शुक्रवार, 29 मई 2009

छपरा कस उठी

जुगु बदलि गवा है।अब कउनेव ट्वाला मा जाति बिरादरी वाले याक साथ बइठै का तयार नाई हैं। जीके तीर पइसा है –वहेकि ठकुरई। उनका छपरा तौ जस पहिले उठति रहा है तस अबहूँ उठी मुला गरीबन क्यार छपरा को छवाई? जो कउनिव तना ते छाय ले तो फिरि ऊका उठावै वाले जन कहाँ ते अइहैं।
गरीबी हटावति हटावति कइयौ सरकारै हटि गयीं। गरीब दुखिया जहाँ खड़े रहैं हुआँ ते अउरु पाछे हटि आये ,मुला गरीबी न अब लौ हटी है न जल्दी हटै वाली है। अमीरी गरीबी के पाटन मा आपसदारी धीरे-धीरे पिसी जाय रही है- तीका कोई इलाजु नाई है।
अब जब नोटन ते रिस्ता जुड़िगा है तो बेइमानी-बदमासी औ मक्कारी करै मा जो साथु दे ,वहै रिस्तेदार है-वहे ते आपसदारी है। छपरा बिनु आपसदारी ना तौ छावा जाय सकी न उठावा जाय सकी औ –जो कहूँ आगि लागि जाय तो बुझावौ न जाय सकी। हमरी लरिकई मइहाँ सब याक दुसरे क्यार छपरा छवावै औ उठवावै जाति रहैं। अबहूँ छपरा उठवावै-क न्यउता आवति है मुला अब टाला –टाली कइकै सब अपन जिउ चोरावति हैं। जीके हाथेम लाठी है तीके सगरे काम बनि रहे हैं। जीके हाथेम नोट हैं वहूके सब काम निपटि रहे हैं। कुछु जने तौ तिकड़म ते आपन काम निकारि रहे हैं, तेहूँ गाँव मा अइसन मनई जादा हैं जिनके काम कउनिव तना नाई हुइ पाय रहे हैं। अइसे टेम मइहाँ उनका छपरा कस उठी?
अब न उइ सैकरन बाँसन वाली बाँसी रहि गयी हैं, न छपरा खतिर बाँसै जोहाति हैं। फूसु धीरे-धीरे फुर्रु हुइ गवा है।हाँ ऊँखन कै पाती औ झाँखर मिलि जाति हैं। बड़क्के किसान तौ पक्की हवेली बनवाय रहे हैं छोटकये कच्ची देवालन पर लेसाई लौ नाइ कइ पाय रहे हैं। मँजूरी -धतूरी ते जो संझा तके लोनु रोटी मिलि जाय तौ जानौ बड़ी भागि है। कंगाली के साथ मँहगायी मुर्गा बनाये है। लकड़ी कटि-कटि राती-राता सहरन मा जाय रही है। फारेस्ट वाले खाय पी कै सोय रहे हैं। हमका तुमका तौ थुनिहा औ चियारिव नाई मिलै वाली हैं। बाता मइहाँ पगही बाँधे छपरा कै दिन रुकी, अरे रुकी कि ठाढै न होई।
अइसी वइसी बइठै ते , बीड़ी फूँकै ते या सुर्ती मलै ते कुछु काम बनै वाला नाई है। लरिकईं –म जब छपरा उठवावै जाइति रहै तौ बड़ा जोसु रहै, गाँव केरी ऊँची नीची सब जातिन क्यार अदमी आवति रहै।“अउरु लगा दे हैंसा, जोर लगा दे हैंसा..। पुरबह वार खँइचो रे, दखिनह वार थ्वारा रेलि देव”- ई तना के जुमला यादि आवति हैं। तब मालुम होति रहै कि गाँव ट्वाला सब अपनै देसु है।
तब जहाँ चहौ तहाँ चट्ट –पट्ट छपरा धरि दीन जाति रहै। अब न तौ रमजानी अपने ट्वाला ते अइहैं, न सुच्चा सिंह न रामपालै केरि उम्मेद है। अइसे बुरे बखत मइहाँ कहाँ मूड़ु दइ मारी।
छपरा जीमा कइयौ सिकहर लटके होति रहैं, कहूँ-कहूँ छोटकई चिरैया आपन घुरुघुच्चु बनउती रहैं, जिनके ऊपर कबहूँ लउकी-कदुआ केरि फसल मिलति रहैः जी पर बिलइया टहलती रहैं – जीके तरे जिन्दगी मउत ,दीन-दुनिया केरि सब बतकही होति रहै – जीके तरे घरी भरि बइठि कै राहगीरौ जुड़ाति रहै- सँहिताति रहै, जहाँ दुपहरिया मा कबौ किस्सा किहानी,कबौ सुरबग्घी, औ कबहूँ कोटपीस ख्याला जाति रहै-अब उइ दिन कहाँ? अब जब पियारु दुलारु- मोहब्बति औ भइयाचारु नाई रहिगा है तो छपरा छावा जाय चहै न छावा जाय। उठवावा जाय चहै न उठवावा जाय हमरी बलाय ते।
( -“कस परजवटि बिसारी” से)

कोई टिप्पणी नहीं: