को झेलने वाले पढीस जी थे।पढीस जी ही उन्हे मना कर इस काव्यपाठ के लिए ले गए थे।निराला पढीस जी को गरियाते हुए बोले-‘तुमते कहा रहै कि हमका रेडियो फेडियो न लै चलौ-मुलु तुम न मान्येव।उहु सार हमका त्रिपाठा निराली कहेसि’..निराला जी क्रोध मे थे उनके हुख से सही शब्द नही निकल रहे थे।पढीस जी हाथ जोडकर उनसे माफी मांगी तो फिर निराला जी तनिक शांत हुए फिर बोले-‘अब हमका हियां से लै चलौ’। पढीस जी उन्हे आकाशवाणी केन्द्र के दूसरे गेट जिधर तब कैंटीन होती थी उधर से ले आये।पढीस जी ने कैंटीन मे वहीं उन्हे चाय पिलाई और बिना किसी से मिलाए ही वहां से ले आए। इस घटना के बाद निराला जी ने कभी आकाशवाणी से कविता नही पढी।पढीस जी पर इस पूरी घटना की जिम्मेदारी डाल दी गई और उन्हे नौकरी करने मे दिक्कते आने लगीं।बाद मे केन्द्र निदेशक के बदलने से कुछ स्थिति सुधरी।यह भी विडम्बना है कि निराला जी के स्वर मे उनकी कोई पंक्ति आकाशवाणी के आर्काइव मे उपलब्ध नही है। हो सकता है उस समय तो उनपर बैन भी लगा दिया गया हो।बहरहाल स्वतंत्रता के बाद भी निराला कभी रेडियो पर नही गए।बाद मे जब पंत जी आकाशवाणी के निदेशक बने तब उन्होने आग्रह भी किया लेकिन निराला ने कभी स्वीकार नही किया।
यह द्वितीय विश्वयुद्ध के आरम्भ का समय था।बेटा बुद्धिभद्र आकाशवाणी मे नौकरी करने लगा था। उसका विवाह बिना किसी दान दक्षिणा के हुआ।बेले के गजरे ही दहेज मे वधू को सजाने के लिए लाए गये थे।अब पढीस जी का मन लखनऊ से उचट गया था।उनका लिखना पढाना भी बाधित होने लगा था। वो दौर था जब सरकारी नौकरियो के बहिष्कार की भी हवा बह रही थी।पढीस जी ने 1941 मे आकाशवाणी की नौकरी छोड दी। अब फिर से वो स्थाई रूप से अम्बरपुर आ गए थे।1941 मे आप आकाशवाणी की सरकारी नौकरी छोडकर स्वराज आन्दोलन मे शामिल हो गये।विदेशी का बहिष्कार करने की चारो ओर मुहिम चल रही थी।लेकिन पढीस जी को लगा कि सबसे बडा काम अपने घर गांव के अनपढ किसानो मजदूरो को जीवन की शिक्षा देकर उन्हे जीवन की प्रगति का मार्ग दिखाया जाय।
 दीनबन्धु किसान पाठशाला
 दीनबन्धु जी का देहांत हो चुका था।अन्य दोनो भाइयो ने खेत घर जानवर और संपूर्ण चल अचल सम्पत्ति पर अपना अधिकार कर लिया था।पढीस जी का परिवार लखनऊ रहने के कारण हिस्से की दावेदारी मे पिछड गया था।बटवारे के समय पढीस जी को अपने भाइयो के देने से जो कुछ मिला उसे ही स्वीकार कर लिया।सन्युक्त परिवार अब बिखरने चुका था। अब एक ही घर के चार हिस्से हो गए थे।पढीस जी का मन यहां भी लगता न था।पढीस जी सपरिवार अपने मित्र रीवान स्टेट के राजकुमार महेश्वर बख्श सिंह के यहां अक्सर चले जाते उनके बच्चो को पढाते सिखाते।अपने बच्चे भी साथ होते ही थे।कुछ दिन मन लगता था यहां आकर।लेकिन असल मे तो उनकी कल्पना थी कि उनके गांव मे भी एक ऐसी पाढशाला बने जिसमे सभी बिरादरी के जवान बूढे बच्चे एक साथ पढने के लिए बैठ सकें।कसमंडा स्टेट मे नौकरी करने के कारण पढीस
जी को जवार के सभी छोटे बडे तालुकेदार अच्छी तरह से जान चुके थे।आसपास उनका बहुत सम्मान था।आकाशवाणी से ग्रामीण जीवन के लिए अच्छी बाते प्रसारित होने के कारण भी उनका सम्मान  पूरे जवार मे बढ गया था। इसीलिए जब इसी उद्देश्य को लेकर वे पडोस के गांव कुंवरपुर के  जागीरदार लल्ला साहब के पास पहुंचे।लल्ला साहब तक उनकी ख्याति पहले ही पहुंच चुकी था। इसके बाद एकदिन पढीस जी ने लल्ला साहब से अपने मन की बात कही कि वो इस क्षेत्र मे सवर्ण दलित सभी जातियों के  बच्चो और किसानो के लिए पाठशाला चलाना चाहते हैं,तो लल्ला साहब ने इस प्रस्ताव को न केवल स्वीकार किया बल्कि सकारात्मक सहयोग करते हुए अम्बरपुर के समीप वाला अपना कोठार और ढाई एकड का बागीचा इस काम के लिए पढीस जी को सौंप दिया। तब आसपास की ज्यादातर जागीर जमीन लल्ला साहब की ही मिल्कियत मे थीं।
पढीस जी बहुत खुश हो कर घर लौटे फिर गांव वालो को इस प्रस्ताव के बारे मे बताया।लेकिन गांव के लोगो के विचार सहमति और असहमति के बीच बंट गये। जब कभी भी किसी समाज मे कोई नया काम शुरू होता है तो मिलीजुली प्रतिक्रियाएं ही होती हैं।यहां भी सवर्णो ने कहा हम अछूतो के साथ अपने बच्चो को नही बैठने देंगे,लेकिन पढीस जी ने गांव के नौजवानो का मन जीत लिया था तो नौजवान से ना उनके साथ थी।सबने मिलकर पाठशाला के लिए मिले स्थान को लीप पोतकर चमका दिया।कोठार बन्द रहता था सो उसकी सफाई अच्छे से की गई और इस प्रकार पढीस जी के मन मुताबिक ‘दीनबन्धु किसान पाठशाला’की नीव पडी।ग्रंथावली मे ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि उस विद्यालय के उद्घाटन के अवसर पर मिठाई के नाम पर गुडधनिया वितरित की गई थी-‘फिइर एक वह दिन भी आया जब बडी धूमधाम से ‘दीनबन्धु किसान पाठशाला’ का उद्घाटन हुआ।सबको गुडधनिया बंटी।पाठशाला का शुभारंभ हो गया।’(पृ-52 वही) गांव के ही युवक अध्यापन के लिए रखे गए बिना किसी वेतन के वो समय देते थे।जब पढीस जी न होते तब भी नौजवानो ने कक्कू(ज्यादात नौजवान और बच्चे पढीस जी को कक्कू ही कहते थे।) की यह पाठशाला संभाल ली थी। पढीस जी सबकी कक्षा एकत्र करके तमाम ग्यान की बाते समझाते।विद्यालय क्या वो मानो पढीस जी के सपनो का समावेशी आदर्श समाज विकसित हो रहा था।ब्राह्मणो,ठाकुरो के बच्चो के साथ दलितो मे चमार,पासी,धानुक,गडेरिया जैसी अत्यंत पिछडी और शोषित जातियो के घरो के बच्चे भी नहा धोकर पढने आते थे।इसी विद्यालय के लिए पढीस जी ने प्रार्थना लिखी थी।जो आज भी उनके गांव मे उन्ही के नाम से संचालित ‘पढीस विद्या मन्दिर जूनियर हाईस्कूल,अम्बरपुर, सिधौली, सीतापुर’ पाठशाला मे गायी जाती है-
पहले पढना लिखना सीखें
फिर सभी काम बन जायेंगे।
मजबूत बने बिरवा की जड
फल आपरूप आ जायेंगे।
विद्या है ग्यान कि महतारी
विद्या है सदा हि सुखकारी।
विद्या का मरम धरम सीखें
बस सभी काम बन जायेंगे।
मूरख न कहीं कल पाता है
नर से नर पशु बन जाता है।
मूरखता ही को दूर करें
बस सभी काम बन जाएंगे।
इस प्रार्थना की खासबात यह है कि इसमे किसी ईश्वर आदि की कृपा की कामना
नही की गयी है बल्कि स्वाभाविक रूप से प्रकृति के उदाहरण दे कर सबको विद्या की महिमा बतायी गयी है।पढीस जी ऐसे ही समावेशी समाज की कल्पना करते थे जिसमे किसी के धर्म या फिर जाति को कोई ठेस न पहुंचे। बाद मे 1967 मे जब इस नए नाम से विड्यालय की स्थापना हुई होगी तब शायद पढीस जी के छोटे सुपुत्र लवकुश दीक्षित ने इस प्रार्थना मे चार पंक्तिया और जोड दीं,जो इस प्रकार हैं-
ऊपर पढीस के शब्दो को
हम सब मिलकर दुहराएंगे।
अपने पढीस विद्या मन्दिर मे
लवकुश बनकर दिखलाएंगे॥
पढीस जी की वर्तमान पीढी से मिलने देखने की इच्छा से पहली बार मै कुछ साहित्यिक मित्रो के साथ अम्बरपुर गया ।सिधौली पहले भी गया हूं लेकिन सिधौली मे लवकुश दीक्षित जी के पुत्रों तथा पढीस जी के पौत्रो को जीवन की कढिनाइयों से संघर्ष करते हुए पहली बार देखा और उनसे संक्षिप्त मुलाकात भी हुई। कुछ भी हो अम्बरपुर मे पढीस जी के इस विद्यालय ने बहुत आश्वस्त किया।अम्बरपुर (पढीस जी की जन्म स्थली)  भ्रमण की दृष्टि से 18 मई 2015 को अचानक ही जाने का योग बना समय कम था किंतु बहुत सुखद अनुभव रहा।इस विद्यालय पर पढीस जी की छवि और उनके संस्कार की छाप अवश्य मिली।वर्तमान समय मे कार्यरत अध्यापको से मिलकर भी हार्दिक प्रसन्नता का अनुभव हुआ।यह विड्यालय उ.प्र.सरकार की आर्थिक सहायता से संचालित है।अंबरपुर के ही श्री पुत्तन लाल शुक्ल जी ने वर्ष 1967 में इस विद्यालय की स्थापना की थी।हालांकि इस विद्यालय का पढीस जी द्वारा स्थापित दीनबन्धु किसान पाठशाला से कोई निकट का संबन्ध नही दिखाई दिया।
किसान कवि का अवसान
पढीस जी अवध के पहले किसान कवि थे जिन्होने अभावो से लेकर अत्यधिक प्रभावशाली दरबार मे रहकर अभिजन और सामान्य जन की समस्याओ को न
केवल देखा समझा वरन उसे भरपूर जिया भी ।पढीस जी हमारे तत्कालीन समाज के सामाजिक चिंतक के रूप मे भी देखे जाते हैं।अवध के स्वाभिमान का कवि ही आधुनिक अवधी को साहित्य का नया रूप दे सकता था।चकल्लस(1933)मे प्रकाशित उनकी कविताए उनके गांव देहात  की स्वाभाविक छवियां हैं।ग्रामीण बालिका, स्त्री ,मजदूर,किसान आदि की छवियां चकल्लस मे अपनी भरपूर व्यंजना शक्ति के साथ उपस्थोत होती हैं। अवधी भाषा मे सर्वप्रथम पढीस जी ने ही 
आकाशवाणी के माध्यम से गांव और किसान की समस्याओ पर ही अपना ध्यान केन्द्रित रखा।
काल देवता ने ऐसे कवि को अपने पास बुलाने के लिए भी कृषि कार्य का ही बहाना लिया। कहा जाता है कि पढीस जी की मृत्यु हल के फाल की चोट के कारण हुई।यह किंवदंती है कि हल कोने मे रखा था जिसको उठाते समय उसका फाल उनके पैर मे लग गया। कुछ अन्य लोग कहते हैं कि वह खेत जोत रहे थे तो फाल उनके पांव मे घुस गया।यह घटना 27 जून सन 1942 की है।पहले तो गांव मे ही देसी द्वाई होती रही लेकिन उन्हे टिटनेस हो चुकी थी।कई दिन बाद गांव से लखनऊ बडे बेटे के पास यह दुखद खबर आयी तो बेटे ने राजा कसमंडा के कार्यालय जाकर सहायता के लिए निवेदन किया राजा साहब ने तुरंत मोटर कार से पढीस जी को लखनऊ लाने की व्यवस्था करा दी।सब परिवारी जन उन्हे बलरामपुर अस्पताल ले आये।अस्पताल मे कई दिन भर्ती रहे उनके तमाम कवि साहित्यकार पत्रकार दरबारी कलाकार मित्र उन्हे वहां मिलने भी आते रहे।किंतु काल ने किसी की अभ्यर्थना न सुनी और 14 जुलाई 1942 को इस महान कवि कथाकार ने मात्र 44 वर्ष की अल्पायु मे ही अपना शरीर त्याग दिया।
प्रस्तुति:भारतेन्दु मिश्र

गुरुवार, 25 जून 2015



पढीस जी स्वय्ं कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे।अपने ही जाति बिरादरी वालो पर व्यंग्य करना आसान नही रहा होगा।न निराला के लिए न पढीस जी के लिए-निराला जिस प्रकार –कान्यकुब्ज कुलांगार- कहते हैं और जातीय वर्जनाओ को तोडते हुए आगे बढते हैं उसी प्रकार पढीस जी अवधी समाज को जगाने का प्रयास करते है।लेकिन पढीस जी अनपढ ग्रामीणो के बीच रहकर उनकी भाषा बोली मे उनकी आलोचना करते हैं जो उस समय मे निश्चित ही एक बडी बात रही होगी।-
मरजाद पूरि बीसउ बिसुआ
हम कनउजिया बांभन आहिन।
दुलहिनी तीनि लरिका त्यारह, 
सब भिच्छा भवन ते पेटु भरइ 
घर मा मूसा डंडइ प्यालइ,
हम कनउजिया बांभन आहिन।
बिटिया बइठि बत्तिस की, 
पोती बर्स अठारह की झलकी 
मरजादि क झंडा झूलि रहा,
हम कनउजिया बांभन आहिन।।

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

अवध-ज्योति का वंशीधर शुक्ल विशेषांक
(कल की डाक से मिला)




(जनवरी-मार्च-2015)वंशीधर शुक्ल जी अवधी जन जीवन के बडे कवि हैं।डा.रामबहादुर मिश्र द्वारा संपादित की जाने वाली इस पत्रिका की निरंतरता हमे चकित करती है बिना किसी संसाधन के अवधी साहित्य की सेवा करने का बीडा उठाए रामबहादुर जी सचमुच सराहनीय कार्य कर रहे हैं।किंतु इस अंक के संपादन और सामग्री संचयन का श्रेय भाई दिनेश त्रिपाठी शम्स को जाता है।प्रस्तुत अंक मे शुक्ल जी की चर्चित –राम मडैया,किसान की दुनिया,राजा की कोठी,कदम कदम बढाए जा और उठ जाग मुसाफिर भोर भई जैसी कुछ महान कविताओ के अलावा बेदखली जैसी श्रेष्ठ अवधी कहानी भी प्रकाशित की गई है।इसके साथ ही वंशीधर जी पर केन्द्रित समीक्षात्मक टिप्पणियो मे
 भाई विनयदास, ,अनामिका श्रीवास्तव,सीमा पांडेय, राहुल देव ,दिनेश त्रिपाठी शम्स आदि के आलेख अपनी नवीनता के कारण आकर्षित करते हैं।कुल मिलाकर इस अंक के अतिथि संपादक दिनेश त्रिपाठी शम्स के इस सराहनीय कार्य हेतु बधाई।
विशेष-
आप सभी मित्रो के लिए –रामबहाद्र मिश्र जी का यह पत्र भी प्रस्तुत है जो उत्तर प्रदेश के मुखयमंत्री जी के नाम लिखा गया है।