पढीस जी स्वय्ं कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे।अपने ही जाति बिरादरी वालो पर व्यंग्य करना आसान नही रहा होगा।न निराला के लिए न पढीस जी के लिए-निराला जिस प्रकार –कान्यकुब्ज कुलांगार- कहते हैं और जातीय वर्जनाओ को तोडते हुए आगे बढते हैं उसी प्रकार पढीस जी अवधी समाज को जगाने का प्रयास करते है।लेकिन पढीस जी अनपढ ग्रामीणो के बीच रहकर उनकी भाषा बोली मे उनकी आलोचना करते हैं जो उस समय मे निश्चित ही एक बडी बात रही होगी।-
मरजाद पूरि बीसउ बिसुआ
हम कनउजिया बांभन आहिन।
दुलहिनी तीनि लरिका त्यारह,
हम कनउजिया बांभन आहिन।
दुलहिनी तीनि लरिका त्यारह,
सब भिच्छा भवन ते पेटु भरइ
घर मा मूसा डंडइ प्यालइ,
हम कनउजिया बांभन आहिन।
बिटिया बइठि बत्तिस की,
हम कनउजिया बांभन आहिन।
बिटिया बइठि बत्तिस की,
पोती बर्स अठारह की झलकी
मरजादि क झंडा झूलि रहा,
हम कनउजिया बांभन आहिन।।
हम कनउजिया बांभन आहिन।।