रमई काका की दो कविताएं
1.देश की आजादी क्यार इंतिजार करति भए
(सन 1947 से पहिले )रमई काका सब मनइन का धैर्य बंधाय रहे हैं तनी यहौ कविता देखि
लीन जाय-
भिनसार
अब कबै भिनसार होई ?
निठुर पच्छिम के गगन मां/बन्द सूरज
तेज धारी
भेद हित परकास किरनै /छटपटाती हैं
बिचारी।
फैइलिगै गहवरि अंधेरिया/बिकट
अन्धाधुन्ध कारी
तमकि उझकति नखत नभ के /मैं अंधेरिया
अस दुखारी।
लइ लपट विकराल लहकति/कब पुरब लाली पधारी
औ अन्धेरे क्यार पिंजरा/जरि छिनक मा
छार होई।
अब कबै भिनसार होई।।
अंग के उपजे पतउवन /ते बंधी पलई
डरइया
अपनेहे संतान बनिगे/हाय बन्धन के
बंधइया।
पात मूंदेनि चलकुरन का/बंधि गई
सिगरी चिरइयां
वास अपने अब बने हैं/काल की अंधरी
कोठरिया।
गीत मनके सोइगे सब/भूलि गै सुख की
बधइया
नींद का बन्धनु कटी अब/नीक मंगलचार
होई।
अब कबै भिनसार होई॥
कंवल बन्दीघर बने हैं/भंवर हुइगे
बन्द जिनमा
हां!बने बंधना कसीले/पंख अपने चपटि
तन मा।
मीत छुट्टा गीत मन के/हाथ हुइगे
बन्द मन मा
बन्द गांठन की रसरिसन /ते बंधे हैं
बोल छिन मा।
कब किरन लइ कै कटारी/आय पूरब के गगन
मा
बन्ध काटि दुआर खोली/नाद जय जयकार
होई
अब कबै भिनसार होई॥
कब रही हरदम अन्धेरिया/धीरु धर
उजियारु आई
लुकि सकुचि अंधियारु भागी/धरि मुकुट
भिनसार आई।
गूंथि सोने की किरन मा/सुरज जगमग
हारु लाई
मलय परबत की बयरिया/अतर कै गमकार
लाई।
बिहग गीत अजाद गइहैं /बन भंवर
गुंजार होई
जब सुघर भिनसार होई/बन्द किरनै छूटि
पतवन।
परसि महरा रहसु रचिहैं/लहकिहैं पतवा
गमकिहैं
फूल डारन फाग मचिहै/पलक पखुरिन के
खुलत खन।
उतरि भंवरा थिरकि नचिहैं/ चैतु
नस-नस मा समाई
सोये मन के गीत चेतिहैं/करमु जागी
धरमु जागी।
जब सपन के भरम तजिहैं/झूंठ बिनसी,
सांचु दरसी
तब चटक उजियार होई/धीर धरु भिनसार
होई।।
2.मित्रो काका की स्यामा गाय शीर्षक
कविता देखिए-इसमे आपको अवध के गांवो की गोसेवा करने वाली खेतिहर जनता का सहज चित्र
दिखेगा।दूसरी ओर यह कविता हमे गाय के आर्थिक/सांस्कृतिक स्वरूप अभिव्यक्त करने
वाले उन अनेक वैदिक कवियों के सूक्तो की याद दिलाती है।तनी पढिकै आपन बिचार लिखा
जाय-
स्यामा गाय
भोली भाली गैया हमारि/स्यामा सीधी
गैया दुधारि।
जब मुनुवा की आंखी ध्वावै/घरतिन
कांची-कूची गावै
तब बंबकति बछरा का पुकारि/स्यामा
सीधी गैया हमारि॥
जब किरन परी चलि आवति है/भुंइ पर
उजेरु ढरकावति है
तब गैआ दूधु दुहावति है/मुंहुकौरु
भरति बटई हमारि
स्यामा सीधी गैया हमारि॥
बछरा पर नेह अपार बहै/जीभौ ते अमरित
धार बहै
दुइ थन ते गंग दुधारि बहै/कटि जाति
पाप भिटरी निहारि
स्यामा सीधी गैया हमारि॥
निरमल सागर छीर अयन मा /दरस स्याम
के स्याम रंग मा
उपजत है सुखु अंग अंग मा/स्यामा
सीधी गाय निहारि।
स्यामा सीधी गैया हमारि॥
नभ स्याम बदरिया बिचरि-बिचरि/भुंइअ
पर जलु बरसति घुमरि-घुमरि
पर करति रहति दुधिया बरखा/हमरे घर
मा स्यामा दुधारि
स्यामा सीधी गैया हमारि॥
यह देति दूधु औ दही मखन/है यहिते
सबु घरु चगन मगन
भाण्डा मेटिया तक चटक चिकन/पाहुन
उपही के हखन हारि
स्यामा सीधी गैया हमारि॥
अवलम्बु यहै है आस यहै/पूरति मन कै
अभिलास यहै
है करति उजेरु अभास यहै/हमरी
अन्धियारी का बिदारि
स्यामा सीधी गैया हमारि॥
यह अमरित देनी गैया है/हमरे घर यहै
जोन्हैया है
यहि कै तस्बीर जोन्हैया तौ/हैं
लीन्हे गोदी मा संभारि
स्यामा सीधी गैया हमारि॥
जब चरत चरत थकि बैठि जांय/निज नयन
मूंदि कै मुंहु लेवायं
जनु ध्यान मगन देबी लखांय/लुरखुरी
करैं चिरिया निहारि
स्यामा सीधी गैया हमारि॥
यह देत बछा देंहगर बलगर/हम भुंइअ
जोतिति जिनके बल पर
है रिनु यहिका हम पर जग पर/यह दूध
पूत अन धन अगारि
स्यामा सीधी गैया हमारि॥
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