शनिवार, 17 मार्च 2018


बेचैनी तो बनी रहेगी,सुशील भाई











(2/7/1958 -17 /3/2017)
कितना अनकहा छोड़ गए सुशील भाई,दिनांक 17  मार्च 2018 सुबह भाई विवेक मिश्र से फोन पर बात के बाद सुशील सिद्धार्थ के अचानक चले जाने का समाचार मिला|मन विचलित है सहसा विश्वास ही नहीं हुआ| पिछले चालीस वर्ष किसी फिल्म की तरह नाच रहे हैं|सन 1977 से लेकर अब तक  सुशील भाई के अनेक रूपों से साक्षात्कार होता रहा| सुशील भाई, हमेशा  छोटे बड़े रचनाकारों की नाक - मुंह पोंछ उन्हें साहित्यकार के रूप में स्थापित करने की कवायत में अपना जीवन दांव पर लगाते रहे| फ्रीलांसिंग का संघर्ष आमरण उसे लिखते रहने के लिए बाध्य करता रहा,और वो बस दिन रात लिखता ही रहा | अपने मौलिक के रूप में कुछ व्यंग्य और कुछ कवितायें ही प्रकाशित करा पाए बाकी दूसरो के लिए ही लिखते हुए चले गए|
जुलाई 1977 में बीए प्रथम वर्ष की कक्षा में हम दोनों पहले पहल मिले|बहसों और गंभीर युवा मानसिकता की बातों में वाद विवाद के बीच हमारी मुलाकातें निकटता में बदलती गयीं| हम दोनों अतुल अनजान की सभाओं में भी एक साथ होते थे|मुझे याद आता है उन दिनों लखनऊ वि.वि. का विशाल टैगोर पुस्तकालय,जिसके विशाल वाचनालय में हम लोग बैठकर कबीर तुलसी और निराला,प्रसाद और मुक्तिबोध के बारें में बातें किया करते थे| दोबीघा जमीन,फागुन और गर्महवा जैसी फ़िल्में भी हम दोनों ने तभी एक साथ देखी थीं|तब अनेक उपयोगी किताबें पुस्तकालय से लेकर ही पढ़ने का अवसर  मिल पाता था|हम दोनों ने बी.ए. एक साथ किया था|इसी दौरान  हम एक साथ ही हजारीप्रसाद द्विवेदी,अमृतलाल नागर,शिवमंगल सिंह सुमन और रमई काका जैसे साहित्यकारों से भी मिले थे|उनदिनों प्रो.हरिकृष्ण अवस्थी जी हिन्दी के विभागाध्यक्ष थे| पेन कागज़ लेकर विद्वानों लेखकों के विचार सुनने के लिए हम लोग तत्पर रहते थे|ऐसे आयोजन तब अक्सर विश्वविद्यालयों में होते थे|सुशील भाई के पिताश्री डीएवी. कालेज में हिन्दी के ही प्राध्यापक थे इसलिए सुशील भाई का परिचय क्षेत्र उस समय भी बहुत व्यापक था|अद्भुत प्रतिभाशाली तो सुशील जी थे ही|पूरा नाम सुशील कुमार अग्निहोत्री था किन्तु एम ए .के बाद उन्होंने अपना उपनाम सिद्धार्थ रख लिया था|1980 में सुशील ने विभाग में सर्वोच्च अंक लेकर स्वर्ण पदक जीता था|वो लगातार अपने को प्रमाणित करता जा रहा था|हालांकि मैं संस्कृत में एम ए.करने लगा किन्तु हमारी मुलाकातें लगातार होती रहीं|हिन्दी और संस्कृत दोनों विभाग आमने सामने होने के कारण हमारी बतकही और चर्चा में और इजाफा ही होता रहा| अब हम प्रतिद्वंदी न होकर अच्छे पारिवारिक मित्र बन चुके थे|इसीबीच कुछ तुकबन्दियाँ भी हम लोग करने लगे थे| आशा अग्रवाल के साथ मिलकर 1981 में सुशील भाई ने पहली पत्रिका ‘संकल्प’का संपादन किया|उसके प्रवेशांक के लिए मुझे लिखने के लिए कहा मैंने कालिदास पर लेख लिखा था| वह मेरा पहला ही लेख था जो सुशील भाई ने मुझ से लिखवाया था|ऐसे ही अनेक मेरे समकालीन मित्रों को कवि  लेखक बनाने के लिए सुशील भाई प्रेरक की भूमिका निभाते रहे | ‘संकल्प’ के एक दो और अंक निकले फिर वह बंद हो गयी |घर वालों की सहमति के बिना ही इसी बीच आशा जी से उनका प्रेम विवाह हुआ| जीवन और संघर्ष आगे बढ़ता रहा|मेरी प्रारंभिक हिन्दी अवधी की कवितायेँ भी सुशील भाई के प्रयास से ही पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई|वर्ष 1986 में  मैं नौकरी के सिलसिले में दिल्ली आ गया| सुशील भाई संघर्ष करते रहे| गुरुवार प्रो.सूर्यप्रसाद दीक्षित जी के विद्यार्थी होने के बावजूद सब प्रकार से योग्य होते हुए भी उसे कालेज या विश्वविद्यालय में नौकरी नहीं मिल पायी यह विडम्बना ही रही |प्रारंभ में वो अन्य छोटी नौकरी करना ही नहीं चाहते थे बाद में खिन्नता और किसी स्तर तक आत्महीनता और कुंठा का बोध उन्हें लगातार पीड़ित करता रहा|उन दिनों कई वर्षों तक दीदी प्रो.कैलास देवी सिंह जी ने सुशील भाई को हर प्रकार से सहयोग करते हुए संभाला| लखनऊ वाला सुशील भाई का पता और बिरवा का पता भी दीदी कैलास देवी सिंह जी के घर का ही पता था|


वर्ष 1989 में सुशील ने अवधी की पत्रिका ‘बिरवा’ निकाली तब फिर मुझे अवधी में लिखने को कहा| उन दिनों उन्होंने लखनऊ के पुरनिया स्थित अपने घर में ही प्रेस लगा लिया था|हिन्दी पत्रकारिता और लेखन से जीवन यापन की कठिन कल्पना को ही सुशील भाई ने अपना मार्ग चुन लिया|हतप्रभ करने वाली वाक्पटुता,गंभीर और सामान्य विषयों पर सटीक टिप्पणी करने वाले लेखक की उसकी छवि हिन्दी के अनेकानेक बाहुबलियों को आकर्षित और चकित करती रही| इतनी कुशलता के बावजूद हिन्दी लेखन के माध्यम से जीविकोपार्जन करते हुए सुशील भाई ने अपना पूरा जीवन उनसठ साल नौ महीने में ही जी लिया| कमलेश्वर जी सुशील भाई के लेखन से ही प्रभावित होकर उन्हें सीरियल लिखने के लिए मुम्बई ले गए थे|’तद्भव’ ‘कथाक्रम’ ‘लमही’ जैसी अनेक पत्रिकाओं के प्रारंभिक अंक सुशील भाई के परिश्रम से ही निकले थे|रवीन्द्र कालिया उन्हें दिल्ली लाये तो कहीं न कहीं मूल में सुशील की प्रतिभा ही थी| लेकिन सुशील भाई जीवन की गणित हल करते हुए नई राह खोजते रहे ,चतुर सुजान की तरह जिस डगर पर आगे बढे वहां कुछ नया करने की कोशिश में उसे छोड़ दिया उधर दुबारा नहीं मुड़े| अक्सर बिलावजह अपने ही सगे संबंधियों, हित चाहने वालों को अपना शत्रु भी बना लिया| जीविकोपार्जन के लिए लगातार लिखना उसकी मजबूरी थी कुछ माध्यम दर्जे के संपन्न लेखक उसकी इस मजबूरी का लाभ भी उठाते रहे| हालांकि अब उसके पास काम की कमी न थी लेकिन शरीर और स्वास्थ्य कहीं शिथिल हो रहा था| रक्तचाप और मधुमेह तो खानदानी था ही लेकिन वो सोचते रहे कि इस बीमारी को भी इसी प्रकार संघर्ष और जिद से जीत लेंगे परन्तु हमेशा वैसा कहाँ होता है जैसा मनुष्य सोचता है| 
तुम तो ह्रदय गति रुकने से हमें छोड़ गए लेकिन शताधिक युवा लेखकों को प्रेरित और प्रभावित करने वाले मित्र सुशील सिद्धार्थ को आज अलविदा कहने का साहस नहीं जुटा पा रहा हूँ|अब तो विकल मन बस तुम्हे लेकर रो रहा है|दिल्ली में तुम दस वर्ष रहे,उसमें से एक वर्ष तो हम साथ भी रहे लेकिन अपने काम की धुन में तुमने वैसा संवाद करने और लड़ने का एक भी मौक़ा नहीं दिया|ये बेचैनी तो सदा बनी ही रहेगी|काश तुम देख पाते कि जाने कितने मेरे जैसे तुम्हारे चाहने वाले दोस्त आज दुखी और निराश हैं|


इतनी जल्दी त्रिधारा की एक धारा सूख जायेगी यह अनुमान नहीं था|  'अवधी त्रिधारा' (सं.डॉ.रामबहादुर मिश्र) में संकलित सुशील भाई का एक गीत उनके जीवन की वास्तविकता का पता दे रहा है,मानो सुशील जी को कलेजे में चूहे लग जाने और उसके छलनी हो जाने का बोध पहले ही हो गया था-
धंधा न पानी
कैसे गुजर अब होई अइसे गुजरिया
धंधा न पानी|
सूनी परी है जैसे सारी नगरिया
धंधा न पानी||
आपनि बिथा हम रोई पथरन के आगे
हमरे करेजे मइहाँ मुसवा हैं लागे
झांझर परी है हमरे मन की चदरिया
धंधा न पानी ||
कारी अंधेरिया दउरै लै लै कै लाठी
लकड़ी कै घोड़वा लादे लोहे कै काठी
हमारे करम  मा  नाहीं कउनौ उजेरिया
धंधा न पानी||
हउसन प पाला परिगे सपना झुराने
सातिर सिकारी द्याखौ बैठे मुहाने
का जाने अब को लेई हमरी खबरिया
धंधा न पानी||

सोमवार, 12 मार्च 2018


(लघु कथा)

मिठुआ सुर
# भारतेंदु मिश्र

प्रोफ़ेसर किरपासंकर दिल्ली विश्वविद्यालय म पढ़ावति रहै | मेट्रो ते उनका रोजु आना जाना रहै| वाही दिन उनके बगल कि सीट पर एमफिल. के दुइ चंट बिद्यार्थी बैठ रहैं, उनमा याक चटकि बिटवा रही दूसर वाहिका दोस्त मुरहंट लरिकवा रहै |दुनहू लपटति –चपटति गपुवाय लाग| प्रोफ़ेसर अपने थैले ते याक कितबिया निकारि के पढ़ै क नाटक करै लाग|उनकी नजर किताब म रहै मुला कान रिसीवर बनिगे रहै |वैसी बगल म दुनहू अपनी लीला मा मगन रहैं|प्रोफ़ेसर उनकी तरफ देखे बिना उनकी सब बातैं सुनत रहे|लरिकवा अपनी दोस्त ते कहेसि - ‘यार,सिनाप्सिस वाली प्रोबलम साल्व करा दे|’
‘अभी तेरी सिनाप्सिस नहीं बनी?’
‘ठहर, अभी ले... रिक्वेस्ट डालती हूँ|’
‘कहाँ..?’
‘अरे वो सनकी प्रोफ़ेसर शर्मा है ना,जो पिछले महीने रिटायर हुआ है.. ..वो लड़कियों को बहुत अच्छा रिस्पांस करता है|’
बगल म बैठ किरपासंकर अब और ध्यान ते उनकी बातैं सुनै लाग |
‘हम फोन किये रहेन,वो चिरकुट फोन नहीं उठायेसि ...|’लरिकवा कहेसि |
‘चुप,घंटी जा रही है|’
‘हेलो!.सर मैं रुपाली,..सर मेरा दोस्त ‘कबीर की भाषा’ पर काम कर रहा है|...तो उसे सिनाप्सिस जमा करनी है..सर ! कुछ प्वांट्स वाट्सेप कर दीजिए ना ?..कल सम्मिट करनी है सर| आप जब से रिटायर हुए है न सर, आप जैसा कोई दूसरा टीचर विभाग में नहीं बचा जो हम विद्यार्थियों की मदत करे|..प्लीज सर!...|’
‘क्या कहा सनकी ने?’
‘शाम तक हो जाएगा...मिठुआ बोली के जादू से सब काम हो जाते हैं..|मैं तो ऐसे ही मिठुआ सुर लगाती हूँ और घर बैठे अपने सब असाइंमेंट सनकी से वाट्सेप करा लेती हूँ| ठरकी बुड्ढों को चारा फेंकने से ...’
‘.....थोड़ा चारा मेरे लिए भी...बचा के रखना|’
प्रोफेसर किरपासंकर के कान खड़े हुइगे ,वुइ अपने फोन पर आये तमाम बिटेवन के ई तना कर रिक्वेस्ट डिलीट करे लाग|
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शुक्रवार, 9 मार्च 2018

. उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा गत दिनों  पुरस्कृत की गयी ,अनेक अवधी उपन्यासों , कहानियों और कविताओं की रचनाकार,डॉ ज्ञानवती दीक्षित की जानिब से ....
.( अवधी किस्सा )....

      "मुआवजा"


डॉ .ज्ञानवती दीक्षित : अवधी लेखिका 

बरसन बाद रामनगर लौटे हन. नौकरी केरी बंदिस देस के अलग-अलग सहरन मां लइ जाति रही. यहि क्रम मां आपन गाँव कहूँ पीछे छूटत गा. अब तौ पता नाय बरसन पहिले देखे चेहरा पहिचाने जइहैं या नांय. जैसेन गाँव जाय वाली पगडंडी पर मुड़ेन– एक अबूझ आवेग तेरे हृदय धड़कै लगा. हमार गाँव– पियारा गाँव– जहाँ केरी माटी हमरी सांसन मां महकत है– जहाँ केरा एक-एक पेड़ हमार पहिचाना है . आय गए हन हमरे पियारे गाँव–
आय गए हन तुमसे मिलै के लिए. हमार आँखी भरि आयीं.
सामने लछिमी काकी केरा घर रहै . अरे यौ एतना टूटि-फूटि गा. कबहूँ यौ गाँव केरा सबसे खूबसूरत घर हुआ करति रहै. हरी-भरी फलिन केरी बेलन से ढका, माटी से लीपा-पोता, चीकन-चमचमात घर. माटी से बने कच्चे घर केतने खूबसूरत हुइ सकत हैं—-यहिका उदाहरन रहै लछिमी काकी केरा घर . बड़ी मेहनती रहै लछिमी काकी. भोरहें से सफाई मां जुटि जातीं. उनकी धौरी गइयौ उतनै साफ़-सुथरी रहती रहै, जेतना गोबर से लीपा उनका आँगन. घर के समुंहे खूब साफ- सुथरा रहत रहै. हम बच्चा लोग हूंआ खेलै जाई, तौ धौरी गइया केर बढ़िया दूधौ पियैक मिलत रहै. कबहूँ काकी मट्ठा बनउतीं, तौ ताजा लाल- लाल मट्ठौ पियैक मिलत रहै. गाँव केरे दूध, दही अउर मट्ठे केरा स्वाद तौ गाँवै वाले जानि सकत हैं. सहरन मां वहिकी कल्पनौ दुस्कर है.
हम धीरे से आवाज दिहेन– काकी- – –
अंदर से कांपत भई आवाज बाहर आई, खांसी के धौंसा के साथ– कउन है?
— हम हन, काकी. अर्जुन- – -.
हमार दिल धड़कि उठा . हमरे सामने मूर्तिमान दरिद्रता खड़ी रहै– फटे-पुरान कपड़ा, चेहरा पर असंख्य झुर्री– मानौ सरीर के हर अंग पर रोग कब्जा कै लिहिन होय . लछिमी काकी केरा अइस हाल होइगा ?
वा पहिले केरी सम्पन्नता कहूँ देखाय नाय परत है. घर केरी खस्ता हालत दूरि से आपन परिचय दै रही रहै.
— अर्जुन हौ ? रामचन्न दद्दा के लरिका ?
बूढ़ी कोटरन मां धंसी आंखी हमार बारीक पर्यवेक्षण कै रही रहैं.
—हाँ ! काकी .
हमरे मुँह से सब्द जैसे कठिनाई से रस्ता बनाय पाय रहे रहै .
—तुम्हार अइसन हाल काकी ? घर मां सब कहाँ गे ? औ सरद कहाँ है ?
— तुम्हरे काका के साथै , सब बिलाय गा, बचुआ.
काकी धम्म से आँगन मां परे पुरान तखत पर बैठि गईं. बरसा मां भीजि के तखत केरी लकड़ी फूलि आई रहै .
—बड़ा फूला-फला रहै यौ आँगन कबहूँ. आजु खाली हुइगा बचुआ. तुम्हरे काका के आंखि मुंदतै सारा जहान बैरी हुइ गवा. सरद का पुलिस पकरि लै गई …. ऊ .. जेल्ह मां है बचुआ .
काकी आँचर से आँखी पोंछइ लगीं .
— जेल मां ??? काहे ?? का किहिस ऊ….?
— कुछ किहिस होत तौ का गम रहै…. बचुआ.. ? निरपराध हमार लरिका जेल्ह मां बंद है . सूबा मां अइसी सरकार है भइया, जौ दलितन की बहू-बिटियन के साथ कुछ होइ जाय ऊँच-नीच, तौ हजारन केरा मुआवजा बाँटत है. गाँव मां हरिजन टोला मां अब रोज केरा तमासा होइ गवा है. हल्ला मचाय के कोई सवर्ण का फंसाय देव. कोई सुनवाई नाय. तुरतै हरिजन एक्ट लागि जात है. सिकायत करइ वाली का मुआवजा दीन्ह जात है. हमार सरद — बेवा केरी अकेल औलाद रहै— उनकी पइसन केरी हवस केर नेवाला बनिगा . हमार सवर्ण होब गुनाह होइगा बचुआ. हमरे साथ खड़ा होवइया कोई नाय रहै. कोई जांच, कोई फ़रियाद नाय सुनी गई. हमार मासूम लरिका, जौ कोई गाँव केरी मेहरुआ की ओर आँखी उठाय के देखतौ नाय रहै—ऊ… जेल्ह मां सरि रहा है — बलात्कार केरे आरोप मां.
लछिमी काकी आँखिन पर आँचर धरि के रोवै लागीं. हम अवाक खड़े रहि गेन. यहु हमार वहै गाँव रहै– जहाँ केरी बहू-बेटी दुसरे गाँव मां ब्याही होतीं तौ बड़े-बुजुर्ग वै गाँव केरा पानी नांय पियत रहैं, कि लडकियैं तौ गाँव भर की सांझी बिटिया भई. वै गाँव मां अइसा घटै लगा पइसन के लिए? तौ का तालाब केरा पानी गंदी राजनीति केरी लाठी से फटिगा …? यहै संविधान रचा गा रहै, हमरे देस केरे लिए ..?
बूढी काकी केरी हिचकियैं हमरे बेजान कदमन केरा पीछा कै रही रहैं. हम धीरे-धीरे चलत भये गाँव केरा गलियारा पार कियेन. सामने हरिजन टोला रहै. धुत सराब पिए भैंरों काका जमीन पर लुढके पड़े रहैं. पास मां काला कुत्ता बइठा पूंछ हिलाय रहा रहै. दुइ किसोरी सिर पर घड़ा लिए पानी लेय जाय रही रहैं. छप्पर के अंदर से कोई मेहरुआ गन्दी-गन्दी गारी दै रही रहै. गारिन के साथ-साथ वहिके घर से मारापीटी की आवाजौ आय रही रहै. ई मारपीट मां छः सात छोटे बच्चा बिलखि-बिलखि के रोय रहे रहैं. पासै बजबजात, कूड़ा से पटी नाली रहै, वहे नाली मां एक सराबी लुढका पड़ा रहै. वहिके ऊपर माछी भिन-भिन करि रहि रहैं. हम राम सुमिरन का बड़ी मुश्किल से पहिचानेन. वौ हमरे साथ पढ़त रहै, अपरिचय के भाव लिए ऊ पास आवा. सिर के बाल खिचड़ी होइगे रहैं. चेहरा पर आश्चर्य के भाव रहैं.
—अरे! बाबू जी, आप ?
— का बाबू जी, बाबू जी कै रहा है….. अरे! हमहन अरजुन- – .हम हंसिके कहेन .
—आव, घरै चलौ.
ऊ सकुचात भवा बढ़ा. चारपाई पर बैठत-बैठत हम देखेन ऊका घर पक्का बनिगा रहै. बाहर हैंडपंपौ लगा रहै.
—और सुनाव का हाल है ?
—हाल देखि तौ रहे हौ, भैया. नाली मां पड़ा है . यहु मुरारी है . भैंरों कक्का केरा लरिका . पीके नाली मां परा है हरामी. गाँव के पंडित टोला के लरिका पर अपनी बिटिया से मुकदमा कराय दिहिस….. बलत्कार कर. मुआवजा मिला है. हैलीकाप्टर से पुलिस के बड़े साहब आये रहैं. दै गे हैं. बस! दारू मुरगा उड़ि रहा है दूनौ बखत…..
—का कहत हौ …? झूठै…?
—अरे भइया!!!!!! पइसे के लिए का-का नाय होत है हियां. महिमां तौ खाली रिपोट लिखवावै की है. एस० ओ० हरिजन है. आधा-आधा पइसा बटिगा ….पब्लिक पुलिस केर पुरान रिलेसन.
राम सुमिरन केरी आवाज दुःख मां डूबी रहै.
—तौ तुम इनका समझावत काहे नांय ? तुम तौ पढ़े-लिखे हौ…
—हमरे कहै से कोई काहे सुनै और मानै ..? हम मेहनत करइक कहित है… जब हराम केरा मिलि रहा है, तौ मेहनत को करी. एक-एक मेहरुआ केरे आठ- आठ , नौ-नौ लरिका हैं, एतनी योजना चलि रही हैं, आबादी बढाए जाव बस!
हम गाँव से निकरेन तौ मन बहुत दुखी रहै. का होइगा है हमरे प्यारे गाँव का…? पहिले कइस भाईचारा रहै …? अदब , लिहाज, शर्मोहया सब नष्ट होइगा. घर पंहुचेन तौ लड़िका-बच्चा घेरि लिहिन.—
—पापा! पापा! गाँव से हमरे लिए का लाएव?
का बताइत, का लइके आयेहन. मन बहुत दुखी रहै. सोचेन टी० वी० देखी. टी० वी० खोलेन तौ आगी केरी लपटन मां धधकत एक घर देखाई पड़ा. कुछ गुंडा कूदि-कूदि के आगी लगाय रहे रहै. नेपथ्य से उदघोषक केरी आवाज आय रही रहै—– “जी हाँ! यह वही घर है…. जहाँ पं० जवाहर लाल नेहरू रहा करते थे……. जब वे पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष थे. आज वर्त्तमान अध्यक्ष के बयान से क्रुद्ध होकर सत्ताधारी दल के समर्थकों ने इसे फूँक दिया है. अध्यक्ष को हरिजन एक्ट के तहत गिरफ्तार कर जेल में ठूंस दिया गया है. विरोध प्रदर्शन जारी है….”
हम टी० वी० बंद कै दियेन. सामाजिक परिवर्तन, न्याय, और समानता केरे नाम पर नई-नई पार्टी खड़ी भई हैं. हम सोचि रहे रहन इनका लोकतंत्र केरे कौने अध्याय मां पढ़ावा जाई ..??

# डॉ० ज्ञानवती दीक्षित
प्राचार्या
आर्य कन्या  इन्टर कालेज,सीतापुर