भूमिका के लिए :
अवधी नवगीत का नया सन्दर्भ: प्रदीप शुक्ल
अवध की माटी बहुत उर्वर है।अवधी वह
प्राचीन जनभाषा है जिसने हिन्दी को दोहा,कुंडलिया जैसे छन्द ही नही वरन हिन्दी को
सबसे पहले कथाकाव्य भी प्रदान किया।आल्हखंड,गोरखबानी,चन्दायन,रामचरित मानस और
पद्मावत जैसे अनेक प्रबन्धकाव्य अवधी की उर्वर रचनाशीलता से निकल कर वर्तमान
हिन्दी भाषा के लिए महत्वपूर्ण दस्तावेज
बने।जगनिक,मुल्लादाऊद,गोरखनाथ,कबीर,रबिदास,जायसी,तुलसीदास जैसे कवियों की अवधी
कविताओं ने सदियो की यात्रा की है।सैकडो वर्षो की अविराम यात्रा के बावजूद अवधी की
रचनात्मकता और सामासिक सामाजिकता मे कोई कमी नही आयी है।
अवधी
गंगा जमुनी संस्कृति की भाषा तो है ही।आधुनिक अवधी कविता का युग बीसवी सदी के आरंभ से ही माना जाये
तो बलभद्र प्रसाद दीक्षित पढीस,वंशीधर शुक्ल, रमई काका, विश्वनाथ पाठक, गुरुभक्त सिंह
मृगेश,त्रिलोचन शास्त्री जैसे कवियो ने सही अर्थ मे अवधी को स्थापित किया।स्वतंत्रता
संग्राम के बीच छीजती किसान मज्दूर की अस्मिता का बोध इन कवियो की कविताओ मे
प्रमुख रूप से देखने को मिलता है।अवधी का ज्यादातर साहित्य मौखिक ही रह गया।जो
प्रकाशित हो पाया वो बहुत कम है।एक
बार 1985 मे
चतुर्भुज शर्मा जैसे किसान कवि से बातचीत का मौका मिला तो उन्होने बताया कि उनका
समग्र साहित्य उन्हे कंठाग्र है।उसे कहीं लिखा नही गया। उन्हे
अपना महाकाव्य-नादिरा,सीताशोध,और अनेक लंबी कविताएं याद थीं। मेरे लिए यह चकित होने की बात थी कि एक
किसान कवि को अपना
समग्र साहित्य उन्हे स्मरण भर था।उन्होने कागज पर नही लिखा था।उन्होने अपने परिचय
मे ये पंक्तियां सुनाईं--
कोरो गवाँर पढो नलिखो,कछु साहित की चतुराई न
जानौं।
कूर कुसंग सनी मति है,सतसंगति की गति भाई न
जानौं।
काँट करीलन मे उरझो परो,आमन की अमराई न जानौं।
गावत हौं रघुनन्दन के गुन,गूढ बिसय कबिताई न जानौं॥
बहरहाल ये तो अवधी
की महान जनवादी कृषि संस्कृति से जुडी चेतना की बात है।अवधी मे लगातार कोई पत्रिका
आदि नही निकल पायी।भाई सुशील सिद्धार्थ ने 1989 मे ‘बिरवा’ का संपादन शुरू किया
था।उसके भी सात अंक ही निकल पाये।बाद मे राम बहादुर मिश्र जी ने ‘अवधज्योति’ का
संपादन शुरू किया।अभावग्रस्त जनो किसानो की भाषा रही अवधी जिसे कोई सरकारी या
गैरसरकारी संरक्षण नही मिल सका।लेकिन आकाशवाणी केन्द्र लखनऊ से 1940 के आसपास पढीस
जी ने अवधी के कार्यक्रमो की शुरुआत की थी वह किसानो और मजदूरो की रचनात्मकता को
रेखांकित करने का कार्य अवश्य करते रहे।बाद मे रमई काका जी ने रेडियो जैसे
बहुव्यापी श्रव्य माध्यम से अवध के किसानो और अवधी भाषा की बडी सेवा की।अवधी भाषा
मे लगातार नाटक और किसानो के कार्यक्रम अवश्य प्रारंभ हुए।बाद मे गुरुवर
प्रो.हरिकृष्ण अवस्थी जैसे कुछ प्राध्यापको के प्रयत्नो से अवधी को लखनऊ ,साकेत और
आसपास के विश्वविद्यालयो मे पठन पाठन के लिए भी चुना गया।इस अवधी साहित्य के पठन
पाठन की परंपरा को लखनऊ विश्वविद्यालय मे प्रो.सूर्य प्रसाद दीक्षित जी ने नई ऊचाई
प्रदान की।
आज इक्कीसवी सदी मे
नई तकनीकि के दौर मे धरती पर जहां कही भी कुछ उल्लेखनीय या नया हो रहा है वह सबके
सामने आ रहा है।डा.प्रदीप शुक्ल –के बहाने अवधी की नई रचनात्मक ऊर्जा और नये अवधी
जीवन को व्याख्यायित करने का अवसर मिल रहा है यह मेरा सौभाग्य है।शुक्ल जी का अवधी
नवगीत संग्रह-‘यहै बतकही है’ समकालीन अवधी जीवन की विसंगतियो का दस्तावेज है जिसमे
उनके 28 नवगीत संग्रहीत हैं।अवधी मे नवगीत लिखने की परंपरा बहुत पुरानी नही है
वस्तुत: हिन्दी के नवगीतकारो ने ही अवधी मे भी नवगीतो का सृजन किया
है।डा.रामबहादुर मिश्र ने वर्ष-2007 में ‘अवधी त्रिधारा’ का संपादन किया था। अवधी
की नवगीत परंपरा को समझने के लिए उसे सन्दर्भ के रूप मे देखा जा सकता है।नईसदी के
आरंभिक काल से ही अवधी नवगीत/गजल और नए दोहे की धारा विकसित होती
है।डा.श्यामसुन्दर मिश्र मधुप जी ने अपनी पुस्तक ‘अवधी साहित्य का इतिहास’ मे अवधी
नवगीत को हिन्दी नवगीत परंपरा का अनुगामी माना है।यह सच भी है।
डा.प्रदीप शुक्ल जी
के पास अवधी भाषा की जीवनी शक्ति है नवगीत की रचना प्रक्रिया मे वे पहले से ही आगे
बढ चुके हैं।कवि के पास उन्नाव और लखनऊ जनपद मे बोली जाने वाली अवधी का व्यापक
संस्कार है।स्वाभाविक है कि ‘रमई काका’ और ‘घूरू किसान’ जैसे अवधी के जनकवियो की
कविताओ का भी रचनात्मक प्रभाव कवि के मन पर पडा हो।बैसवाडी अवधी का प्रभाव उनकी
भाषा पर साफ दिखाई देता है।जैसा कि प्रदीप जी स्वीकार करते हैं कि 2013 मे फेसबुक
पर ही उन्होने अवधी मे नवगीत लिखना शुरू किया जो एक अच्छी आदत के रूप मे विकसित
होता गया।यह हो सकता है कि प्रदीप जी ने अवधी साहित्य का गहन अनुशीलन न किया हो
लेकिन अवध के आदमी को ‘रामचरितमानस’ का संस्कार तो मिल ही जाता है।कवि ने अवध का
व्यापक जीवन और जीवनानुभवो को पढा है।किंग जार्ज मेडिकल कालेज लखनऊ से
एम.बी.बी.एस.और बाल रोग में विशेषज्ञता अर्जित करने के साथ ही प्रदीप जी का कवि मन
जीवन की विसंगतियो को चुराने मे भी कामियाब हुआ।अब भी वो बच्चो की बीमारिया दूर
करते करते उनके परिवेष मे व्याप्त विसंगतियो को अपनी मातृभाषा अवधी मे अभिव्यक्त
करने का बडा कार्य कर रहे हैं।असली रचनाकार वही होता है जो अपनी मातृभाषा मे अपने
जन-जीवन के लिए विसंगतियो से निपटने का रास्ता खोजता है।प्रदीप जी के नवगीतो मे यह
अभिप्रेरणा साफ तौर पर देखी जा सकती है।
कवि का छन्द सधा हुआ
है।भाषा तो ऐसी कि प्रवाह अपने आप ही पाठक को बहा ले जाए।मैने भी प्रदीप जी को
फेसबुक के ही माद्ध्यम से जाना।सन्योगवश वे अंतर्जाल पर मेरे अवधी समूह ‘चिरैया’के
सहयोगी सदस्य भी बने और मुझे लगातार अपनी सक्रिय भागीदारी से आकर्षित करते
रहे।प्रस्तुत संकलन के पहले नवगीत मे ही प्रदीप जी खेतिहर किसान का शहरी बाबुओ से
संवाद प्रस्तुत करते हैं--
अब तीन पांच हम का जानी
भइया
हम तो खेतिहर किसान।
इन
पंक्तियो से ही साफ हो जाता है कि कवि का लक्ष्य खेतिहर किसान की मार्मिक व्यथा का
चित्रण करना है।किसानो के जीवन को उनकी ही भाषा मे लिखने का कार्य बहुत कम कवियो
ने किया।जो ऐसा करते हैं मुझे वही सच्चे कवि प्रतीत होते हैं।सूखे का एक चित्र
देखिए।गांव का निवासी आम जन अभावो से आज भी उसी तरह हलाकान है-
गलियारे
कै बरुआ तपिगै
भुलि
भुलि पायन का खाय लेति
ठूंठन
माँ चले चले जूता
दुई
महिना माँ मुह बाय देति
गरमी
के मारे हलेकान
बेरवौ
हैं अब ढूंढति छाँही ।
दृष्टव्य
है कि ये छांही खोजै वाले बिरवा का पता प्रदीप जी जैसा कोई अत्यंत संवेदनशील
नवगीतकार ही खोज सकता है।भाषा को समझना उसका प्रयोग करना एक बात है लेकिन उसका
समीचीन ढंग से प्रयोग करने का शऊर(सहूर) अभ्यास और संस्कार से आता है।प्रदीप जी ने
वह शऊर अभ्यास से विकसित किया है।इसी प्रकार एक आधुनिका बहू का चित्र देखिए-
बड़की
भौजी
डारे
घूँघट
नाचि
रहीं जमके
नई
बहुरिया पैंट पहिन
पूरे
आँगन थिरके
खाँसि
खखारति ससुरौ का
वह
ना पहिचाने है
नए
साल मा नई बहुरिया
दावत
ठाने है ।
नए
जमाने के युवक युवतियो के अपने सपने और पुरानी पीढी के संस्कारो का टकराव आम बात
है लेकिन प्रदीप जी जिस तरह से चित्रात्मकता के साथ नवगीत मे उसे गढ लेते हैं वह
काबिले तारीफ है। हमारे यहां किसान परिवारो मे चैत्र से या फिर कहीं कहीं दीपावली
के बाद से नए साल का जश्न मनाया जाता था। परंतु अब नई पीढी की बहू अंग्रेजी ढंग से
जनवरी मे नए साल का जश्न मना रही है।इस नवता को स्वीकार करने और अस्वीकार करने के
बीच जो पीढियो का संघर्ष है वही असली अवधी नवगीत की संवेदना है।तात्पर्य यह कि कवि
ने नवगीत की मूल संवेदना या कहें कि समकालीन कविता को स्वर देना सीख लिया है।
फसल
लहलहा रही है।किसान के लिए इससे अधिक खुशी का पल और क्या होगा।कवि के शब्दो में
गेंहू और सरसो का साहचर्य देखिए।फागुन को किस तरह से लिखा जा सकता है यह प्रदीप जी
से सीखा जा सकता है।कविता मे यह शक्ति केवल किताबे पढने से नही बल्कि जीवन और
प्रकृति को पढने निरखने से अर्जित की जाती है-
गेहूँ
है उम्मीद ते अब तो
खड़ी
फसल मुसकाय
पीली
चूनरि ओढ़े सरसों
देखि
देखि शरमाय
चने
क बूटा घूरि रहा ना
पलकन
का झपकाय रहा
छोडि
रजाई बाहर झाँकौ
फगुनहुटा
नगिच्याय रहा ।
भाई प्रदीप जी के इन
गीतो मे सर्दी गर्मी और बरखा के चित्र तो हैं ही।ग्रामीण जीवन की सच्ची झांकी भी
वे साथ लेकर चलते हैं।भाषा सर्वथा संवाद बनाने की ओर अग्रसर दिखाई देती है।कवि को
छप्पर मोह नही है वरन वह छप्पर के वास्तविक महत्व को समझता है।आजीविका से चिकित्सक
होने के नाते स्वच्छता और कुपोषण की ओर स्वाभाविक रूप से कवि का लगातार ध्यान जाता
रहा है।भारत माता का गुणगान भी कवि के लिए किसान चेतना के रूप मे विकसित होता
है।पन्द्रह अगस्त आवति होई शीर्षक नवगीत मे व्यंग्य का एक उदाहरण देखिए-
भारत
माता
की
जय बोलिहैं
औ
गाँधी का गुणगान करैं
पर
आपस मा लडवावै का उई
हमरे
तुम्हरे कान भरैं
गाँधी
कै बोकरी
नोचि
नोचि
कउनो
नेता खावति होई।
व्यंग्य
और व्यंजना कविता की सबसे बडी शक्ति मानी गयी है।अवधी भाषा मे व्यंजना की अपार
संभावनाएं हैं।यहां कवि ने स्वार्थी नेताओ के आचरण मे दिखते गान्धी और गान्धीवाद
की सामाजिक दशा पर व्यंग्य किया है।गान्धी
की बकरी अर्थात अहिंसा का प्रतीक जिसे हिंसा द्वारा स्वार्थपूर्ण ढंग से मार कर खा
लिया जाता है नेताओ के माध्यम से यह अनैतिक उपभोगवाद की आन्धी अब गांवो तक पहुंच
गयी है।कटूक्तियो मे हमारे अवध के गांवो की रचनात्मक चेतना का कोई मुकाबला नही कर
सकता।इसी लिए त्रिलोचन जी कहते थे-‘अवध के गांवो को मै विश्वविद्यालय मानता
हूं।’सचमुच हमारे गांवो के जीवन मे सच्चा
संघर्ष, जीवन्त –भाषा ,व्यावहारिकता और समस्याओ के समाधान का अनोका तरीका होता है।
महिना
मा तुम चारि बार
चाहे
बिदेस घूमौ भईया
रामदीन
का दालि खवावौ तौ मानी
घर के
भीतर तो
सब
के जगमगु है भईया
लालटेन
बाहेर लटकाओ तौ मानी.।
महंगी
हुई दाल का भाव रामदीन जैसे पात्र के लिए क्या होता है यह कवि को मालूम है।लालटेन
को जनहित मे बाहर लटकाये जाने की प्रेरणा भी वह दे रहा है।प्रदीप जी के पास ऐसे
अनेक मार्मिक गीत हैं।ये प्रयोग जितनी नवता से लैस हैं उतने ही मार्मिक और
प्रगतिशील सोच के संवाहक भी है।संकलन का शीर्षक गीत ‘यहै बतकही है’का अंश देखिए-
लउटे
हैं बिदेस ते कक्का
दुई
दिन हिंयौ
रहे
पंचायत
मा संविधान पर
भाषण
खूब बहे
घर
का रब्बा हाँकौ ढंग ते
ढीली
पगही है।
ये
जो प्रदीप जी हमारे समकाल को किसानो के छप्पर के नीचे की बतकही के रूप मे प्रस्तुत
करते हैं।वह समय के कक्का जी यानी शासको की आलोचना का स्वर आम जन की भावनाओ का
प्रतीक है।घर का रब्बा (छोटी लढी)अर्थात बैलगाडी को ढंग से हांकने की बात ही सबके
लिए हितकारी है।विदेश यात्राओ और आभासी दुनिया के आभासी विकास से कुछ होने वाला
नही है।घर के शासन की लगाम ढीली हो चुकी है उसे नियंत्रित कीजिए।इसी गीत का मुखडा
देखिए-
बिना
दूध कै चाय भोरउखे
रोजु
बनि रही है
घर
मा याकै गाय बची है
वहौ
मरकही है।
हमारे
गोपालक किसान के जीवन की विसंगति देखिए कि उसने बिना दूध की चाय पीने की आदत डाल
ली है।जो ले दे के एक गाय बची है वह भी दुधारू नही है बल्कि मरकही है।किसान
उस दूध न देने वाली गाय को भी अपने पौरुष
से जिला रहा है।सच तो यह है कि ऐसे बेहतरीन नवगीतो का सृजन आधुनिक अवधी कविता के
लिए एक महत्वपूर्ण और गौरवान्वित करने वाली बात है।प्रदीप जी की अवधी आधुनिक आवधी
है जिसमे आवश्यकतानुसार आधुनिक तकनीकि के शब्दो के साथ ही पारंपरिक अवधी के लुप्त
होने वाले शब्दो का भी अनायास ही समीचीन उपयोग किया गया है।अवधी के नए कवि का अवधी
की साहित्यिक बिरादरी मे स्वागत करते हुए मुझे हर्ष का अनुभव हो रहा है।आखिर मा
यहै कहा चहित है कि-‘भैया तुमरे नीतिन अवधी क्यार पूरा खेतु खाली परा है,संवेदना
के धान बोये रहौ यही तना’।
हार्दिक
शुभकामनाओ सहित ।
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भारतेन्दु मिश्र
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दिलशाद
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