बुधवार, 15 दिसंबर 2010

बुढवा बकलोली करैं


31
ताजे गुड की गन्ध ते/महकि उठा हर ठाँव
गाँव केरि बजार
बुढवा बकलोली करैं/उमडै पूरा गाँव।
32
अब न धरै सिरका कोऊ/मिरचा क्यार अचार।
बुआ गयीं तौ हुइ गवा /सारा घर लाचार।
33
उनके हाथे मा रहै/चटनी का सब स्वाद।
कहाँ सिलौटी सहर मा/सब हुइगा बेस्वाद।
34
जातिन मा ट्वाला बँटा/छिया बिया भा गाँव।
अबकी कुछ अइसा भवा/मुखिया क्यार चुनाव।
35
दारू की नदिया बही/आये खूब लठैत।
चढी कढैया राति दिन/भासन दिहिन बकैत।
36
कौनौ माया की कहै/कौनौ गावै राम।
कौनौ लीन्हे साइकिल/दौरै सुबहो साम।
37
नापदान सबके भरे/नाला बना न एक।
रोज लडाई होति है/आँधर भवा बिबेक।
38
गाँवन मा बम्बा लगे/कुँइया गयी सुखाय।
करकट ते गडही पटी/यहै तरक्की आय।
39
बरगद के नीचे कहूँ/उगी न कब्बौ घास।
बडे बडेन की छाँव मा/ छोटके रहे उदास।
40
हुक्का गवा जुडाय अब/बुझिगे सबै अलाव।
आगि भरी है जलन की/झुलसै पूरा गाँव।
41
पैसा की महिमा बढी/जाति न पूँछै कोय।
काम बनै ,नेता मिलै/पैसा ते सब होय।
42
जीकी कोठरी बहि गवै/पक्का रहै इमान।
अब सब मिलिकै कहि रहे/यहै रहै बैमान।
43
खेत बँटे, खेतिहर घटे/सहरन गये हजूर।
बुढवन के साथी बचे/कुतवा-सुआ-मँजूर।
44
बिजुली आयी गाँव मा/मिटा नही अँधियारु
कबहूँ-कबहूँ होति है/राति राति उजियारु।
45
जोन्हरी चिरिया चुनि गयीं/पानी गवा बिलाय।
आँसौ सूखा मा मरे/सुआ- कुतउनू -गाय।
46
पानी बरसा सात दिन/नदी बना गलियार।
मरा लरिकवा,छति गिरी/मुखिया हैं बीमार।
47
नेता दौरे सब तरफ/मिली न हरियर दूब।
बहस छपी अखबार मा/बकलोली भै खूब।
48
सडक बनी- थाना बना/हरहा गये हेराय।
गाँव गाँव पत्थर लगे/ यहौ तरक्की आय।

शनिवार, 27 नवंबर 2010



बेसरमन की बाड


16
घुघुरी लूटैं लरिकवा/गुडिया पीटै जाँय
सावन गावैं मेहेरुआ/झूलि-झूलि अठिलाँय।
17
साँप घटि गये,छँटि गवा- गाँवन का खलझार
नई चाल के आयगे /लोखरी अउर सियार।
18
सबके हाथे मा सजा/है मुहबाइल फोन
बिना सिफारिस मिल रहा /अब मुहमाँगा लोन।
19
परे दुआरे ठूँठ अस/बुढऊ है पगलान
अब सब पौरुख घटि गवा/रहैं बडे बलवान।
20
फूफू की चिट्ठी मिली /बहुत दिनन के बादि
चिट्ठी फोटू बनि गवै /सबकुछ आवा यादि।
21
पुरवैया सनकी कहूँ/उमस भरी चहुँ ओर
बूँद गिरी,नाचै लगे/सबके मन मा मोर।
22
उज्जल कुरता पहिन कै/नेता पहुँचे गाँव।
बरखा के बगुला भये/आवा जहाँ चुनाव।
23
अब म्याडन पर उगि रही/ बेसरमन की बाड
बुआ पियासी,बहुरिया /खोलेसि नही केंवाड।
24
बेरी का काँटा भईं/रिस्तेदारी खाज
खूनु चुवै सब मौज लें/द्याखै गाँव समाज।
25
नान्हि चिरैया ला रही/ तिनुका तिनुका बीनि
गाभिन कइकै हुइ गवा/चिडा एक दुइ तीन।
26
धीरे-धीरे धसकि गै/पुरबह केरि देवाल।
अब पच्छिम की राह है/अमरीका चौपाल।
27
का अवधी का आदमी/ठसक रही ना आन
डेहरी छूटी घर गवा/बोली तौ पहिचान।
28
झाँडे जंगल बिसरि गा/नींबी केरि दतून
सरबत पानी बतकही/अउर तमाखू चून।
29
कुँइया का पानी पिया/ बहुत दिनन के बादि
किस्सा आये सैकडो/यकबक हमका यादि।
30
कोल्हू मा गोई जुतैं/ऊखै पेरी जाँय।
खोई झ्वाकै राति भर/तब ताजा गुड खाँय।
                      *भारतेन्दु मिश्र

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

चली चिरैया सैर पर


दोहे 
1
अब गाँवन ते जुडि गईं/सडकै चारिव वार
लिलगाइन के झुंड का/गाँसै लाग सियार।
2
लखनउवन ते हारि गे/गाँवन क्यार किसान
भीख माँगि रोटी जुरै/सिकुडि गये खरिहान।
3
टट्टर आवा गाँव मा/सबके बैल बिकान
फिर टट्टर की किस्त मा/ बिका खेतु खरिहान।
4
बिरवन की छाँही नही/टूटै जहाँ थकान
अब वुइ बागै कटि गयीं/बनिगे नए मकान।
5
रोज रंगु बदलै लगे/गिरगिट हैं परधान
कुछ चूसैं-कुछ थूकि दें/जैसे मुह का पान।
6
वहै डगर-पीपर वहै/वह कूटी-वहु ठाँव
सब कुछु है मुलु/अब नही है पहिले जस गाँव।
7
गडही सगरी पटि गईं/कुइयाँ गईं बिलाय
चापाकल अउधाँ परा/ पानी लाग बिकाय।
8
करिया अच्छर आदमी/पत्ता अइस सरीर
अँगरेजी मा लिखी गइ/ फत्ते की तकदीर।

9
अब न आगि माँगै कोऊ/अब न होय अगियार
मेल मुरौवति अब नही/कहाँ तीज त्यौहार।
10
खरखट्टी खटिया बिछी/नींबी वाली छाँह
जात-पात की बात पर/नत्था करै सलाह।
11
फसल कटी-बाली बजीं/भरि गइ उनकी जेब
नई बहुरिया आय गइ/पहिरि नई पाजेब।
12
चोंच लडावै मोरनी/उडै मुरैला संग
धरती मानुस बिरछ लौ/नाचैं उनके संग।
13
पढे लिखे हुसियार भे/ठग बाबू बबुआन
मेहनति अबहूँ करति हइ/दुखिया रोज किसान।
14
सौदा लइ-लइ आ रहे/नए बिसाती रोज
गाँवन-गाँवन हुइ रही/अब गहकिन की खोज।
15
पढि लिखि कै हुसियार भे/ जहाँ लरिकवा चंट
अब न बही खाता चलै/हुँआ न पोथी घंट।
*भारतेन्दु मिश्र

शनिवार, 28 अगस्त 2010

पहिल अवधी साहित्य अकादमी पुरस्कार










आचार्य विश्वनाथ पाठक 
     का
    पहिल अवधी 
साहित्य अकादमी पुरस्कार
24जुलाई,सन-1931 मइहाँ गाँव पठखौली जिला फैजाबाद(उ.प्र.) मा जनमे अवधी क्यार कवि आचार्य विश्वनाथ पाठक कइहाँ साल 2009 के बरे साहित्य अकादमी पुरस्कार खातिर चुना गवा है। पाठक जी  अवधी मा सर्वमंगलाघर कै कथा नामक दुइ काव्य रचिन हैं। सर्वमंगला जीमा महाकाव्य आय,जीका परकासन साल 1970 म भवा। सर्वमंगला केरि कथावस्तु दुर्गासप्तशती ते लीन गइ है। जबकि घरकै कथा मा कवि के अपनेहे जीवन केरि सच्चाई बखानी गइ है। पाठक दादा संस्कृत भाखा क्यार सिच्छक रहे ,वुइ गाथासप्तशती औ वज्जालग्ग क्यार खुबसूरत अनुवादौ कीन्हेनि है। सब अवधी के लेखकन औ कबिन की तरफ ते यहु चिरैया अवधी ब्लाग परिवार उनका बधाई देति है। भगवान ते यहै प्राथना है कि पाठक दादा और लम्बी उमिरि पावैं। उनका जौनु और साहित्य नाई छपि पावा है वहौ हाली ते छपै। पाठक दादा कि कबिताई क्यार नमूना द्याखौ--
                आजा
बिन चुल्ला कै घिसी कराही चिमचा मुरचा खावा
एक ठूँ फूट कठौता घर मा यक चलनी यक तावा।
       फाटि रजाई एक ठूँ जेकर बहिरे निकसी रुई
       उहाँ उहाँ भा छेद भुईं मा छानी जहाँ पै चुई।
      यक कोने मा परा पहरुआ दुसरे कोने जाता
      जबरा के तरते दुइ मुसरी जहाँ लगावैं ताँता।
छानी    मा खोसा    दुइ हँसिया लोढा सिल पै राखा
करिखा से लदि उठा भीति माँ छोट दिया का ताखा।
कुलकुरिया करिखानि रौंह से सरि सरिगै सरकण्डा
दुइ कोरव के बीच चिरैया दिहिस झोंझ मा अंडा।
अँगना माँ बिन ओरदावनि के एक ठूँ टूटि बँसेटी
सिकहर पै करिखान धरी  दुइ तरपराय के मेटी।
जब नाती ते चिलम छोरि कै दम्म चढावै आजा
तब धूँवा निकरै नकुना ते   बरै लप्प से गाँजा।  

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

ghagh (घाघ)

अवधी कवि घाघ का जन्म उत्तर प्रदेश के कन्नौज जनपद मे अठारहवीं शताब्दी मे हुआ।उनका कोई ग्रंथ तो नही मिलता किंतु वे लोक व्यवहार ,नीति और किसानो के जीवन की कहावतों के कवि के रूप मे जाने जाते हैं। प्रस्तुत है उनकी एक कहावत---

पौला पहिरे हरु जोतै
औ सुथना पहिरि निरावै।
घाघ कहैं ये तीनो भकुआ
सिर बोझा लै गावैं।
कुचकट खटिया,बतकट जोय।
जो पहिलौठी बिटिया होय।
पातरि कृषी बौरहा भाय।
घाघ कहैं दुखु कहाँ समाय॥
(जन कवि घाघ)
नोट:--- मित्रो से निवेदन है कि इस कविता पर टिप्पणी मेल करें।

शनिवार, 22 मई 2010

तनी बचिकै रह्यो

खण्डन: भारतीय वांगमय में प्रकाशित झूठी खबर
(मई,2010,पृष्ठ-9)

सम्पादक जी,

आपकी पत्रिका को पूरे देश में बडे सम्मान से पढा जाता है। लेकिन सुशील सिद्धार्थ के विषय में जो कुछ आपने छापा है सरासर गलत है।निवेदन है कि कृपया इसे सन्दर्भित व्यक्तियों से तनिक पूँछ लें और फिर हो सके तो इसका खंडन भी अगले अंक में प्रकाशित करें।
अवधी के साहित्यकारों जागो
अवधी के यशस्वी साहित्यकारों जागो और देखो कि कौन तुम्हारी रचनाशीलता को खा रहा है। हमारी अवधी के नए साहित्यकारों में कुछ ऐसे त्यागी और बलिदानी सेवक हैं जो झूठी आत्मप्रतिष्ठा के लिए सारे अवधी समाज को कलंकित करने में लगे हैं । इनदिनों डाँ.सुशील सिद्धार्थ नामक कथित साहित्यकार को 14,मार्च को लखनऊ वि.वि. मे आयोजित अवध भारती के अवधी सम्मेलन में 11000/रुपये के सम्मान की चर्चा आपने अनेक पत्र पत्रिकाओं में पढी होगी। जो धनराशि तत्काल स्वनामधन्य सुशील सिद्धार्थ ने अवधी के विकास हेतु संस्था को लौटा दी। यह झूठी खबर है इसका मै प्रत्यक्षदर्शी हूँ।मैं उस समारोह में दिल्ली से आमंत्रित किया गया था। पूरे समारोह में शामिल भी रहा।उस समारोह में लगभग 50 अवधी सेवकों को प्रशस्ति पत्र और स्मृतिचिन्ह देकर सम्मानित किया गया था।खबर में छपवाया गया है कि प्रो.सूर्यप्रसाद दीक्षित और डाँ. रामबहादुर मिश्र ने सुशील सिद्धार्थ को 11000/ का चेक देकर सम्मानित किया। व्यक्तिगत तौर पर बातचीत करने पर दोनो ने इस बात से इनकार किया है। अत: आप सावधान रहें । ये वही सुशील सिद्धार्थ हैं जिनकी कोई अपनी अवधी की पुस्तक आपने अब तक नही देखी होगी। देखी हो तो प्रकाशक के पते के साथ जानकारी के लिए मुझे भी सूचित करें ताकि अवधी प्रसंग में उसकी समीक्षा हो सके।
यह झूठा समाचार किसलिए प्रचारित किया जारहा है। आओ इसपर विचार करें । इस झूठे समाचार के बल पर अकादमियों दूरदर्शन आदि में अपना महत्व स्थापित करने में सुशील को आसानी होगी क्योंकि रचनाशीलता से अब तक वह किसी को प्रभावित नही कर सके। कार्यक्रमों का संचालन करने से कोई व्यक्ति साहित्यकार कैसे बन सकता है। बहरहाल इस झूठी खबर की सच्चाई के विषय में और भी लोगों से जानकारी आप ले सकतें हैं जो उस समारोह में शामिल थे- प्रो.सूर्य प्रसाद दीक्षित-(09451123525),डाँ.ज्ञानवती दीक्षित-नैमिष(09450379238),डाँ योगेन्द्र प्रताप सिंह(09415914942) ,डाँ.भारतेन्दु मिश्र-दिल्ली(09868031384),मधुकर अस्थाना-(09450447579) रश्मिशील-(092335858688) मयालु नेपाल(079848183767),अमरेन्द्र त्रिपाठी -जे एन यू (09958423157)

मंगलवार, 30 मार्च 2010

समीक्षा

‘ अवधी की महक है नई रोसनी मे’
* डाँ.जयशंकर शुक्ल
चर्चित कवि,कथाकार भारतेन्दु मिश्र का सद्य:प्रकाशित अवधी उपन्यास ‘नई रोसनी’ पढकर आश्वस्ति की अनुभूति हुई। अवधी मे नवगीत,दोहे तथा ललित निबन्धोँ की रचना वे पहले ही कर चुके है।अपनी मातृभाषा के साथ अनन्यता का उद्घोष है यह उपन्यास।भाषा पर लेखक का अधिकार है। सहज प्रवाह,ललित सम्प्रेषण का सजग दस्तावेज है “नई रोसनी”।कथानक के अनुरूप दृश्यो का संयोजन,संवेदना का बहाव,कसावट और बुनावट अवधी भाषा के जनसामान्य शब्दो का प्रयोग ,मुहावरो का बेहतर उपयोग इस उपन्यास की विशिष्टता है।मूलत:संस्कृत साहित्य के अध्येता होने के कारण भारतेन्दु की इस कृति मे रमणीयता का संचार यत्र तत्र सर्वत्र देखने को मिलता है। संवाद अत्यधिक प्रभावशाली है।
लेखक की पूर्व प्रकाशित उपन्यास ‘कुलांगना’के प्रतिपाद्य से इस उपन्यास का प्रतिपाद्य पर्याप्त भिन्न है। ‘नई रोसनी’मे भारतेन्दु लोकभाषा मे जनवादी चेतना लेकर आये है। निरहू और ठाकुर रामबकस के माध्यम से बुनी गयी इस ग्राम्य कथा मे समकालीन दलित चेतना का ऐसा सजीव चित्रण लेखक की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। अवधी मे प्रगतिशील चेतना ही ‘नई रोसनी’ का मूल स्वर है,जहाँ लेखक आभिजात्य के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल फूँकने को तैयार है। समकालीन अवधी लेखन मे इस तरह का नया प्रयोग अन्यत्र विरल ही प्राप्त होता है। उपन्यास मे पठनीयता का प्रवाह है,वह अलंकृत शैली मे नही लिखी गयी है। समय व घटना के अनुसार विलक्षणता स्वयमेव आ जाती है। ‘नई रोसनी’ का कथानक यथार्थ के धरातल पर उत्कीर्ण वह रचना है जिसमे लेखक अवध के आम आदमी की पीडा को व्यक्त कर उसके परिहार हेतु मार्गदर्शन भी कराता है। चित्रा मुद्गल के अनुसार “मेट्रो सिटी की अपसंस्कृति को पाँडे पनवाडी की सांकेतिकता के संक्षेप के बावजूद जिस सशक्तता और जीवंतता से उजागर किया है- वह भारतेन्दु के सतत चैतन्य रचनाकार की गंभीर रचनाशीलता के समर्थ आयामो की बानगी प्रस्तुत करता है।.....’नई रोसनी’ अवधी भाषा मे लिखा प्रेमचन्द की गौरवमयी परम्परा का संवाहक उपन्यास है।”
उपन्यास मे लेखक ने अंचल व लोक की एकात्म सत्ता को प्रतिष्ठित किया है। वह मिथको के अंकन मे पूरी तरह सफल हुआ है। मानवतावादी दृष्टिकोण के साथ-साथ प्रतीको के माध्यम से कथा की रवानगी काबिले-तारीफ है। जातीय अभिजात्य के चंगुल मे फँसे आम आदमी की यथास्थिति का ऐसा सुन्दर चित्रण समकालीन लेखन मे विरल ही प्राप्त होता है।यथा- ‘भोर भवा – निरहू ठाकुर के दुआरे खरहरा कीन्हेनि फिरि ठाकुर केरि भँइसि दुहिनि,तीकै आपनि भँइसि दुहिन। सुरसतिया ठाकुर के घर मा चउका बासन कइ आयी रहै।’ ठाकुर द्वारा दी गयी मदद और उस पर अघोषित ब्याज की माँग निरहू को जब व्यथित कर देती है तब वह अपनी पत्नी से कहता है- ‘ बसि बहुत हुइगै गुलामी। लाव पचास रुपया ठाकुर के मुँह पर मारि देई, अउरु नौकरी ते छुट्टी करी।...बुढवा पचास रुपया बियाजु माँगि रहा है।आजु ते काम बन्द।‘
उक्त उद्धरण मे कथानायक के आक्रोश का बिगुल है।
तो बदले मे ठाकुर रामबकस सिंह की डाँट-फटकार मे सामंतवादी स्वर का सर्वोत्तम अंकन है-- “ चूतिया सारे, दादा –दादा न करौ,अब घर का जाव नही तो द्याब एकु जूता। तुम्हार दादा परदादा तो कबहूँ हिसाब नही पूछेनि।..कहार हौ तौ कहारै तना रहौ..।’ भारतेन्दु अपने लेखन के प्रति पूरी तरह सजग है।वह छोटे पात्रो- सुरसतिया,रजोले,रमेसुर,बिट्टो,रिक्शेवाला,पनवाडी पाँडे आदि का
प्रयोग बहुत अद्भुत ढंग से करते है। निरहू का भोलापन देखिये-‘ भइया सत्ताइस नम्बर सीट खाली कइ देव।...हमार रिजर्वेसन है। एकु मोट आदमी सत्ताइस नम्बर पर बइठ रहै।..निरहू चिल्लाय लाग-सुनाति नही तुमका मोटल्लू। मोटल्ला बदमास मालुम होति रहै। निरहू की तरफ देखिसि अउरु मुँह पर अँगुरी धरिकै चुप रहै का इसारा कीन्हेसि। निरहू बेचैन हुए जाति रहै।यही बिच्चा मा याक मेहरुआ आयी वा मोटल्ले की तरफ अँगुरी
नचाय कै इसारा कीन्हेसि तौ मोटल्ला मनई हँसै लाग। उइ मोटल्ले मनई का चलै मा थोरी दिक्कति रहै। तनिक देर मा बगल वाली सीट वाला निरहू का बतायेसि ई दूनौ गूँगे-बहिरे मालुम होति है।’नई रोसनी मे ऐसे अनेक मनोवैज्ञानिक चित्र है। गाँव मे विपन्नता की दोहरी मार व्यक्ति को उसके अस्तित्व की सुरक्षा व संरक्षा के प्रति सन्दिग्ध बना देती है। रेल की यात्रा, कठिनाइयाँ, स्वभाव परिवर्तन, यात्रा की इस समग्र संचेतना मे पाठक भी अपनेआप को सम्मिलित पाता है। कलन्दर कालोनी का चित्रण दिल्ली महानगर मे बिखरे अनधिकृत व अविकसित कालोनियो का स्पष्ट रूप प्रस्तुत करता है। बंटी चौराहा ऐसी कालोनियो के आसपास के चौक चौराहो का सजीव अंकन है। पाडेँ का पान का खोखा व अरोडा का फ्लैट दिखाना जैसे प्रतीत एक अलग तरह के सामाजिक तानेबाने को प्रस्तुत करते है।
गाँव पहुँच कर दिल्ली का वर्णन, ठाकुर की नौकरी छोडना, इसके आगे ठाकुर का षड्यंत्र और निरहू पर बजरंग बली का आना उपन्यास के महत्वपूर्ण पडाव है। आज आजादी के बासठ वर्ष बाद के ग्रामीण व शहरी समस्याओँ के चित्रण मे भारतेन्दु पूरी तरह सफल सिद्द हुए है। उपन्यास का अंत कुलीनता पर आम जन की विजय का शंखनाद है। सचमुच ये उपन्यास अवध की सोंधी माटी की महक ताजा कर देती है।
रश्मिशील के अनुसार “अवधी मे लिखना पढना मानो भारतेन्दु जी के लिए अपने गलियारे की भुरभुरी मिट्टी अपने सिर पर उलीचने जैसा अनुभव है।” अंत मे मै भारतेन्दु जी को नई रोसनी की रचना हेतु बधाई देता हूँ।

कृति का नाम – नई रोसनी[अवधी उपन्यास]
कृतिकार - डाँ भारतेन्दु मिश्र
मूल्य - साठ रुपये
प्रकाशक - कश्यप पब्लिकेशन बी-481 यूजी -4,दिलशाद एक्स.डी एल एफ, गाजियाबाद-5.
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समीक्षक सम्पर्क –
भवन स.49,गली 06 बैंक कालोनी, नन्द नगरी, दिल्ली-110093
फोन – 9968235647.

गुरुवार, 18 मार्च 2010

अवधी महोत्सव

रपट :अवधी महोत्सव

अवध ज्योति
का
नेपाली- अवधी विशेषांक

14 मार्च (रविवार),लखनऊ वि.वि.के मालवीय सभागार मइहाँ अवध भारती समिति ,हैदरगढ, बाराबंकी द्वारा अवधी महोत्सव क्यार आयोजन कीन गवा । ई बेरिया लखनऊ -दिल्ली के अलावा नेपाल देस के तमाम अवधी भासा केर बिद्वान बोलाये गे। समिति कि तरफ ते अवधी भासा मा काम कै रहे करीब 50 अवधी कबि औ लेखकन क्यार शाल औ प्रतीक चिन्ह दै कै सम्मान कीन गवा। करीब दस किताबन क्यार लोकार्पन कीन गवा।लोक गीत गावै वाले कलाकार समा बाँधि दीन्हेनि। फिर अवधी कबि सम्मेलनौ भवा।
‘अवधी की सार्वभौमिकता’ बिसय पर खास बिद्वानन के भासन कराये गे। यहि गोस्ठी मा नेपाल के अवधी बिद्वान लोकनाथ वर्मा ‘राहुल’ के अलावा,डाँ.सूर्यप्रसाद दीक्षित,डाँ.हरिशंकर मिश्र,डाँ.टी.एन.सिंह,जगदीस पीयूश,रामबहादुर मिश्र,सुशील सिद्धार्थ ,भारतेन्दु मिश्र,राकेश पांडेय,ज्ञानवती दिक्षित आदि अपनि बात रक्खेनि। यहि अवसर पर समकालीन अवधी कबि लेखकन कि किताबन केरि प्रदर्शनी लगायी गय।
यहि बेरिया अवधज्योति परिका क्यार नेपाली-अवधी विशेषांक सबका बितरित कीन गवा। नेपाली अवधी के कबि लेखकन ते मिलिकै जिउ खुस हुइगा। जब यू पता चला कि नेपाल मइहाँ रेडियो ते अवधी भासा मा समाचार पढे जाति हैं। तमाम पत्रिका अवधी मा निकारी जाती हैं। अवधी सांस्कृतिक प्रतिष्ठान ,नेपाल गंज द्वारा छापी गयी चित्रावली देखिकै बहुत नीक लाग।नौजवान साथी भैया आनन्द गिरी ‘मयालु’ ते मिलिकै तौ बहुत मजा आवा। मयालु भैया अवधी भासा मइहाँ ताजा समाचार एफ.एम.रेडियो जन आवाज ते पढति हैं। हुआँ साँचौ अवधी भासा मइहाँ बहुत काम हुइ रहा है। जनता जागरूक हुइगै है।
भैया रामबहादुर मिसिर 16 साल ते अवध भारती अपनेहे साधन ते निकारि रहे हैं यह बडी बात है।यहि अंक मा खास बात यह है कि यहिमा करीब तीस नेपाल के अवधी कबिन क्यार परिचय दीन गवा है। ई बिधि के आयोजनन ते बडी नयी जानकारी मिलति है।भैया राम बहादुर बधाई के पात्र हैं।

बुधवार, 3 मार्च 2010

धारावाहिक उपन्यास
किस्त दो :चन्दावती कि नींद


बहुत थकि गय रहै चन्दावती।खटिया पर पहुडतै खन नीद आय गय-सब पुरानी बातै सनीमा तना यादि आवै लागीं।...तीस साल पहिले ,वहि दिन चन्दावती सकपहिता खातिर बथुई आनय गय रहै। गोहूँ के ख्यातन मा ई साल न मालुम कहाँ ते बथुई फाटि परी रहै। हाल यू कि जो नीके ते निकावा न जाय तौ पूरी गेहूँ कि फसल चौपट हुइ जाय। जाडे के दिन रहैं। उर्द कि फसल बढिया भइ रहै। चन्दावती अपनि लाल चुनरिया ओढे हनुमान दादा के ख्यात मा बथुई बिनती रहैं। हनुमान दादा अपने रहट पर कटहर के बिरवा के तरे हउदिया तीर बइठ रहैं। न चन्दावती उनका देखिस न वइ चन्दावती का। तब चन्दावती जवान रहै—सुन्दरी तो रहबै कीन। वहि दिन चन्दावती बथुई बीनै के साथ-अपनी तरंग मा जोर –जोर ते --
नदि नारे न जाओ स्याम पइयाँ परी, नदि नारे जो जायो तो जइबै कियो बीच धारै न जाओ स्याम पइयाँ परी। बीच धारै जो जायो तो जइबे कियो
वइ पारै न जाव स्याम पइयाँ परी। वइ पारै जो जायो तो जइबे कियो
सँग सवतिया न लाओ स्याम पइयाँ परी। -- यहै गाना गउती रहैं। हनुमान दादा तब हट्टे-कट्टे पहलवान रहैं। यहि गाना मा न मालुम कउनि बात रहै कि हनुमान दादा चन्दावती ते अपन जिउ हारिगे। जान पहिचान तो पहिलेहे ते रहै। गाँवन मा सब याक दुसरे के घर परिवार का बिना बताये जानि लेति है। वैसे कैइयो लँउडे वहिके पीछे परे रहै,लेकिन आजु हनुमान दादा वहिकी तरफ बढिगे ,जैसे राजा सांतनु जइसे मतसगन्धा की खुसबू ते वाहिकी वार खिंचि गये रहैं वही तना वहि बेरिया हनुमान दादा चन्दावती की तरफ खिंचिगे। युहु गाना उनका बहुतै नीक लागति रहै,जब चन्दावती गाना खतम कइ चुकी तब वहिके तीर पहुचि के पूछेनि- ‘को आय रे?’
चन्दावती सिटपिटाय गय।..फिरि सँभरि के बोली-‘पाँय लागी दादा, हम चन्दावती।’
‘हमरे ख्यात मा का कइ रही हौ?’
‘बथुई बीनिति है........’
‘बीनि.... लेव।’
‘बसि बहुति हुइगै सकपहिता भरेक...हुइगै ’
‘अरे अउरु बीनि लेव। का तुमका बथुई खातिर मना कइ रहेन है।’
‘बसि बहुति हुइगै’
‘तुम्हारि गउनई बहुतै नीकि है,तुम्हार गाना सुनिकै तो हमार जिउ जुडाय गवा।’
चन्दावती सरमाय गयीं,तिनुक नयन चमकाय के कहेनि-
‘कोऊ ते कहेव ना दादा!’
‘काहे?’
‘तुम तौ सबु जानति हौ,बेवा मेहेरुआ कहूँ गाना गाय सकती हैं।..हम तौ बाल-बिधवा हन। ...का करी भउजी जउनु बतायेनि वहै करिति है।’
‘अउरु का बतायेनि रहै भउजी?’
‘ सुर्ज बूडै वाले हैं।..अबही रोटी प्वावैक है। हमरे दद्दू का हमरेहे हाथे कि पनेथी नीकि लागति है।..कबहूँ फुरसत म बतइबे....,अच्छा पाँय लागी।’
चन्दावती चली गय ,लेकिन राम जानै का भवा वहिका गाना- नदि नारे न जाओ...हनुमान दादा के करेजे मा कहूँ भीतर तके समाय गवा रहै। बडी देर तके वइ वहै गाना मनहेम बार बार दोहरावति रहे। रेडियो के बडे सौखीन रहै। चहै ख्यात मा जाँय, चहै बाग मा ट्रांजिस्टर अक्सर अपने साथै लइ कै चलैं। आजु चन्दावती क्यार गाना उनका बेसुध कइगा ,रेडियो पर वइ यहै गाना सैकरन दफा सुनि चुके रहैं तेहूँ चन्दावती के गावै के तरीके मा कुछु अलगै नसा रहै जो जादू करति चला गवा। सोने जस वहिका रंगु ती पर लाल चुनरी ओढिके वा हरे भरे गोंहू के ख्यात मा बइठि बथुई बीनति रहै, मालुम होति रहै मानौ कउनिव सरग कि अपसरा उनके ख्यात मा उतरि आयी है।
खुबसूरत तो चन्दावती रहबै कीन रंगु रूपु अइस कि बँभनन ठकुरन के घर की सबै बिटिया मेहेरुआ वहिके आगे नौकरानी लागैं,बसि यू समझि लेव कि पूरे दौलतिपुर मा वसि सुन्दरी बिटेवा न रहै तब। अब वहिके घरमा तेलु प्यारै क्यार खानदानी काम सबु खतम हुइगा रहै बिजुली वाला कोल्हू बगल के गाँव सुमेरपुर मा लागि गवा रहै। अब चन्दावती के दद्दू मँजूरी करै लाग रहैं।दुइ बिगहा खेती मा गुजारा मुस्किल हुइगा रहै। तेहू भइसिया के दूध ते चन्दावती के घरमा खाय पियै की बहुत मुस्किल न रहै। सुमेरपुर मा चन्दावती बेही गयी रहैं मुला किस्मति क्यार खेलु द्याखौ अबही गउनव न भा रहै कि चन्दावती क्यार मंसवा हैजा-म खतम हुइगा। बडी दौड-भाग कीन्हेनि लखनऊ
के मेडिकल कालिज तके लइगे लेकिन वहु बचि न पावा। फिरि ससुरारि वाले कबहूँ चन्दावती क्यार गउना न करायेनि याक दाँय चन्दावती के दद्दू सुमेरपुर जायके बिनती कीन्हेनि तेहूँ कुछु बात न बनी।चन्दावती के ससुर साफ-साफ कहेनि –‘संकर भइया, तुम्हार बहिनिया मनहूस है..बिहाव होतै अपने मंसवा का खायगै,..वहिते अब हमार कउनौ सरबन्ध नही है। हमरे लेखे हमरे लरिकवा के साथ यहौ रिस्ता मरिगवा। ’
चन्दावती के दद्दू बुढवा के बहुत हाथ पाँय जोरेनि लेकिन वहु टस ते मस न भवा। आखिरकार चन्दावती अपने मइकेहेम रहि गयीं,बाल बिधवा के खातिर अउरु कउनौ सहारा न रहै। गाँव कि बडी बूढी चन्दावती –क मनहूस कहै लागी रहैं, लेकिन खुसमिजाज रहै चन्दा। बिधवा जीवन के दुख ते यकदम अंजान ,अबही वहिकी लरिकई वाले सिकडी-गोट्टा-छुपी-छुपउव्वल ख्यालै वाले दिन रहै। अबही जवानी चढि रही रहै । बिहाव तो हुइगा रहै-मुला पति परमेसुर ते संपर्क न हुइ पावा रहै। हियाँ गाँव कि गुँइयन के साथ चन्दा मगन रहै। हुइ सकति है अकेलेम बइठिके रोवति होय,लेकिन गाँवमा कोऊ वहिका रोवति नही देखिसि। संकर अपनी बहिनी का बडे दुलार ते राखति रहैं। संकर कि दुलहिनि चन्दा ते घर के कामकाज करावै लागि रहै। चन्दा दौरि-दौरि सब काम करै लागि रहै। समझदार तौ वा रहबै कीन।
जउनी मेहेरुआ वहिते चिढती रहैं वइ चन्दा क्यार नाव बिगारि दीन्हेनि रहै। कउनौ चंडो कहै,कउनौ रंडो कहै तो कउनिव बुढिया रंडो चंडो नाव धरि दीन्हेसि रहै। दौलतिपुर मा नाव धरै केरि यह पुरानि परंपरा आय। बहरहाल चन्दावती कहै सुनै कि फिकिर न करति रहै, वा खुस रहै। दुसरे दिन हनुमान दादा संकर का बोलवायेनि। संकर घबराय गे ,काहेते वहु दादा ते एक हजार रुपया कर्जु लीन्हेसि रहै। संकर सकुचाति भये हनुमान दादा तीर पहुँचे।हनुमान दादा अपने चौतरा पर बइठ रहैं।
‘ दादा पाँय लागी।’
‘खुस रहौ।आओ,संकर! आओ।...कहौ का हाल चाल ?’
‘तुमरी किरपा ते सबु ठीक चलि रहा है।’
‘चन्दा के ससुरारि वाले का कहेनि?’
‘बुढवा कहेसि हमरे लरिका के साथै यह रिस्तेदारी खतम हुइगै।’
‘हाँ वहौ ठीक कहति है-जब जवान लरिका मरि गवा तो फिरि बहुरिया का घर मा कइसे राखै, चन्दा क्यार गउना?’
गउना कहाँ हुइ पावा रहै दादा।...गउने केरि सब तयारी कइ लीन रहै...कर्जौ हुइगा लेकिन चन्दा केरि किस्मति फूटि गय...का करी दादा।’
‘परेसान न हो संकर! जउनु सबु बिधाता स्वाचति है,तउनु करति है।तुलसी बाबा कहेनि है-होइहै सोइ जो राम रचि राखा.. ’
‘ठीकै कहति हौ दादा!..लेकिन अब हमरे ऊपर बहुति बडी जिम्मेदारी आय गय है।...अब तुमते का छिपायी दादा,..गाँव के कुछु सोहदे हमरी चन्दा कि ताक झाँक मा रहति हैं।..अब हम का करी,वहिका रूपुइ अइस है कि .. ’
‘यह तौ अच्छी बात है...कोई ठीक लरिका होय तौ...चन्दा क्यार दुबारा बिहाव करि देव।’
‘बिहाव करै वाला कउनौ नही है..सब मउज ले वाले है..बेवा ते बिहाव को करी?बडकऊ तेवारी क्यार कमलेस,मिसिरन क्यार बिनोद ई दुनहू चन्दावती के चक्कर मा हैं।’
‘..इनके दुनहू के तौ बिहाव हुइ चुके हैं..दुनहू लरिका मेहेरुआ वाले हैं।’
‘यहै तौ..का बताई?...कुछु समझिम नही आवति..’
हमरी मदति कि जरूरति होय तो बतायो..तुम कहौ तो तेवारी औ मिसिर ते बात करी।’
‘नाही दादा!..बात-क बतंगडु बनि जायी। चन्दा कि बदनामिव होई सेंति मेति,......कोई अउरि जतन करैक परी।’
‘या बात तो ठीक कहति हौ,संकर!..न होय तौ कहूँ अउरु दूसर बिहाव कइ देव।’
‘याक दाँय क्यार कर्जु तौ अबहीं निपटि नही पावा है।...फिरि जो हिम्मति करबौ करी तो दूसर लरिका कहाँ धरा है।’
‘कोई ताजुब नही है कि हमरी तना कउनौ बिधुर मिलि जाय।’
‘तुमरी तना कहाँ मिली..?’
‘काहे?’
‘अरे कहाँ तुम बाँभन देउता, कहाँ हम नीच जाति तेली।’
‘बात तो ठीक है लेकिन हमका कउनौ एतराज नही है।.जब हमरे घरमा वुइ बेमार रहै तब मालिस करै तुमरी दुलहिन के साथ चन्दा आवति रहै। हमका वा तबहे ते बडी नीकि लागति है,कबहूँ कोऊ ते कहा नही हम आजु तुमते बताइति है।...द्याखौ परेसानी तो हमहुक बहुति होई।.....लेकिन जउनु होई तउनु निपटा जायी।....पहिले तुम चन्दावती क्यार मनु लइ लेव,अपने घर मा राय मिलाय लेव। फिरि दुइ-तीन दिन मा जइस होय हमका चुप्पे बतायो।’
‘तुम्हार जस नीक मनई-बाँभन, हमका दिया लइकै ढूढे न मिली,यू तौ हम गरीब परजा पर बहुत उपकार होई।’
‘साफ बात या है कि तुमरी चन्दावती हमहुक बहुत नीकी लगती हैं...लेकिन अबहीं कोऊ गैर ते यह बात न कीन्हेव।’
‘ठीक है दादा।..पाँय लागी..’
‘खुस रहौ।..चन्दावती कि राय जरूर लइ लीन्हेव।’
‘ठीक है..’संकर मनहिम अपनि खुसी दबाये अपने घर की राह लीन्हेनि। संकर कमीज के खलीता ते बीडी निकारेनि तनिक रुकिकै बीडी सुलगायेनि औ खुसी की तरंग मा फिरि घर की तरफ चलि दीन्हेनि। आजु वहिके पाँव सीधे न परि रहे रहैं।

गुरुवार, 28 जनवरी 2010

चन्दावती (धारावाहिक उपन्यास)

पहली किस्त:

दादा केरि तेरही
तेरह बाँभन आय गे रहै। उनका अलग चउका लगावा गा रहै, नई तेरह धोती-अँगउछा-जनेऊ-थरिया-लोटिया-नए पाटा,तेरह तुलसी बाबा वाली रामायन के गुटका अउरु तेरह संख बजार ते मँगवाये गे रहै। आस पास कि जवार ते चुने भये तेरह बाँभन नेउते गे रहै। उनकी सकल देखतै बनि परति रहै-ग्वार सुन्दर चोटइयाधारी पंडित -चन्दन टीका लगाये,ई बिधि सजे रहै कि मानौ सीध-म-सीध सरगै ते उतरि के आए होंय । गाँव के भकुआ उनका आँखी फारि फारि द्याखै लाग।छोटकउनू महराज पीतर के थारा मा सबके पाँय धोयेनि,सिवपरसाद अउरु चन्दावती दायी नये अँगउछा ते सबके पाँय पोछेनि। मोलहे उनका देखि कै सकटू ते कहेनि-‘ भाई,द्याखौ ई कतने सुघर पंडित आये है।आँखी जुडाय गयी,‘हाँ मोलहे भाई,किसमत अच्छी रहै हनुमान दादा केरि ई सब पंडित उनकी खातिर सरग केरि सीढी बनइहै।’
‘ठीक कहति हौ भइया,उनका सरग जरूर मिली।देउता रहै हनुमान दादा,सब उनकी करनी का परताप है-बहुत बडे मनई रहै वइ।’ ‘ अब बँभनन ट्वाला मा कउनौ वइस नामी मनई नही बचा है।’
‘हमतौ कहिति है दुइ -चारि- दस गाँवन मा वइस मनई ढूँडे न मिली।’
हवन क्यार धुआँ सब तन फैलि गवा रहै। अगियारि होयेके बादि संखु-घंटा बाजै लाग। लीपे- पोते आँगन मा तेरहौ बँभनन केरी चउकी सजाय दीन्ही गयी रहै। सब देउता,नौगिरह, गइया-कउआ-कूकुर -चीटी अउरु पंचतत्वन खातिर भोग लगाय दीन गा रहै । अब तेरहौ बाँभन जीमै लाग रहैं।
‘वाह चन्दावती दायी,अतना बढिया इंतिजाम,अतना सुन्दर भोजन बरसन बादि मिला है।..हनुमान दादा केरि आत्मा सरग ते देखि रही है तुमका,--बहुत असीस दै रही होई ।’ तेरही वाले बँभनन क्यार मुखिया कहेसि। चन्दावती केरी आँखी भरि आयीं।अपने अँचरे मा अपन मुँहु लुकाय लीन्हेनि।सब मौजूद मनई-मेहेरुआ तरह-तरह की बातै बनावै लाग रहैं। रामफल दादा दूरि बरोठे म बइठ रहैं। वइ सुरू हुइगे,भकुआ मुँहु फैलाय के सुनै लाग-
‘प.रामदीन सुकुल उर्फ हनुमान दादा दौलतिपुर केरि नाक रहैं।उनका बडा पौरुखु रहै। दस-पाँच क्वास तके गाँव जवारि मा हनुमान दादा क्यार रुतबा रहै। दौलति पुर क्यार ई सबते बडे किसान रहैं। बसि इनहेन के दुआरे टक्टर ठाढ है।’
दौलतिपुर मा कोई पचास घर हुइहै। तेली,तम्बोली,नाऊ,कहार,धोबी,पासी,चमार,मुरऊ,ठाकुर जैसी सब जातिन क्यार घर दौलतिपुर मा है।गाँव मा बँभनन के कुल जमा तीनि घर रहैं। कउनौ पूँछेसि-‘केत्ती उमिरि रहै हनुमान दादा केरि?’
रामफल फिरि सुरू हुइगे-‘अबही मुसकिल ते पैसठ केरि उमिरि भइ होई हमते पाँच साल छोट रहैं बखत आय गवा सरग सिधार गे। नामी पहेलवान रहैं-तोहार हनुमान दादा। अपनी जवानी मा कुस्ती लडै जाति रहैं तौ सदा जीति कै आवति रहैं। दौलतिपुर केरि असल दौलति तौ हनुमान भइयै रहैं। जस-जस उनका पौरुखु घटा तस-तस गठिया उनका तंग करै लागि रहैं। बिचरऊ जवानी मा बिधुर हुइगे रहैं। तब चन्दावती ते उनका परेम हुइगा,वइ चन्दावती ते बिहाव कीन्हेनि औ वहिका मेहेरुआ केरि जगह दीन्हेनि , फिरि चन्दावती सब तना उनके साथै तीस साल रहीं। चन्दावती उनकी बिरादरी कि न रहैं। तीस साल पहिले उनका परेम हुइगा रहै। हनुमान दादा बीस बिसुआ के कनवजिया औ चन्दावती गाँव कि तेलिनि। तबै चन्दावती क्यार गउना न भवा रहै। गाँव-म उनके मंसवा के मरै केरि खबर आयी रहै। चन्दावती वाकई-म चन्दै रहै। जो कोऊ याक दाँय द्याखै ऊ देखतै रहि जाय,बहुतै खबसूरत रहै चन्दावती।
ऊ जमाना रहै जब दबंग बाँभन ठाकुर जउनि नीची जातिन केरि सुन्दरि बिटिया बहुरिया देखि लेति रहैं तौ वहिका जब चहै तब अपनी हवस क सिकार बनाय लेति रहै। तब गरीब परजन के घर की मेहेरुवन केरि कउनौ इज्जति न रहै।कउनौ कानून न रहै इनके ऊपर।चन्दावती के घरवाले चन्दावती के परेम ते बहुतै खुस भे रहै।’.....
‘ द्याखौ दादा सौ-सौ रुपया दच्छिना दीन जाय रहा है’ -मोलहे इसारा कीन्हेनि। ‘रामफल दादा समझायेनि- तेरहीवाले बाँभन आँय,इनका दुरिही ते पैलगी कीन्हेव। इनकी नजर ते बचिकै रहैक चही।‘ ’ सकटू पूछेनि -काहे दादा? ‘
‘ तुम यार यकदमै बउखल हौ,हियाँ आये हौ तेरही खाय ,सवालन केरि झडी लगाय दीन्हेव।‘
‘ सकटू भइया तुम तमाखू बनाओ-लेव चुनौटी पकरौ।‘ ’अबही तमाखू ?अब तौ भोजन के बादि तमाखू खायेव।‘ ’तमाखू कि महिमा तुम नही जानति हौ-सुनौ- कृष्न चले बैकुंठ को राधा पकरी बाँह
हियाँ तमाखू खाय लो हुआँ तमाखू नाहि।...कुछ समझ्यो,अबै टेम है, तब तक तमाखू बनि सकति है। जबतक खानदान के मान्य न खाय ले तबतक हमार नम्बर कइसे लागी।‘
‘ठीक कहति हौ रामफल दादा।‘ ’कहिति तो हम ठीकै है,..... सुनति तो नही हौ। बनाओ। तमाखू बनाओ।‘ ‘तेरह बाँभन दान दच्छिना लइ कै चलि दीन्हेनि रहै।‘
महाबाँभन के पाँय छुइकै चन्दावती दायी अलग ते वहिका पाँच सौ रुपया दच्छिना दीन्हेनि। वहिकी आँखी चमकि गयी।वहु अपन दुनहू हाँथ ऊपर उठाय के आसिरबाद दीन्हेसि तीके तेरहौ बाँभन अपन हाथ उठाय कै आसीस दीन्हेनि।
छोटकउनू महराज चाँदी की तस्तरी-म पान तमाखू ,इलायची,लौग लइकै आगे बढिकै सबका बिदा कीन्हेनि। दुइ ताँगा उनका लइ जाय खातिर पहिलेहे तयार रहै। दुनहू ताँगावाले भोजन कइ लीन्हेनि रहै। उनका केरावा दइ दीन गा रहै, अउरु घर की खातिर परसा बाँधि दीन गा रहै। तेरहौ बाँभन जब ताँगन-म बइठि लीन्हेनि-तब महाबाँभन के इसारे ते ताँगा हाँकि दीन गे। हनुमान दादा की तेरही-म ताँगन-म जुति कै आये दुनहू घोडवनौ केरि दाना- पानी-मेवा ते खुब सेवा कीन गइ रहै,सो वहू मस्त हुइगे रहै।

मंगलवार, 19 जनवरी 2010

सोमवार, 18 जनवरी 2010

अवधी कवि डाँ.अशोक अज्ञानी को शिक्षक कवि सम्मान

लखनऊ,10 जनवरी। चर्चित कवि और शिक्षक डाँ अशोक अज्ञानी को उनकी अवधी काव्य पुस्तक सबका राम जुहार ( 2008) पर पं.शिवराम मिश्र स्मृति शिक्षक कवि सम्मान2010 से सम्मानित किया गया।इस सम्मान मे रु.1100/के अतिरिक्त मानपत्र,शाल,स्मृतिचिन्ह,और पं.शिवराम मिश्र रचनावली की प्रति उन्हे भेट की गयी। यह सम्मान उन्हे प्रो.हरिशंकर मिश्र , दयाशंकर अवस्थी देवेश,श्रीमती भारती मिश्र,सुनील बाजपेयी,भारतेन्दु मिश्र के सानिध्य से प्रदान किया गया। समारोह का संयोजन चर्चित साहित्यसेवी कवि आवारा नवीन ने किया।इस बार के निर्णायक श्री मधुकर अस्थाना तथा श्री अशोक पांडेय थे समारोह का संचालन अवधी कथाकार रश्मिशील ने किया ।