बुधवार, 31 अक्तूबर 2018


समीक्षा
भारतेंदु के पढीस
# डॉ.गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर
        
   पढीस जी को जब जब पढ़ा विद्यार्थियों  और विश्वविद्यालयी शोधकारों की टीकाओं में आयी पंक्तियों में पढ़ा|इसलिए कोई  सम्यक और सम्पूर्ण छवि मेरे मानस पटल पर अंकित न हो पायी लेकिन भारतेंदु के पढीस ने किसानी पीड़ा से गहरे जोड़ा भी और उनकी छवि को अंकित भी किया|
अभी दिल्ली जाना हुआ तो अग्रज भारतेंदु मिश्र जी की साहित्य अकादमी द्वारा भारतीय साहित्य के निर्माता श्रंखला के अंतर्गत प्रकाशित ‘बलभद्र प्रसाद दीक्षित पढीस ’ शीर्षक पुस्तक भेंट में मिली| उसे  किस्तों में पढ़ा|केवल १४४ पृष्ठों में पूरे पढीस जी को उतार लेने की कला पर मुग्ध हूँ|भारतेंदु जी में आलोचनात्मक मेधा के सृजन के लिए केवल यही पुस्तक पर्याप्त है|
आरंभ में कवि  का जीवन परिचय उसके बाद उनके कवि  रूप और कथाशिल्पी का परिचय कराते हुए लेखक ने बराबर सजगता बनाये रखी है कि ये रूप परस्पर टकराएँ नहीं|पढीस पर भले छायावादी प्रभाव यहाँ स्वीकारा गया है लेकिन उनके अविकल स्वर को प्रगतिवादी ही माना गया है|इस सन्दर्भ  में लेखक की यह टिप्पणी कि –‘जब एक ओर स्वतंत्रता संग्राम के सहभागी बुद्धिजीवियों की देश भक्ति पार्क कविताओं का दौर चल रहा था और दूसरी ओर छायावादी कविता की श्रंगारिक और नितांत वैयक्तिक प्रणयानुभूति की कवितायेँ लिखी जा रही थीं,उस दौर में पढीस जी अपने गाँव के मजदूरों किसानों के जीवन की आख्यान्धर्मी कवितायेँ लिख रहे थे|’ -उन्हें एक समाजचेता प्रगतिधार्मी कवि  सिद्ध करती हैं|
समाज में स्त्री की स्थिति से भी पढीस बेचैन रहे|उन्हें किसान और किसानी से कम चिंता स्त्री की नहीं रही|यह उनके चिंतन का  ही नहीं उनकी संवेदना का भी विषय रही|इसीलिए किसानी जीवन के अभावों के मध्य किसान की बेटी का जीवंत उभार उनका अभीष्ट बन जाता है-
फूले कासन ते ख्यालायि /घुन्घुवार बार मुहं चूमयि
बछिया बछवा दुलारावयि /सब खिलि खिलि खुलि खुलि ख्यालयि
बारू के ढूहा ऊपर परभातु अइसि कस फूली
पसु पंछी मोहे मोहे जंगल माँ मंगलु गावयि
बरसायि सतौ गुनु चितवइ  कंगला किसान की बिटिया|
पढीस जी का कविता से कहानी में प्रस्थान केवल विधागत नहीं |यह प्रस्थान भाषा से भी जुडा है|  वे अवधी से खडी बोली में जाते हैं और केवल आते ही नहीं पहचान भी बनाते हैं|इनके इस रूप के बारे में लेखक अमृतलाल नागर और मुंशी प्रेमचंद्र के सुपुत्र अमृत राय की टिप्पणियाँ भी उद्धृत करता है| ‘वह तस्बीरनिगारी में प्रेमचंद से आगे थे|’-नागर, और ‘कुछ बातों में प्रेमचंद से बड़े थे इनके गद्य में जो प्रभाव है और गहरी करुणा  है वह अन्यत्र दुर्लभ है|’-अमृत राय|
लेखक के इस कथन से भी कि- ‘ख़ास तौर से चरित्र चित्रण के मामले में अपने समय में अप्रतिम प्रतिभा के धनी थे|’सहमत  होने में शायद ही किसी को संकोच हो|क्योकि ये उस समय कहानियाँ लिख रहे थे जब कहानियों का प्रमुख स्वर ही चरित्र चित्रण था| सन 1938 में प्रकाशित कहानी संग्रह ‘ला मजहब ’ उन्हें एक श्रेष्ठ कथाकार के रूप में प्रतिष्ठापित करने के लिए पर्याप्त है|इस संग्रह की शीर्ष कहानी के साथ साथ  सन्निपात,पांखी,ढाई अक्षर,चिंतादास की गोली, व साथी आदि कहानियों का विस्तार से विश्लेषण करते हुए लेखक ने गद्यकार के उस प्रखर रूप को उद्घाटित किया है,जो  कवि रूप के नीचे दबा पडा था|भारतेंदु मिश्र पढीस के दलित विमर्श और दबे कुचले वर्ग के प्रति उनकी गहन संवेदना के साथ साथ स्त्री पुरुष के विषम अनुपात के लिए जताई चिंता का उल्लेख करते हुए उन्हें वह मुकाम दिलाना चाहते हैं जिस पर तथाकाथित प्रगतिशील काबिज हैं और पढीस जैसे असली हक़ दार अब तक पदच्युत  हैं-‘कुलीनता की जितानी आलोचना पढीस जी ने अपने  साहित्य में की है वैसी समतावादी दृष्टि बाद के बड़े लेखकों में भी नहीं मिलती है |’
‘चिंतादास की गोली ’कहानी के विश्लेषण में ही इस आलोचना पुस्तक में लेखक ने आगे लिखा है-‘ऐसी संवेदना में उस समय शायद ही कोई  कहानी लिखी गयी हो|प्रसंगवश इस कहानी में भारत की संभवत: पहली जनगणना में दर्शाए गए स्त्री पुरुष अनुपात  का भी उल्लेख है तब भी पुरुषों की तुलना से ढाई करोड़ महिलाएं कम थीं| ’
पढीस जी का दलित चिंतन केवल वैचारिक नहीं था|उन्होंने हरिजनों के बच्चों को बुलाकर घर पढ़ाना शुरू किया था वह भी उस समय जब ब्राह्मणों की कुलीनता का सूर्य समाज के ठीक सर पर चमक रहा था|वे अपनी प्रगतिशीलता कलम की नोक से नहीं हल की नोक से सिद्ध करने में विश्वास रखते थे|इसीलिए उन्हें ब्राहमणों के लिए निषिद्ध हल की मुठिया भी गही और किसानी के दर्द को किसी गरीब किसान में नहीं सीधे खेत में उतर कर करीब से देखा|
पढीस जी सहानुभूति के नहीं सघन संवेदना वाली अनुभूति के साहित्यकार हैं इसकी पुष्टि के लिए लेखक ने पुस्तकालयों में नहीं पढीस के गाँव और  खेत खलिहान में भी समय  गुजारा है | ऐसे श्रमसाध्य लेखक की सार्थकता इस पुस्तक के पढ़े जाने में ही है|पढीस के बारे में लेखक का मंतव्य है कि ‘उन्होंने जमीदार को न तो गाँव के अन्दर माना,और न परिवार के अंदर अपने को जमीदार बनाया|उनका सहज बोध इतना मानवतावादी था कि लोग उनकी थाह नहीं ले सकते थे|’ इतना  ही नहीं लेखक ने पढीस जी को प्रेमचंद और निराला के समकक्ष प्रतिष्ठापित किया है|-‘हिन्दी में तीन क्रांतिकारी लेखक थे –प्रेमचंद निराला पढीस|’ इससे स्पष्ट है कि आलोचक जहां पढीस जी के गद्य कहानी संसार को प्रेमचंद के विपुल रचना संसार के बराबर मानता है वहीं उनके काव्य जगत को निराला के समतुल्य|मुझे लगता है यहाँ आलोचक की दृष्टि व्यास पर नहीं समास पर है| भाषा भेद को भुलाकर ही हमारी आलोचना दृष्टि समरस हो सकती है|यह समरसता ही इस पुस्तक को सम्यक आलोचना दृष्टि से समृद्ध करती है|
कुछ चुनी हुई कवितायेँ भी यहाँ संकलित हैं|-अभिलास,ककनि जो हमहूँ पढि पाइति में -अशिक्षा ,पपीहा बोल जा रे –साजन आवें तब तुई आये /आजु बोल वुइ पार, बिटोनी में- बप्पा के तप की वेदी,अम्मा की दिया चिरैया ,घसियारिन में , ‘दुलहा के मुड़े पर गठरी /वह पाछे पाछे चली जाय /सुख झुलना झूलति |’ चेतौनी में-‘बर्न बने चारि मुलउ/जाति दद्दू याकयि आय| ’ किहानी में –‘सब द्याखयि कीन तमासा/वुइ कौधा हुइगें/बिजुली हुइगे| ’ और सत खंडे वाली में-  तुम्हरे पियारु के आसूं/हमका कस ना पघिलइहैं |’ कवि रचना संसार के संवेदात्मक घनत्व का अंदाज लगाना कठिन नहीं है|इन रचनाओं की अंतर्वस्तु अपने सामाजिक सरोकारों से लैस है और शैल्पिक तथा भाषिक संरचना काव्यशास्त्रीय सरोकारों से| इस पुस्तक में पढीस  जी के रेखाचित्र और निबंधों पर भी चर्चा की गयी है|
इनके मोवैज्ञानिक निबंध समाज की नाड़ी को किसी कुशल वैद्य की तरह पकड़ते ही नहीं रोग का कारण और निदान भी देते हैं|-‘बच्चे का स्वार्थ जब अतृप्त रह जाता है तो वह शैतानी करता है|हम इसे उसकी दुष्टता समझते हैं|’-पढीस
हम इसे केवल पारिवारिक शिक्षा तक सीमित मान ले तो यह हमारी नादानी होगी|यह तो शिक्षकों के प्रशिक्षण का ध्येय वाक्य बनाना चाहिए|इनकी इन्ही विशेषताओं के कारण डॉ.रामविलास शर्मा जैसे आलोचना की प्रथम पंक्ति के केंद्र में बैठकर आलोचक ने इन्हें हिन्दी के ‘वर्ग चेतस’ कवि  कहा है| कवि  और लेखक भारतेंदु मिश्र के पढीस में  हिन्दी की इस वर्गचेतना को स्पष्टत: पढ़ा जा सकता है|
पढीस जी पर लिखी गयी यह पुस्तक उनके  व्यक्तित्व और कृतित्व पर केवल बाह्य प्रकाश ही नहीं डालती अपितु उनके प्रतिपृष्ठ को आलोक में रखकर दिखाने का उपक्रम करती है|केवल 50/रुपये मूल्य की यह आलोचना पुस्तक केवल पुस्तकालयों की शोभा बनकर न रह जाए| यह चिंता विचारणीय ही नहीं आचरणीय  भी है|
बलभद्र प्रसाद दीक्षित पढीस जैसे ग्राम्य चेतना के कवि और लेखक पर लिखी इस पुस्तक के विषय में लिखते हुए इस बात का विशेष संतोष है कि इसे वह किसान भी खरीद सकता है जिसके लिए वे आजीवन चिंतित रहे|
लेखक-डॉ.गंगाप्रसाद शर्मा,गुशेखर ,प्रधानाचार्य -केन्द्रीय विद्यालय,भावनगर,गुजरात -फोन-8000691717


शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2018


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अवधी कहानी--
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प्रस्तुति -भारतेंदु मिश्र 



शनिवार, 22 सितंबर 2018


घुमंतू (बाल किहानी) 

                                       अशोक अज्ञानी 

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संपर्क:
प्रधानाचार्य
राजकीय इंटर कालेज ,मलीहाबाद,लखनऊ उत्तर प्रदेश 
09454082181 
     

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शनिवार, 28 जुलाई 2018


वरिष्ठ कथाकार शिवमूर्ति की (अवधी कहानी)-

तिरिया चरित्तर-

शिवमूर्ति

एक किसान का अपनी मेहरारू के चाल चलन पर सक होइगा |जब वहु अपनी मेहरारू ते येहिके बारे 

म बात किहिस तब वा कहिस –

‘तुम्हार कसम ! जो कोऊ दुसरे का सपनेउ मा सोचा होय | ’

किसान कहिस ‘हमका तो बिसुवास नहीं होत |तुम्हार तिरिया चरित्तर हम जानित है|’

मेहरारू कहेसि ‘तिरिया चरित्तर करब तौ तुम्हार होस गम हुइ जाये,गोडन पर फाटि परिहौ,पनाह 

मांगि लेहौ | गोडन पर गिरिकै माफी न मांगौ तो हम चमारिन नहीं | ’ किसनवा खौहाय के कहेसि 

–‘का कहेव,!गोडन पर गिरिकै माफी मांगब औ वहौ तुम्हारे गोडन पर? ’

‘हाँ हाँ ,हमारे गोडन पर गिरिकै गोड पकरिके माफी मंगिहौ |नकुना रगरिहौ |’

‘का बक्कत हौ? ’ मर्दवा बोला |

‘अच्छा अजमाय के देखि लियो ’-मेहरारू बोली|

‘औ जो माफी न माँगा तो ?’

मेहरारू कहेसि –‘जतने दिन माफी न मंगिहौ वतने दिन तुम हमारे चारि लट मारेव |हमार झोंटा 

पकरि के गाँव के बीचोबीच लै चलेव औ सबके आगे पीठी पर चारि लात मारिके लौटेव |’


किसान कहेसि ‘ठीक है|मुला अपनी बात ते पाछे न पछरेव| बात पक्की मानत हौं? ’

‘हाँ हाँ, बिलकुल पक्की | मुला याक सर्त है,यह बात हमरे औ तुम्हरे बीचा म रहय क चही ,तीसर 

कोऊ न जाने पावै |हमरे तुम्हरे से जे कोऊ तिसरे मनई का बात बताये वाहिका जुरमाना देय क परे |’
किसनवा हामी भरि लिहिस |मेहरारू कहेसि –‘चलो आज से सुरू हुइ जाव |’

किसान मेहरारू क झोंटा पकरि के घिर्रावत बीचोबीच गाँव लइगा औ मेहरारू के चुतरे पर चारि पांच 

लात मरेसि |मेहरारू मार खात जाय औ चिल्लात जाय|साथेम अपने पति का गरियावति जाय-‘यहु 

नासिकाटा मारे डारति है |इहिके हत्यारी सवार है,पगलाय गवा है |’

गाँव भर खड़ा तमासा देखत रहा| सब मनई हक्का बक्का | आखिर काहे मारे डारत है अपनी 

मेहरारू का | कुछ जने आगे बढे औ पूछे लाग –‘कौन कसूर कइ डारिस यह बिचारी, जौनु झोंटा पकरे मारे डारत हौ ?’

किसान कहेसि-‘तुम सबसे का मतलब |हमार मेहरारू आय ,मारी चहै गरियाई खाना, कपड़ा -लत्ता 

हमहीं देइति है| जाव भागत जाव हिंया से ,आपनि  आपनि राह द्याखो | ’ सगरा गाँव चुपाय गवा |

अब रोज रोज यहु नाटक गाँव के बीचोबीच होया लाग |किसनवा रोजुय झोंटा पकरि के लैजाय औ बीच गाँव मा वहिके चुतरे पर चारि पांच लात लगावै तब घर का लौटे | होत करत कइयो दिन बीत गए |याक दिन किसान कि मेहरारू याक बड़ी भारी मछरी लइके खेते म गाड़ि आयी ,जौने खेते म किसान का सबेरे हर चलावे क रहा| सबेरे जब किसान हर बैल लइके खेत जोते लाग तौ थोरी देर बाद वाहिका हर हुवां पहुंचा जहां मछरी गाड़ी रही |हर का फार लगतै मछरी उपराय आयी |मछरी देखतै वाहिका बड़ा अचम्भा भवा,मारे खुसी के मेहरारू क गोहरायेसि जउन खेत मा खर पतवार बीनत रही|मेहरारू अपने मर्द कि आवाज सुनिके वहिके लगे आयी तो किसनऊ वाहिका मछरी देखे के कहिन-‘देख रे खेते म कतनी बड़ी मछरी बोयी रही |चल इहिका लैके घर चल,औ जल्दी से करहिया मा चढ़ाय के तयार कर |आज मछरी भात खावा जाए|बहुत दिनन बादि अस मौक़ा मिला है|’

मेहरारू मछरी लइकै घर चली गय |यहर किसान खेत जोत मयाय के घर पहुंचा |बैलन का सानी 

पानी कइके नांदी पर लगाइस औ नहाय धोय के रसोइयाँ म पहुंचि गवा | मेहरारू से कहिस –‘लाव 

जल्दी से मछरी भात ,बड़ी जोर भूख लागि है|’

मेहरारू थरिया मा नमक भात लाय के धइ दिहिस औ रोसइयां के भीतर चली गै| मछरी कि जगह 

नमक देखि के वहु भड़कि उठा बोला-‘मछरी कहाँ गै?

मेहरारू बोली –‘मछरी तो हम खाय लीन|’

किसनवा पूछेसि -‘का सबियों अकेलेन खाय लिहेव ?’

मेहेरुआ बोली-‘हाँ,हमका बड़ी नीकि लाग,खातै चली गएन ,सबिहौं खाय गएन,तुमरी खातिर तनिकौ 

नहीं बची |’

किसान एक तो भुखान रहा दुसरे सबेरेन से वहु मनै मन मछरी मछरी सोचत रहा ,औ हिंया यह 

ससुरी अकेलेन भकोसि लिहिस |किसान क गुस्सा सतएं असमान पर पहुंचि गवा| चौके से उठा औ 

बैलन का पीटे वाला पैना (चाबुक) लइके महेरिया का पीटे लाग| महेरिया चिल्लात औ गोहार 

लगावत घर से भागि |गाँव भरि इकट्ठा हुइ गवा| ‘अबै तक तो चारि लातै मारत रहा आज तो मारे पैनन के कचूमर निकारे डारत है|’ लोग बाग़ पूछै लाग –‘आज काहे मारे डारत है |’

किसान मछरी वाला किस्सा बतावै लाग | यही बीच मेहरारू गाँव वालेन से पूछेसि –‘भैया सब जने 

खेती पाती करत हौ,हर जोतत हौ,कबौ खेते म मछरी पायेव ? फिर ई दाढीजार क कसक मिलिगै| 

रोज चारि पांच लात मारिके नहीं अघान तो आज पैना से मारि के जान लेय पर उतारू है| हम 

कबते कहित है कि ई पगलाय गवा है मुला तुम गाँव भर हमार बिसवास नहीं करतू | कौनो दिन यहु हमका मारि डारे तो पूरे गाँव का हत्यारी पाप लागे|’

यहु सुनते किसनवा औरउ जोर से गुस्साय के महेरिया का पीटे लाग|अब तो गाँव वालेन का पक्का 

बिसुवास हुइ गवा कि यहु पगलाय गवा है|कुछु उपाय कीन जाय| सोच बिचार के गाँव भर उनका 

याक पेड़ मा बाँधि दिहिस औ सब लोग कहिन-‘ई ससुरऊ जब ठीक हुइ जांय तब खोला जाये| 

इनका हियैं खाना पानी दियो |हियैं खांय हियैं हगें|’

अब मेहरारू रोज उनका हुवें खाना पानी दै आवै | बंधे बंधे पांच छ दिन बीती गए तो याक दिन जब मेहरारू खाना पानी लइकै गय तो किसनऊ वहिके गोडन पर फाटि परे औ गोड पकरि के माफी मांगै लाग | मेहेरुआ मुस्कियानि किसनऊ से कहिस –‘हारी मानौ, तिरिया चरित्तर देखि लिहेव|’

किसनऊ कहेनि –‘हाँ तिरिया चरित्तर देखिऊ लीन समझिऊ गएन| ’

मेहेरुआ मुसकाय के कहेसि -‘ठीक है|’

मेहेरुआ उनके बंधन खोल दिहिस औ घर का लै गय| दूनौ जने फिर हंसी खुसी रहै लाग|

(अवध ज्योति पत्रिका से )

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संपर्क: विकास खंड-2,गोमती नगर , लखनऊ 

रविवार, 24 जून 2018

अवधी कहानी ---


                                 पियास 
गंगा प्रसाद शर्मा ,गुणशेखर
जन्म :1-11-1962
समसेर नगर,बहादुर गंज जिला सीतापुर
सम्प्रति: प्रधानाचार्य:केवीएस.भावनगर,गुजरात'
चर्चित भाषाविद ,साहित्यकार 

# गुनसेखर
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 "तनी  कोई  पानी पियाइ देतिउ।जू  निकरति हइ।"
छा महिना तेनी टीबी  केरी मरीज़ राम देई केरि  आवाज़ रोजु ट्वाला- मुहल्ला वाले अधिरत्ता सुनति रहइँ और सबेरे तलुक भूलि जाति रहइँ।नेकिल(लेकिन) अबकी मंगर तेनी रोजु घुघुआ ब्वालइ का सुरू किहिसि तउ सनीचर तक टेर लगाए रहा। पासिन दाई घर-घर जाइ का सँदेसु बाँटि आईं कि,"इउ केहू क्यार जिउ लइकइ जाई।बहिनी मोहे का उठाइ लेति तउ नरक ते फुरसति पाइति।"
          वहर पासिन ट्वाला माँ पासिन दाई अउ यहर  ई ज़िंदगी ते मउत नीकि मनती  हइँ रामदेई।जउनु कोई द्याखइ आवति हइ वहेति  कहती  हइँ,"बहिनी  अब हम बचब  ना।गाहे-बगाहे टेमु  निकारि  का देखि लीन  करउ हमका।बिनय  केरि बप्पा  बिचरऊ का-का  करइँ।हमार जिउ डागडर बाबू  मइहाँ धरा हइ।हमका लागति  हइ कि जउने दिन  उनका देखि ल्याब  वहे  दिन परान  निकरि जइहइँ।"
        जो  आवइ वहइ धीरजु बँधावइ लेकिन रामदेई जीवन  केरि आस छोड़ि दिहिनि रहइँ।जबु उनका पता  लाग  कि उनके फेफड़न केरि टीबी  हइ उइ दिन तउ उइ अउरु टूटि  गईं।
          उनकी या इच्छा रहइ कि बिनय का डागडर केरे रूप माँ देखि लेंय।सबते हाथ जोरि-जोरि कहइँ,"तनी  हमरे  डागडर बाबू का देखाइ देतिउ।"याक दिन जब  परसादी केरे आगे हाथ जोरिनि  तउ दुनहू  जनेन  केरी आँखी भरि आईं।डागडर बाबू केरि महतारी -बाप  सालु भितरइ मरिगे तउ सबइ उइ अबोध कइहाँ नासी  कहइ लागि।सबइ ऊका देखि -देखि मुँह बिचकावइँ नेकिल इनका जू  नाई मानिसि।पालि-पोसि  का बड़ा  किहिनि।जेवर,जरिया बेंचि कइ पढ़ाइनि लिखाइनि।                     समउ बदला तउ लरिका क्यार नाउ डागडरी माँ आइगा।
      परसादी ते ज़्यादा रामदेई बिनय खातिर जू देती रहइँ।नान्हे पर जब खेलावइँ तउ यहइ गाववइँ,
"कउनिउ चिरिया न होई बेमार।बेटवा हमार जब डागडर बाबू बनिहइइँ।गोरि-गोरि दुलहिन बइठी घुँघटा पसारि,देखनहरी जब कोठरी माँ जइहइँ।
 बाहेर जबु जाई तउ पउँवा सँभारि,गुइयाँ पउवाँ सँभारि।
बइठी न कबहूँ वा टाँगइ पसारि गुइयाँ टाँगइ पसारि।
मिसरी सी बानी मइहाँ हमका गोहराई, मइहा हउ मोरी कहाँ मइया हमारि।"
          जब बिनय बाबू डागडर बनिगे तउ उनके तिर टेमुइ नइ रहइ कि गाँव आवइँ।छच्छा  महिना बीति जाँय नेकिल उनकी सइतेन न बनइ।यहिते परसादी का कुछु नाइ लेकिन रामदेई कइहाँ बहुतु माखु लागति रहइ।
         राम देई केरि उमिर तीस होई या साल दुइ साल ज़्यादा लेकिन उइ लगती साठि तेनी तनिकउ कम नाई रहइँ।बिनय  केरे कहे ते डॉट क्यार इलाजु चला तउ तनिकु झुरझुरी उनकी द्याँह मा ज़रूर आई।मनसेधऊ बिचारे याक बकरी पालिनि कि उनकी मेहरारू दूधु पी।नेकिल उइका याक दिन भेड़हुना उठाइ लइगा।दुइ याक दिन  रोउना पिटना परा फिरि सबु मामिला ठंढा परि गवा।
         परसादी फिरि याक लागति बकरी कहूँ तेनी अधिया पर हाँकि लाए।भवा का कि वहउ बकरी याक दिन भेड़हा उठाइ लइगा।अबकी परसादी कइहाँ कुछु सुबहा लाग कि ईमा कुछु दालि मइहाँ काला ज़रूर  हइ।"उइ भोरु होतइ मँगरे कोरी केरे  द्वारे पर पहुँचिगे कि," चौधरी तनी देवतन ते पुछतिउ कि हमारि बकरी को लइगा है।"
         देवता बिना खाए पिए कुछु बतावति नाई हइँ।ईकी खातिर मउजूदा परधान तेनी कामे के बदले दुइसइ रुपइया परसादी लइ आए।सवा सउ रुपयक पउवा भरि गोसु औरु पचास रुपयक देसी दारू मँगाई गइ।खाइ पी कइ  मँगरे डकरे तउ धरती हालि गइ। जब देउता आए तउ उइ कबूलिनि कि ऊका ननकऊ कोरी अउरु  लखन बाँभन मारि का खाइ लिहिनि हइँ।
          परसादी कइहाँ देसी दारू याक सर्त पर मिली रहइ कि देवता कबहूँ बहादुर क्यार नाउ न कबुलिहइँ।पंच हामी भरिनि तब जाइ कइहाँ बहादुर गोहूँ केरी डेहरिया तेनी याक बोतल निकासि लाएरहइँ।
            बात या रहइ कि बहादुर पहिलि फूल वाली दारू के बदे बदनाम रहइँ ।लप्पु भरि हाथे माँ लइ कइ जब अगिनि का चढ़ावइँ तउ अगिनि देई छाच्छात परगट होइकइ गरहन कइ लेती रहइँ। पियक्कड़न केरि अँजुरी भरि लार बहि निकरति रहइ।जबसे नवा दरोगा आवा रहइ बहादनर केरे साथइ गाँव केरी अउरिउ भट्ठिनि केरि आगि बुताइ गइ रहइ।नेकिल सौखीनन खातिर बुझानि आगिउ धधकि उठति रहइ। 
         परसादी कइहाँ पुरानि  परधान थान्हे लइकइ पहुँचि गे।पहिले तउ नवा  दरोगावा परसादी केरि बिटिया बहिनि न्योतिसि तब परधान केरी वार नज़र डारिसि ।कुरसी घुमाइ क ब्वाला," अरे अवधेस सिंघ तनी लगदा लावउ।ईका सारेक तनी पिछुवारा स्याँकउ।"परधान तउ भित्तर तक  काँपिगे ।'कहाँ राम क्यार ब्याव औरु कहाँ जुम्मन केरि सगाई।'उइ दरोगा केरी गारी बियाहे केरी गारी मानि कइहाँ भगवान संकर ताईं सब जहुरु पीगे औरु थोरी देरि बादि हिम्मत बाँधि कइहाँ बोले,"साहेब इउ ग़रीबु वइसइ मरा परा हइ अउ आपउ .....?"यहिके बादि उइ चुप्पी साधिगे।बड़ा दरोगा तनिकु पसीजा तउ ब्वाला,"हाँ ,बताओ परधान जी ,कैसे आना हुआ?आप तो ईद के चाँद हो गए हैं।बताइए क्या सेवा करूँ आपकी भी ?"परधान जी समझिगे कि अब इउ हमहुँक सेंकी।उनकी साँस माँ साँस आवइ केरि बात  दूरि वा उलटी चलइ लागि।दरोगा भाँपिगा।घर ते चाय आई।परधानउक कहिसि लेकिन उइ मना कइ दीन्हिनि।दरोगा टाँग पर टाँग धइकइ चाय पीसि।ईके बादि उनते घरपरवार केरि हाल चाल पूछिसि तब जाइ का परधान केरे जू मा जू  लउटा।उलटी साँस सीधी भइ तउ हिम्मत बाँधि कइहाँ बोले, "साहेब ईकी बकरी गाँवइ केरि ननकऊ कोरी बल्द झरेखे औरु लखन बाँभन बल्द रघुनंदन काल्हि राति कइहाँ मारि का खाइगे हैं।  दरोगा गरजा,"तुमका कइसे पता कि वहे इउ कांडु किहिनि हइँ।परधान यार  ई तनकी गांडू गदर बातइ हमते न झारा करउ।अब तउ तुम  परधान तउ हउ नाई जउ तुमार सिक्का चली।ज़्यादा आगि न मूतउ।तनिक सांति धरउ नाइ तउ तुमरउ पिछुवारु कउनेउ दिन ऊँच होइ जाई।अब तुमारि सरकारउ हइ नाहीं कि जौनु चहिहउ ऊपर तेनी करुवाइ लइहउ।" परधानजू फिरि ते अपनि चाल उलटी परति देखिनि तउ तुरतइअढ़ाई टंगी तिपाई परि ते उठिगे अउरु बाहेर निकरिगे। घंटन भरी दुपहरिया माँ अइसी-वइसी घूमति रहे।मउका ताड़ि कइहाँ बहुतु हाथ-पाँव जोरिनि तब जाइका पाँच सउ रुपया औरु याक बोतल पहिल फूल वाली देसी दारू पर रपट लिखि लीनि गइ।
       जब थान्हा-पुलिस सुरू होइगा तउ  रामदेई केरि खाँसी केरि चिंता पाछे परि  गइ ।अब उनके मुँहिते खूनउ गिरइ लाग।डॉट केरि दवा आसा केरे जिम्मे रहइ।वा दवा देइ के पहिले पचास रुपया धराइ लेति रहइ।ईते जब-जब पइसा नाइ भे तब-तब वा दवा लउटाइ लइगइ।परसादी जानति रहँइ कि जब या  घूस दइ कइ भर्ती भइहइ तउ कुछु लेबइ करी।यही तेनी  ई उइकी कोई तेने सिकाइत नाइ  किहिनि।ईते टीबी बिगरति चली गइ।
            परसादी अपने भतीज तिर गे।ऊअब बड़ा डागडरु हुइगा  रहइ।ऊके घर माँ घूसि तउ गे पर बहुरिया बाहेर निकारि दिहिसि।बोली ,"तमीज़ नहीं है।जब देखो मुँह उठा के चले आते हैं।जैसे इनके बाप का कर्ज़ खाया हो।अस्पताल जाओ।सीधे  यहाँ क्यों घुस आते हो?"रामदेई केरी द्याँह मइहाँ पहिलेन ते खूनु नई रहइ जौनु रहा-सहा रहबउ कीन वहउ सूखिगा।
         पररसादिउ कइहाँ लाग कि  कउनउ उनकी छाती मइहाँ बरछी घुसेरि दिहिसि हइ।नेकिल उनके पाँव अस्पताल केरी वारइ बढ़े काहेति भतीज पर उनका     भर् वासा अबहूँ नई टूट रहइ। रास्ते  भर उइ यहइ स्वाँचति गे कि  अपने भतीज कइहाँ उइ कहाँ - कहाँ नई लइगे। बड़े डागडर केरे पाँव पर  कइसे  परे ररहइँ तब ईकी जान बची रहइ। राम देई बिनय  का पढ़ावे के बदे मँजूरी किहिनि रहइँ।जान ते पियारि आपनि हँसुली बेंचि दिहिन रहइँ। 
            अस्पताल पहुँचि तउ गे  पर  बाहेर बइठाइ दीनि गे । परसादी कइहाँ लाग कि  अच्छा हइ जउ उनका भतीजु भाई भतीजु बाद तेनी मुक्त हइ। नेकिल उन का  इउ बिसवासु तब चूर-चूर होइगा जबु भतीजु दोसरे दरवाज़े ते  लंचु करइ चला गा। 
          जाड़े क्यार महिना रहइ।  परसादी अउर राम देई पथरे केरी बेंच पर  बइठे -बइठे सेराइगे । राह द्याखति-द्याखति आँखी पथराइ गईं। नेकिल डागडर बाबू नाई आए तउ नाई आए। बाकी सगरे मरीज़ गारी देति वापस चले गे । पर    तउ परसादी अउर न  ही राम देई कुछु अत्ति-सत्ति बोले। गारी तउ दूरि मुँह ते  उफ तक न  निकारिनि। अस्पतालु बंद होइगा तउ चपरासी इनहुक बाहेर  कइके मेन  गेटु बंद कइ दिहिसि। 
              राम देई गेट से तनकुइ आगे  बढ़ीं कि  हँफनी सुरू  होइ गइ। साथइ खाँसी सुरू हो गइ तउ तारुइ न  टूट। हाथे का सहारा लइके भुइँ मा  बैठि गईं राम  देई। लप्पु भरु खूनु बल्ल  ते  कुरइ गा। जाफ आइ गइ।यू नज़ारा देखि कइ परसादी केरि   अक्किलि गुम्म  कि  का कीन  जाय। ठउरइ नलु   रहइ तउ दौरि कइ लोटिया भरि पानी ढारि लाए। फटाफट छींटा मारिनि । पीठि सोहराइन कि कउनिउ तना होसु  आवइ।होसु न आवा तउ दौरि गे भतीजे तिर बंगला  पर  पहुँचि तउ गे  मुला  हिम्मति न  परइ कि बेल  बजाइ देइँ।काँपति हाथे ते अँगुरी धरिन तउ तनिक  द्यार  होइ गइ।लुंगी  पहिरेे बड़ी -बड़ी आँखी निकारे    डागडर  बिनय  राम बाहेर       नि करे ।अपने चाचा पर फाटि  परे ,"काका  तुमहूँ साइति  साधे रहति   हउ।सबेरे   अउतिउ तउ कउनु आसमानु फाटि  परति ।आजु सीएमओ साहेब  आए रहइँ।अबहें गे हइँ।"
‌      परसादी  अगरस्वाँच माँ परि गे कि कहउ बिचारे 
 का कोई दोसु नई लगावा।घरइ न आइति  तउ पापु  लागति । अपनेभतीज पर अइसइ नाजु  नाई हइ उनका।बाबा  साहेब का आदि  किहिनि   आजु उनहेन केरी  बदउलति  उनका भतीजु डागडरु  हइ। बड़ी हिम्मत   जुटाइ का बोले,"भइया   का तुमरी  काकी  का लइ आई?"बसि  अतनी  बात  पर बिनय  उखरि गे,"काल्हि   लायेउ।आजु अबहें हमरे सारि -ससुर  आइ रहे  हइँ।"
         अब का कर इँ परसादी ?बिनय केरे  आगे हाथ जोरि   के  ठाढ़ि  भे अउरु बोले,"बेटवा  तनी हुवइँ चलि   कइ देखि  लेतिउ।"अब तक परसादिउ केरि हिम्मत उनका साथु छोड़ि दिहिसि  रहइ।परसादी रामदेई तिर पहुँचे  तउ उनके  मुँह ते  यातउ खूनु आवति देखिनि या "तनी  कोई पानी पिआइ दे तिउ।"क्यार  अधफूटा सुर।
            बड़ी द्यार माँ च्वारन तना बिनय आए अउरु पूछिनि,"काकी का तकलीफ़ हइ।" तउ रामदेई बोलीं ,"बेटवा  तकलीफ़ कउनिउ नाई हइ।तुमरेन मइहाँ परान अटके  रहइँ।हम तुमका  डागदर केरे  भ्यास माँ  द्याखा चहिति  रहइ।"
            बिनय बोले  ,"अम्मा  का फिरि घरइ जाई?"
रामदेई बोलीं,"हाँ बेटवा!तनी  आलउ गरे  माँ डारे  आयेउ।ठाकुर-बाँभन  तउ बहुति डागदर द्याखा हइ     नेकिल  अपनी जाति क्यार  बचवा  कउनउ नाहीं  देखे हन।तुम तउ अपनेन  पूत आव।तुमका वहि  भ्यास माँ  द्याखब तब जिउ जुड़ाई।"
        बिनय बोले  ,"माई!हइँ  तउ बहुति डागडर अपनी जाति- बिरादरी केरि लेकिन सारि जाति बदले  घूमति हइँ।खैर!उनते   हमका का मतलबु।अब हम तनिक भेसु बदलिु आई।"
           बिनय बेलउ नाई बजाइन कि दरवाज़ा खुलिगा।तनिक द्यार का होइगइ कि सुनंंदा आसमानुइ खोपड़ी पर धइ लिहिसि रहइ।लेकिन उइ महतारी केरे  मरे  के बादि अगर कोई कइहाँ अम्मा कहिनि या जानिनि तउ उइ रामदेई रहइँ।ईते सुनंदा  केरि क्रोधउ केरि उफनति नदी  पार कइके राम देई तिर  पहुँचिगे रहइँ।
            जब हुवाँ पहँचे तउ का द्याखति  हइँ कि उनके काका 'चाची अम्मा' क्यार सिरु अपनी दहिनी जाँघ पर धरे थपकी देति रहइँ।जबतक  डागडर  बिनय लउटइँ रामदेई क इहाँ याक  जाफ अउरि आइ गइ रहइ।उइ लउटे तउ सफ़ेद कोटु  औरु गरे माँ आला डारे रहइँ।परसादी देखतइ हाँक  दिहिनि ,"जे  बिनय की  अम्मा डागडर साहेब आइगे।"यू   सुनतइ उइ अइसे उठि बइठीं जइसे उनका कोई बेमारी -अजारी कबहूँ रहबइ न करइ।
         देखतइ खन मुँह पर आँचरु डारि  लिहिनि  कि या छूति केरि बेमारी उनके करेजेक  टुकड़ा  कइहाँ न लागि  जाइ।बइठइ क्यार  इसारा किहिनि डागडर बाबू भुइ माँ बइठिगे।रामदेई सिर  पर हाथु फेरिनि।खूब असीसिनि।" ईके बादि 'दूधन नहाउ पूतन  फरउ' बोलीं  अउर माटी  के ल्वाँदा तना लोढ़कि गईं।
डागडर बिनय महतारी केरी छाती पर दूनउ हाथन केरी हथेली तर ऊपर धइके धौंकिनि तउ कुछु हरकत भइ लेकिन उनके मुँह ते बसि  यू  सुनान  कि,"तनी कोई पानी पियाइ देतिउ।" ईके बादि साँस न लउटी तउ न लउटी।
परसादी दउरि क नल पर गे अउर पानी ढारि लाए।खूब गोहराइनि ," बिनय की अम्मा उठउ पानी पियउ!" लेकिन उइ हुवाँ कहाँ  रहइँ जउ जवाबु देतीं।रामदेई केरि असली प्यास  तउ डागडरबाबू का देखतइ बुझाइ गइ रहइ।
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