शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

धन्यवाद माधव भैया-
इस पुस्तक पर स्वतन्त्र रूप से की गयी यह पहली टिप्पणी है|पढीस जी युग चेता थे उन्होंने अवधी वालों जो दिशा दिखाई आधुनिका अवधी के तमाम कवि उनके पगाचिन्हों पर चलकर  आज भी अवधी की सेवा कर रहे हैं-(राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित )

रविवार, 3 सितंबर 2017

.त्रिलोचन शास्त्री से साक्षात्कार
‘अवधी गद्य में अनंत शक्ति है’ :त्रिलोचन शास्त्री
(यह साक्षात्कार ‘मानसी’ मासिक पत्रिका के लिए वर्ष 1992 में उनके यमुनाविहार स्थित आवास पर लिया गया था|उस समय जो टिप्पणी मैंने लगाई थी वही बाद में राष्ट्रीय सहारा और फिर वहां से ‘मेरे साक्षात्कार :त्रिलोचन ’में भी शामिल हुई |उसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया जा रहा है|विशेष बात यह कि इस छोटे से साक्षात्कार में मुझे लगभग उनके साथ 12 घंटे बैठना पडा था|मैं कलम से लिखता था ,तब मेरे पास टेपरिकार्डर भी नहीं था और त्रिलोचन जी बार बार बतकही में विषयांतर हो जाते थे|
सुख दुःख ,लाभ हानि,उपलब्धि-अनुपलब्धि की चर्चा से दूर निसंकोच गंभीर भाव से अकेले आदमी के भीतर के आदमी और उसके सरोकारों को जान समझ कर अपनी रचनाओं में एक अवधी चरित्र त्रिलोचन जी ने अपने पात्रों के माध्यम से विक्सित किया है|वे अवध के गाँवों को विश्वविद्यालय मानते हैं|त्रिलोचन से पूर्व निराला की कविताओं में भी इस अवधी चरित्र का संदर्श प्राप्त होता है|अब सर्वहारा की बात शुद्ध खडी बोली या अंगरेजी में दूरारूढ़ कल्पनाओं में सोफों पर बैठकर भी की जा रही है ,पर त्रिलोचन जी पात्र के निकट जाकर उसके भाषाई चरित्र में ही बात करते हैं |शास्त्री जी के पास यद्यपि संस्कृत,अंगरेजी,उर्दू,बांग्ला,मराठी,गुजराती आदि अनेक भाषाओं के टकसाली शब्द हैं किन्तु विद्वत्ता झाडना उन्होंने ध्येय ही नहीं बनाया|घनी दाढी मूछों वाले त्रिलोचन के व्यक्तित्व में गंभीरता दूर से ही झलकती है,पर बातों की सहजता और भी आकर्षित कर लेती है| त्रिलोचन शास्त्री ‘लोचन अनत उघाडिया ,अनत दिखावनहार’ कबीर की इस उक्ति के पर्याय लगते हैं| ---# भारतेंदु मिश्र )

प्रश्न-आपका वास्तविक नाम वासुदेव सिंह है,फिर त्रिलोचन नाम का वर्ण आपने कब किया,उसका उद्देश्य क्या था?
त्रिलोचन :-बचपन में ही मेरे पिता का देहांत हो चुका था -6 या 7 की आयु में |यह नाम मेरे संस्कृत के गुरु ने दिया था|मैं उनके घर पढ़ने जाता था|मेरे पिता ने जिन्हें लोग बैरागी भी कहते थे ,ईशावास्योपनिषद तथा कठोपनिषद याद कराया था|मेरी स्मरण शक्ति शुरू से ही ऐसी रही है कि जो कुछ एक बार बताया गया या ध्यान से सुना उसे ज्यों का त्यों याद कर लिया| एक बार मैं गाँव के मित्रों के साथ कबड्डी खेल रहा था तो बजाय कबड्डी –कबड्डी कहने के मैं उपनिषद् मन्त्रों को ही बोला रहा था|संयोगवश वहीं पास में पंडित जी बैठे थे|उन्होंने जब यह देखा तो मुझसे मेरा परिचय पूछा,और मेरे साथ मेरे घर गए|फिर मेरी दादी से कहा , ‘मैं इस बालक को संस्कृत पढ़ाना चाहता हूँ|’ दादी ने थोड़ा तर्क वितर्क करने के बाद मुझे अनुमति दे दी|मैं दोपहर डो बजे तक मदरसे में उर्दू पढ़ता फिर वहां से दो मील दूर पंडित जी के घर संस्कृत पढ़ने जाने लगा|पहले दिन पंडित जी ने माहेश्वर सूत्र लिखवाये |फिर एक एक सूत्र पढ़कर उनका उच्चारण बताया| और याद करने के लिए कह कर खेत पर चले गए|मैं कुछ डेरा बाद अन्य छात्रो के साथ कबड्डी खेलने लगा|इतने में पंडित जी खेत से वापस आ गए,और क्रोधित होकर मुझसे पूछा -‘सूत्र याद हो गए?’मैंने कहा-‘सुन लीजिए |’ उनके संकेत पर मैंने चौदहों सूत्र सुना दिए|फिर अन्य छात्रों को दंड देते हुए तीन बार मुझसे पंडित जी ने सूत्र सुने |तीन बार यथाक्रम सुना देने पर उन्होंने पूछा-‘पहले से याद था ?’ मैंने कहा ‘नहीं’ तो मुझे गोद में उठा लिया| और प्रसन्न होकर मुझे
त्रिलोचन नाम मेरे संस्कृत के गुरू ने दिया|

प्रश्न-वर्तमान हिन्दी कविता पर महानगरीय बोध या कोरी आंचलिकता का प्रभाव है,परन्तु आपकी कवितायें अवधी चरित्र से अधिक जुडी हैं|इसका मूल कारण क्या है?
त्रिलोचन:- नगर में रहने वालों का व्यावहारिक ज्ञान स्तर कम होता है,क्योंकि गाँव वालों का व्यावहारिक प्रत्यक्षीकरण करने का उन्हें सुयोग ही नहीं मिलता|मिलना जुलना भी बहुत कम होता है|महानगरीय जीवन में फूल-पौधे वन आदि दुर्लभ होते हैं |यह सब गांवों में सुलभ होते हैं| गाँव का बालक किताब पढ़ने में भले ही कमजोर हो,वनस्पति ज्ञान में नगर के बालक से आज भी असाधारण है|वनस्पति,पशु और मनुष्य के नाना रूपों में चेतना के विकास के साथ साथ जिसकी चेतना का विकास होता है,रचनाकार होने निकट पर वह जीवों के पारस्परिक संबंधों को भी अच्छी तरह रख सकता है|हमारे प्राचीनतम महाकवि न नगर निंदक थे न ग्राम निंदा और न अरण्य जीवन के ,इसीकारण वे पूर्ण कवि थे|जीव और जीवन के निकट होने पर ही कोई कवि हो सकता है|मेरी चेतना का विकास या निर्माण अवध के परिवेश में हुआ |यदि अवध को कोई पाठक मेरी रचना से पहचानता है तो मेरा रचना कार्य सफल ही कहा जाना चाहिए|

प्रश्न:-‘भौजी’,’उस जनपद का कवि हूँ’, ‘झाँपस’, ‘नगई महारा’, ‘चैती’ में कातिक का पयान जैसी कवितायें आपकी मौलिकता को रेखांकित करती हैं आपको इन चरित्रों ने किस प्रकार प्रभावित किया ?
त्रिलोचन:- मेरी रचनाओं में जो व्यक्ति आये हैं वे इसी भूतल पर मुझे मिले |उनमें से आज कुछ हैं कुछ नहीं|लोग चाहें तो कह सकते हैं|कि मेरी अनुभूतियाँ अवध को नहीं लांघ पातीं,लेकिन मैं भारत वर्ष में जहां कहीं गया हूँ वहां के भाव भी वहां के जीवन के साथ ही मेरी कविताओं में आये हैं|मेरे यहाँ अवध के शब्द मिलते हैं लेकिन अन्य राज्यों के अनिवार्य शब्दों का अभाव नहीं है|मैं आज भी गाँव की नीची जाति के लोगों के साथ बैठकर बात करता हूँ|अवध के गाँवों को तो मैं विश्वविद्यालय मानता हूँ| ‘नगई महारा ’से बहुत कुछ मैंने सीखा|वह कहार था –गांजा पीता था ,पर उसे बहुत से कवियों के कवित्त याद थे| ‘साईं दाता संप्रदाय’ तथा बानादास की कवितायें भी उससे सुनी थीं|उसी के कहने से मैं साईं दाता संप्रदाय को जान पाया |नगई उस संप्रदाय से भी जुड़ा था|उसपर अभी एक खंड और है जो लिखना है|अवध में गाँव के निरक्षर में भी सैकड़ों पढ़े लिखे से अधिक मानवता है|गाँवों में शत्रुता या मित्रता का निर्वाह है|यहाँ महानगर में ऊपर मंजिल वाले नीचे मंजिल वाले को नहीं जानते|

प्रश्न :- वंशीधर शुक्ल,गुरुभक्त सिंह मृगेश,पढीस,रमई काका,चतुर्भुज शर्मा,विश्वनाथ पाठक ,दिवाकर आदि के बाद अवधी लेखन में किस प्रकार के परिवर्तन की आवश्यकता है ?
त्रिलोचन:- अवधी में पढीस ,रमई काका,वंशीधर शुक्ल ,चतुर्भुज शर्मा,विश्वनाथ पाठक आदि उस कोटि के आदरणीय कवि हैं जैसे छायावाद के हैं|निराला ने प्रभावती उपन्यास में तीन पद अवधी में लिखे हैं ,एक भोजपुरी पद भी ‘सांध्य काकली’ में लिखा है|मानसिकता का अंतर मिलता है|गाँव में पुस्तकालय हो तो गाँव साक्षर हो|मानसिकता शिक्षा और उनके व्यवहार आदि में विकास हो|मैं समझता हूँ कि चेतना के कुछ ऋण होते हैं उन्हें उतारना चाहिए|मैंने अपने गाँव के केवटों को अवधी कवितायें सुनाईं ,उन कविताओं को सुनकर एक संत वृत्ति के बूढ़े केवट ने कहा –‘यह सब तो क्षणिक है |’ दूसरी बार वहां के चरित्रों को लिखा तो उसने पसंद किया| जिसे आज लिखा जा रहा है उसे समझाने वाले लोग भी होने चाहिए|गाँव में सदाचार को प्रतिष्ठित करने का काम अवधी से किया जा सकता है|यदि रीतिकालीन कविता पर भक्तों और संतों का प्रभाव न जमा होता तो गाँवों में अशालीनता बढ़ गयी होती|अत:सदाचार की प्रतिष्ठा संत कवियों ने ही की|अवधी में इस प्रकार का कार्य अब भी किया जा सकता है|

प्रश्न:- अवधी की बोलियों में एक रूपता कैसे बनायी जा सकती है? आपकी दृष्टि में बिरवा की क्या भूमिका हो सकती है?
त्रिलोचन:- मेरा कहना है जो जिस अंचल का है उसी रूप में उसका लेखन हो|यदि मैं सीखकर लिखूं तो सीतापुर की बोली में भी लिखूंगा पर जो वहां कवि है वह अधिक श्रेष्ठ लिखेगा |अत: मेरी दृष्टि में इन्हें एक रूपता देने की आवश्यकता नहीं है|वंशीधर जी ने अवधी में गद्य लिखा है वह मिले तो उसे ‘बिरवा’में प्रकाशित करना चाहिए|भाषा सपाट नहीं होती रचनाकार की दृष्टि सपाट होती है|अत: कहीं की बोली को स्टैण्डर्ड मानने के बाद वहां की संस्कृति भी स्टैण्डर्ड हो जायेगी|इस लिए किसी भी क्षेत्र को स्टैण्डर्ड मत बनाइये |संक्रमण क्षेत्रों की भाषा को भी मानिए |उसका मानकीकरण हो तब कोश बने|अवधी के गद्य में अनंत शक्ति है,वह शक्ति हिन्दी खडी बोली में ही नहीं है |उसमें विभक्तियाँ हैं|बिरवा यदि मानक कोश का स्वरूप तय करना चाहे तो उसके लिए मैं टीम को प्रशिक्षण दे सकता हूँ|

प्रश्न:- गद्य वद्य कुछ लिखा करो,शीर्षक कविता किसी समीक्षक की आलोचना से संदर्भित है,या आप समीक्षा में बदलाव महसूस करते हैं?
त्रिलोचन:- एक बार डा.रामविलास शर्मा ने पत्र लिखा|वे मेरे अध्ययन आदि की प्रशंसा करते हैं|उन्होंने मुझे गद्य लिखने का सुझाव दिया था|तभी लिखी थी यहाँ कविता-रुख देखकर समीक्षा का अब मैं हूँ हामी/कोई लिखा करे कुछ ,जल्दी होगा नामी |’ आधुनिक हिन्दी में आविष्कृत अवध का ज्ञान चाहिए और प्राचीन का आकलन |आलोचना श्रमसाध्य है |उसको चाहिए ,प्रहार करे या अनुद्घटित पर कुछ कहे ,नहीं तो उसका क्या महत्व है? जैसे-रामचंद्र शुक्ल ,नामवर आदि के आलोचक भी उनको पढ़ते हैं|आलोचक साधार पूर्व का और नए का विरोध करता है|प्रशंसा मूलक आलोचना में भी अभिज्ञान होता है पर देर में| धारदार आलोचना आलोचक को जल्दी यश दिलाती है|

प्रश्न:- आपको ‘शब्द’ पर हिन्दी संस्थान उत्तर प्रदेश द्वारा पुरस्कार भी मिला है|आप सानेट को किस रूप में परिभाषित करते हैं?आपके अतिरिक्त अन्य प्रमुख सानेट लिखने वाले कौन से लोग हैं?
त्रिलोचन:- मराठी में इसे सुनीत कहते हैं| सुनृत वाणी का विशेषण है|वह हिन्दी हो गया है| पहले बांग्ला में चतुर्दशपदी प्रयुक्त हुआ है|हिन्दी में 1909 में पहला सानेट प्रसाद जी ने लिखा तब वे 20 वर्ष के थे|सानेट उनके एक छंद में नहीं अनेक छंदों में हैं| 1929 में छपे ‘काशी उत्सव’ स्मारक संग्रह में एक कविता प्रसाद जी की है जिसमें तीन बंद रोला और अंत में उल्लाला है|लोचन प्रसाद पाण्डेय ने भी सानेट लिखे हैं|1901 में कच्छ के एक कवी ने उर्दू में सानेट लिखा| 1921 के बाद तो हिन्दी में कई लोगों ने सानेट लिखे हैं|निराला,पन्त आदि ने भी सानेट लिखे हैं|बच्चन ने रूसी से हिन्दी में अनुवाद करते समय सानेट का प्रयोग किया| नरेंद्र शर्मा ने भी कुछ सानेट लिखे हैं|निराला के प्रति पन्त का एक सानेट है-
‘छंद बंद ध्रुव तोड़,फोड़ कर पर्वतकारा
अचल रूढ़ियों की ,कवि ,तेरी कविता धारा
मुक्त अबाध ,अमंद ,रजत निर्झर-सी निसृत –
गलित ललित,आलोक-राशि ,चिर अकलुष,अविजित|’
निराला ने 16,पन्त ने ७० के आसपास तक सानेट लिखे हैं|बालकृष्ण राव ने 13 पंक्तियों के सानेट लिखे हैं|गुलाब खंडेलवाल की दो तीन पुस्तकें सानेट की छप चुकी हैं| डा.किशोरीलाल गुप्त की भी पुस्तक आ चुकी है| बिहार के रामबहादुर सिंह मुक्त की भी सानेट की पुस्तकें आयी हैं|सूर्यप्रताप सिंह ने बीस पच्चीस अच्छे सानेट लिखे हैं|केदारनाथ सिंह ने पन्द्रह सोलह सानेट तो लिखे ही हैं|सियाराम शरण ने सानेट लिखे हैं|प्रभाकर माचवे,शमशेर,डा.रामविलास शर्मा,नामवर आदि ने भी सानेट लिखे हैं|

प्रश्न:- सन 1956 की ‘निकष’ में गधे पर आपका एक सानेट पढ़ा –‘बंधु प्रशंसा की है मैंने सदा गधे की /कितना सहनशील होता है ,लाज नधे की-...मानव की संतति में केवल बची धृष्टता /उत्कृष्टता गयी,आयी है अब निकृष्टता |’ इस सानेट ने ही मुझे आपके करीब आने को प्रेरित किया| डा.शंभुनाथ सिंह ने नवगीत आन्दोलन शुरू किया था आपके सानेट तथ्य और कथ्य की दृष्टि से नवगीत भी लगते हैं|आपकी दृष्टि में इस आन्दोलन की सार्थकता क्या है?
त्रिलोचन:- नवगीतकार दूसरे बिम्ब का जो अंश लेते हैं वह पंक्ति के अंत में पूरा होता है ,अधूरा हुआ तो आंशिक सफलता होती है|गीतों में वाक्य लंबे भी हो सकते हैं|लेकिन इसका प्रयोग हिन्दी में कम मिलता है|अंगरेजी या उर्दू में है|निराला के ‘स्नेह निर्झर बहा गया है ’ जैसा एक वाक्य में लिखा गया गीत किसी दूसरे का नहीं मिलता|मैंने भी फ्रीवर्स में नवीन गति और लय का प्रयोग किया है-
‘जब जिस क्षण मैं हारा हारा हारा/मैंने तुम्हे पुकारा|’ बोध और लय से गीत बनेगा-फ्रीवर्स में भी हो सकता है| ‘शारंगधरसंहिता’(चौदहवीं शताब्दी ) वचनिका नाम से फ्रीवर्स पर विचार किया गया है| फ्रीवर्स की प्रेरणा मुझे उपनिषद् और मज्झिमनिकाय से मिली|मेरी इन कविताओं में भी लय बोध है-
‘प्रभु उन्हें दंड दो /जो लोग चलते नहीं है /और कहते हैं चलता हूँ/वे तुम्हारी शक्ति का अपमान किया करते हैं|’
नवगीत में अनाहत भाषा आनी चाहिए|तभी छंद सधता है|स्पीच रिदम होनी चाहिए-अज्ञेय,निराला,तुलसी में है|नवगीत आन्दोलन में ठहराव आ गया है|स्पीच रिदम को नवगीत वाले महादेवी के ‘पंथ रहने दो अकेला ’ शीर्षक गीत से समझें|निराश होने की बात नहीं है, हो सकता है कोई आगे आये|

प्रश्न:- राजनीति की गुंजाइश कविता में किस स्तर तक उचित है? क्या कविता और रिपोर्टिंग किसी सीमा पर एक जैसे नहीं लगते?
त्रिलोचन:- अनुभूतियाँ यदि प्राणमयी हैं और राजनीति करते हैं तो कविता पर उसका प्रभाव अच्छा है|संकल्पना काव्य को पुष्ट करती है|कवि दार्शनिक से ऊंचा होता है|राजेश जोशी की ‘मिट्टी का चेहरा ’ भोपाल -1984 -85 में लिखी गयी कविता है जिसमें मरे हुए पशुओं तक की चर्चा है|उसमें त्रास तो है पर गैस त्रासदी की रिपोर्टिंग नहीं है|अत: यह प्रभावित करती है|कविता में गहरी राजनीतिक समझ तो होनी ही चाहिए|