अवधी सम्राट जनकवि :वंशीधर शुक्ल
# डॉ.भारतेंदु मिश्र
(जन्म: 1904; मृत्यु: 1980)
‘कदम कदम बढ़ाये जा /खुशी के
गीत गाये जा
ये जिन्दगी है कौम की तू
कौम पे लुटाये जा|’
-जैसे लोक विख्यात कौमी
तराने लिखने वाले कवि का जन्म वर्ष 1904 में वसंत पंचमी के दिन हुआ|इनके पिता पं॰
छेदीलाल शुक्ल सीधे-सादे सरल कवि ह्रदय किसान थे जो अच्छे अल्हैत के रूप में
विख्यात थे और आसपास के क्षेत्र में वे आल्हा
गायन के लिए आदरपूर्वक बुलाये जाते थे । तब वे किशोर वंशीधर को भी अपने साथ ले जाया करते थे। पिता
द्वारा ओजपूर्ण शैली में गाये जाने वाले आल्हा को वंशीधर मंत्रमुग्ध होकर सुनते
थे। सामाजिक सरोकारों से वंशीधर जी के लगाव के पीछे उनके बचपन के परिवेश का बहुत
बड़ा योगदान था। सन 1919 में पिता पं॰
छेदीलाल चल बसे। 15 वर्षीय वंशीधर पर पारिवारिक जिम्मेदारियों का भी बोझ आ
गया था। यह उनके लिए कड़े संघर्ष का समय
था। अवधी और खड़ीबोली हिन्दी में एक साथ जन जीवन की कविताई करने वाले पंडित वंशीधर शुक्ल बीसवीं
सदी के उन चंद कवियों में से एक हैं जिनका
जीवन उनकी ही कविताओं की तरह ईमानदारी से देखा परखा जा सकता है|अर्थात जिनके मन
वचन और कर्म में कोई अंतर नहीं दिखाई देता| वे सच्चे स्वतंत्रता सेनानी और किसान
कवि थे और अंत तक किसानों के स्वाभिमान के
लिए संघर्ष करते रहे| साम्राज्यवादी ताकतों के प्रतिनिधि सामंतों और नेताओं से भी
उनका लगातार संघर्ष चलता रहा| स्वतंत्रता संग्राम में वे उत्तर प्रदेश के लखीमपुर
खीरी जनपद के नायक के रूप में उभरे| इसी
समाज में जहां बलभद्र प्रसाद दीक्षित ‘पढीस’ जैसे विख्यात अवधी के कवि जनमे उसी
परिवेश में उनके उत्तराधिकारी के रूप में वंशीधर जी का जन्म हुआ| ख़ास बात यह कि
वंशीधर जी की कवितायेँ हास्य - परिहास अथवा मनोरंजन की दृष्टि से नहीं लिखी गयीं
बल्कि उनकी कविता का स्वर आक्रोश और करुणा से परिपूरित है| वे सही मायने में अपने
समाज को अपनी कविताओं से जगाना चाहते हैं|उनकी क्रांतिकारी चेतना की कवितायेँ कोटि
कोटि जन जन का कंठ हार बनीं|प्रारंभ में वे सीतापुर के नैमिषारण्य तीर्थ स्थल के अमावस्या के मेले में गा गाकर पुस्तकें बेचते
थे|तभी उन्होंने ‘मेला घुमनी ’और ‘चुगल चंडालिका ’ जैसी लघु पुस्तकें लिखीं ये
पुस्तकें 10 या 12 पैसे की होती थीं और मेले में खूब बिकती थीं|इसी क्रम में -
‘कृषक विलाप ’और ‘मतवाली गजल ’ जैसी पुस्तकें लिखीं| यदा कदा उन्हें पुस्तक बेचने के सिलसिले में कानपुर जाना
पड़ता था | इन्ही दिनों कानपुर में वे गणेशशंकर विद्यार्थी जी के संपर्क में आये|
अब वे पुस्तक विक्रेता की अपेक्षा कांग्रेस के वालेंटियर बन गए थे| गणेशशंकर
विद्यार्थी जी से संपर्क केबाद उनके ही आदेश से शुक्ल जी ने ‘खूनी पर्चा ’नामक
क्रांतिकारी कविता लिखी|वर्ष 1926 में यह उनकी कविता कोटि कोटि जन तक पहुँच गयी
थी|इसी वर्ष कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पास हो चुका
था|चारो ओर क्रान्ति की रणभेरी बज रही थी|लखीमपुर में शुक्ल जी के साथी बम बनाने
के आरोप में जेल चले गए तब इन्होने जनपद की क्रान्ति की मशाल को आगे बढाया|इन्हें
भी पकड़ा गया और क्रांतिकारी साहित्य के प्रचार प्रसार के जुर्म में इन्हें भी 6
माह की जेल हुई|तब जेल से ही शुक्ल जी ने अपने बड़े भाई को कविता में पत्र लिखा-
धैर्य धरो जेलर ससुर की
सुता के साथ
चंद दिन में ही तो स्वराज
लिए आते हैं|
सन 1925 से पहले ही
शुक्ल जी अपनी कविताई के लिए विख्यात हो चुके थे|इसी वर्ष लिखी उनकी कविता कोटि
कोटि जन मानस के लिए जागरण गीत साबित हुई | ‘उठ जाग मुसाफिर’ शीर्षक जागरण गीत भी
उन्ही का लिखा हुआ है जो महात्मा गांधी जी की प्रार्थना सभा में,प्रभात फेरियों
में और जेल में बंद हजारों स्वतंत्रता
संग्राम के सेनानियों द्वारा प्रतिदिन गाया जाता था | स्वाभाविक है कि सन 1925 में
लिखे इस गीत से ही शुक्ल जी का साहित्यकारों में मान सम्मान भी बहुत बढ़ गया था-
उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई
अब रैन कहा जो सोवत है
जो सोवत है सो खोवत है
जो जागत है सो पावत है
उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई
अब रैन कहा जो सोवत है
तू नींद से अंखियां खोल जरा
पल अपने प्रभु से ध्यान लगा
यह प्रीति करन की रीति नही
जग जागत है तू सोवत है
तू जाग जगत की देख उडन,
जग जागा तेरे बंद नयन
यह जन जाग्रति की बेला है
तू नींद की गठरी ढोवत है
लडना वीरों का पेशा है
इसमे कुछ भी न अंदेशा है
तू किस गफ़लत में पडा पडा
आलस में जीवन खोवत है
है आज़ादी ही लक्ष्य तेरा
उसमें अब देर लगा न जरा
जब सारी दुनियां जाग उठी
तू सिर खुजलावत रोवत है|
अब रैन कहा जो सोवत है
जो सोवत है सो खोवत है
जो जागत है सो पावत है
उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई
अब रैन कहा जो सोवत है
तू नींद से अंखियां खोल जरा
पल अपने प्रभु से ध्यान लगा
यह प्रीति करन की रीति नही
जग जागत है तू सोवत है
तू जाग जगत की देख उडन,
जग जागा तेरे बंद नयन
यह जन जाग्रति की बेला है
तू नींद की गठरी ढोवत है
लडना वीरों का पेशा है
इसमे कुछ भी न अंदेशा है
तू किस गफ़लत में पडा पडा
आलस में जीवन खोवत है
है आज़ादी ही लक्ष्य तेरा
उसमें अब देर लगा न जरा
जब सारी दुनियां जाग उठी
तू सिर खुजलावत रोवत है|
दूसरी ओर सन 1930
में लिखा शुक्ल जी का निम्नलिखित गीत कैप्टन रामसिंह द्वारा किये गए अपेक्षित
परिवर्तनों के बाद सुभाष चन्द्र बोस जी की आजाद हिन्द फ़ौज का मार्चिंग सांग बना “ कदम-कदम बढायें जा खुशी के गीत गाये जा ” जैसी कालजयी रचना का सृजन करने वाले वंशीधर
शुक्ल हैं। हालाकि बाद में इसी मुखड़े को लेकर एक गीत कैप्टन रामसिंह द्वारा आजाद
हिन्द फ़ौज के लिए भी लिखा गया था|इन दोनों गीतों में मुखड़ा तो एक ही है लेकिन बीच
के अंतरे अलग अलग हैं| बाद में आजाद हिन्द फ़ौज का यही मार्चिंग सांग बना| -
क़दम क़दम बढाए जा
ख़ुशी के गीत गाए जा
ये ज़िन्दगी है क़ौम की
तू क़ौम पर लुटाए जा ।
उड़ी तमिस्र रात है, जगा नया प्रभात है,
चली नई ज़मात है, मानो कोई बरात है,
समय है मुस्कराए जा
ख़ुशी के गीत गाए जा
ये ज़िन्दगी है क़ौम की
तू क़ौम पर लुटाए जा ।
जो आ पडे कोई विपत्ति मार के भगाएँगे,
जो आए मौत सामने तो दाँत तोड़ लाएँगे,
बहार की बहार में,
बहार ही लुटाए जा ।
ख़ुशी के गीत गाए जा
ये ज़िन्दगी है क़ौम की
तू क़ौम पर लुटाए जा ।
उड़ी तमिस्र रात है, जगा नया प्रभात है,
चली नई ज़मात है, मानो कोई बरात है,
समय है मुस्कराए जा
ख़ुशी के गीत गाए जा
ये ज़िन्दगी है क़ौम की
तू क़ौम पर लुटाए जा ।
जो आ पडे कोई विपत्ति मार के भगाएँगे,
जो आए मौत सामने तो दाँत तोड़ लाएँगे,
बहार की बहार में,
बहार ही लुटाए जा ।
ऐसी प्रखर राष्ट्रीय
रचनाशीलता वाले कवि वंशीधर शुक्ल जी का मान बढ़ता जा रहा था|देश में विभाजन की
दीवार उठने लगी थी| ऐसे बहुत कम कवि हुए हैं जिनकी कविताओं की व्याप्ति नरम दल
वाले गांधीवादी स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों और क्रांतिकारी गरमदल वाले
सेनानियों में सामान रूप से रही हो|कौमी गीत बहुत से लिखे गए लेकिन इस कौमीगीत की
बात ही कुछ और है| उनकी इन रचनाओं से यह प्रमाणित
होता है कि वंशीधर जी जनमानस की चेतना और मर्म व्यथा के क्रांतदृष्टा
राष्ट्रीय कवि हैं|इसी क्रम में जब देश का विभाजन होने की नौबत आयी तब भी शुक्ल जी
ने कविता लिखी-‘बनाओ मियाँ! न पाकिस्तान/देश हो जाएगा वीरान|’ नेहरू और रफ़ी अहमद
किदवई को भी शुक्ल जी कवितायें बहुत पसंद थी| उन्ही दिनों लिखा गया उनका चरखा गीत
भी बहुत प्रचलित हुआ था-
‘मोरे चरखे का न टूटे तार
,चरखवा चालू रहै |
दुलहा बनिके गांधी जी चलिबे
दुलहिन बनी सरकार
चरखवा चालू रहै |’
सन 1925 में शुक्ल जी ने
‘विचित्र सती’ शीर्षक कविता में दिल्ली के शहीद भाई बालमुकुन्द की पत्नी रामऋषी
देवी के बलिदान की काव्यात्मक कथा लिखी है|सन 1912 में चांदनी चौक, दिल्ली
में वायसराय लार्ड होर्डिंग पर हमला हुआ
था|उसकी सजा में मोरिस नगर के पास बालमुकुन्द,वसंत कुवर ,अमीरचंद, और अवधबिहारी
पकडे गए और इन्हें फांसी दी गयी थी| बाद में रामऋषी ने पति की याद में आत्मदाह करा लिया था| इसके अलावा भीखमपुर में जन्मे अमर शहीद
राजनारायण को लेकर लिखी गयी उनकी कविता बेहद मार्मिक ही नहीं ऐतिहासिक महत्त्व की
भी है|
ग्राम स्वराज और ग्रामीड़
भारत की अर्थव्यवस्था पर सही अर्थों में विचार करने वाला गांधी जी के सामन कोई
दूसरा नहीं हुआ| वंशीधर जी इसीलिए उन्हें अपना आदर्श मानते थे| जीवन भर उनके
सिद्धांतों पर चलने का कार्य भी उन्होंने किया|गांधी जी के देहांत के बाद पूरे देश
में जो एक शोक की लहर व्याप्त हुई उस पीड़ा को स्वर देते हुए वंशीधर जी कहते हैं-
हमरे देसवा की मँझरिया
ह्वैगै सूनि,
अकेले गाँधी बाबा के बिना।
कौनु डाटि के पेट लगावै, कौनु सुनावै बात नई,
कौनु बिपति माँ देय सहारा, कौनु चलावै राह नई,
को झँझा माँ डटै अकेले, बिना सस्त्र संग्राम करै,
को सब संकट बिथा झेलि, दुसमन का कामु तमाम करै।
सत्य अहिंसा की उजेरिया ह्वैगै सूनि,
अकेले गाँधी बाबा के बिना।
अकेले गाँधी बाबा के बिना।
कौनु डाटि के पेट लगावै, कौनु सुनावै बात नई,
कौनु बिपति माँ देय सहारा, कौनु चलावै राह नई,
को झँझा माँ डटै अकेले, बिना सस्त्र संग्राम करै,
को सब संकट बिथा झेलि, दुसमन का कामु तमाम करै।
सत्य अहिंसा की उजेरिया ह्वैगै सूनि,
अकेले गाँधी बाबा के बिना।
महात्मा गांधी उस
समय के भारत के जनमानस के एक मात्र निर्विवाद सबसे बड़े नेता थे|उस समय के
प्राय:सभी कवियों ने किसी न किसी रूप में महात्मा गांधी जी को अपनी कविताई का विषय
अवश्य बनाया| इस समय के कविसम्मेलनों में उनकी अनेक रचनायें बहुत प्रसिद्द हुई|उन
दिनों कविसम्मेलनों में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला,गयाप्रसाद शुक्ल सनेही ,हरिवंश
राय बच्चन ,गोपाल सिंह नेपाली ,बेधड़क बनारसी,श्यामनारायण पाण्डेय,जानकीवल्लभ
शास्त्री,बलबीर सिंह रंग,शिशुपाल सिंह शिशु,और अनूप शर्माजैसे कवि मंचपर अपनी
कविताओं से धूम मचा रहे थे| सन 1938 में उन्होंने कुछ समय केलिए पन्त जी के कहने पर आकाशवाणी में
नौकरी की लेकिन अग्रेजियत के वातारवण में मन न लगा और खिलाफत आन्दोलन के चलते वह
नौकरी भी छोड़ दी|
अपने समय के साथ
चलते हुए वंशीधर शुक्ल जी ने महात्मा गांधी के आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया ।
किसानी ही उनकी आजीविका का मुख्य साधन था|देश को
स्वतंत्रता मिलने के बाद वे उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी विधान सभा से 1952
से 1962 तक विधायक भी रहे। अपने परिवार को सुविधा संपन्न करना तो बहुत दूर
,विधायक रहने के बावजूद अपने जीते जी अपना
पक्का घर भी न बनवा सके|उनकी चेतना में व्यक्तिगत सुविधा जैसा विचार ही न था | जीवन
बिल्कुल खुली किताब जैसा था|लेकिन लगातार किसानों की उपेक्षा और कांगेस में दलीय विचलन
के कारण उन्होंने राजनीति में आगे सक्रिय रहने का विचार त्याग दिया,लेकिन उनका
लेखन चलता रहा| वो समझ चुके थे कि ये वो कांगेस नहीं है,जो साम्राज्यवादी ताकतों
से लड़ने के लिए संगठित हुई थी स्वतंत्रता के बाद जिसे महात्मा गांधी भंग करने की
बात कर रहे थे | शुक्ल जी गांधीवादी नेता सामाजिक कार्यकर्ता और कवि के रूप में
स्वतंत्रता आन्दोलन से ही विख्यात हो चुके थे|जब वे अपने समाज की दयनीय दशा देखकर
आक्रोश से भर जाते हैं तभी लिखते हैं-
ईंट किसानन के हाड़न की/लगा
खून का गारा
पाथर अस जियरा किसान का
/चमक आंख का तारा
लगी देस भगतन की
चरबी/चिकनाई जुलमन की
घंटा ठनकइ अन्यायिन का/कथा होय पापन की |
जहां बसै ऊ जम का भैया/खाय
खून की रोटी
हुवै बनी बूचड़खाना असि यह
राजा की कोठी|
तात्पर्य यह कि
सामंतो और राजाओं की कोठियों की दीवारों में किसानों हड्डियां ईटों की तरह उनके
खून के गारे से चिपकायी गयी हैं|उनमें जड़े
पत्थर वास्तव में किसानो का दिल है| उनकी चमक वास्तव में किसानों की आँखों
की चमक है| सामंतों ने किसानों और मजदूरों को धोखा देकर उन्हें हसीन सपने दिखाने
का ही काम सदियों से किया है| उन्हें ये राजाओं और सामंतों की कोठियां वास्तव में
बूचड़खाने जैसी दिखाई देती हैं|शुक्ल जी के सामने देखते ही देखते नेता सामंतों से
मिलकर किसानों और गरीब जनता को लूटने का काम करने लगे तब ऐसी दशा में उनका
कांग्रेस से विमुख होजाना स्वाभाविक ही था| सन 1961 में उन्होंने नेहरू को चेतावनी देते हुए कविता
लिखी थी जो इस प्रकार है-
ओ शासक नेहरू!
सावधान/पलटो नौकरशाही विधान
अन्यथा पलट देगा
तुमको/मजदूर वीर योद्धा किसान |
शुक्ल जी की रचनावली
बहुत बाद में डॉ.श्यामसुंदर मिश्र मधुप जी के कुशल संपादन में और उनके सुपुत्र
सत्यधर शुक्ल के सहयोग से वर्ष 2003 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा
प्रकाशित हुई| सत्यधर जी यशस्वी पिता की लीक को आगे बढाते हुए अवधी और हिन्दी में लगातार लिख रहे हैं|वंशीधर जी का देहांत
वर्ष 1980 में हो चुका था|हालाकिं उनके जीवन काल में ही लखनऊ सहित अनेक
विश्वविद्यालयों में उनकी कवितायेँ पाठ्यक्रम में शामिल की जा चुकी थीं| तथापि यह
कहा जा सकता है कि वंशीधर जी को लेकर जिस प्रकार से हिन्दी और अवधी वालों को काम
करना चाहिए था वह नहीं हो सका|अवध के किसानों की बेहतरी की चिंता न तो अवध के
सामाजिक कार्यकर्ताओं में दिखाई देती है न अवध के हिन्दी के साहित्यकारों में|यही
कारण है की आज भी जब हम जनकवि वंशीधर जी की कविताओं को पढ़ते हैं तो आज भी वे उतने
ही प्रासंगिक जान पड़ते हैं|उनका रचना संसार वर्ष 1925 से लेकर 1980 तक फैला हुआ
है| किसान की जिन्दगी कैसे बीतती है एक अंश देखिये-
बड़े सबेरे ते हरु नाधई
,जोतइ ,बवइ ,मयावइ
फिरि खारा,खुरपा हंसिया लै
चारा घासइ जावइ
दुपहरिया मा चारि पनेथी
,बड़की लोटिया पानी
कबऊ चबेना ,मट्ठा ,सरबत
,अइसइ गइ जिंदगानी |
शुक्ल जी हमारे समय
के बड़े किसानवादी और ग्राम्य स्वराज की चेतना वाले जनकवि हैं| किसान चेतना को
मार्मिकता से व्याख्यायित करने वाली उनकी प्रमुख कवितायें-किसान
बंदना,खेतिहर,किसान की अर्जी,गाँव की दुनिया,ग्रामीण मजदूर, किसान की दुनिया,चौमासा,हुवां
कस कस होई निरबाह ,लूक,राजा की कोठी,राम मडैया ,अछूत की
होरी,चरवाहा,हरवाहा,बेगारि,भुखमरी,कचेहरी,अम्मा रोटी,धन्य गाय के पूत,पंछिन की
आह,बिरवन की बतकही,बनिजरवा,बहिया,कन्या की इच्छा,पाथर बरखा,जंगल की दुनिया,मीलन की
दुनिया आदि हैं | ये अनेक सामाजिक
सरोकारों वाली कवितायें उनके किसान मजदूरों के पक्ष में सदैव खड़े रहने की गवाही
देती हैं|उनकी कविताओं में एक तो राष्ट्रवादी चेतना है और दूसरा स्वर गरीब किसान
मजदूर की विवशता से जुडी जनचेतना है | किसानों मजदूरों के जीवन को व्याख्यायित
करने वाली कवितायें कवि के समय को और उसके समाज समझने के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं|
ग्राम्य प्रकृति के अनमोल चित्र तो स्वाभाविक रूप से शुक्ल जी की कविताई का अलंकार
हैं ही शुक्ल जी का जीवंत मनोरम प्रभातचित्रण देखिये-
सविता उवै जोंधैया
अथवइ चलइ मंद पुरवइया
कोइली कों कों कुतवा
पों पों चों चों करइ चिरइया
बर्ध दुवौ पागुर मा
लागे गाय पल्हानि हुंकारइ
टटिया फारे बछरा
झांकइ रहि रहि मूडु निकारइ
टेंटे पर लरिका का
दाबे मेहरी द्वार बहारइ
बड़का लरिका गेंदु बनाये सूखे ब्याल उछारइ|
पारिवारिक समस्याओं और अभावों के चलते यद्यपि
शुक्ल जी की पारंपरिक शिक्षा आठवीं तक ही हो सकी लेकिन स्वाध्याय से उन्होंने हिन्दी,संस्कृत,उर्दू
अंगरेजी आदि भाषाए सीखीं थी|ख़ास बात यह कि उनकी शिक्षा जीवन और किसानी की
बारीकियों को समझने में संपन्न हुई| उन्होंने किसानों की दुनिया और उनके समाज को
जानने समझने में ही अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया| दूसरी ओर उन्होंने जीवन और
प्रकृति के व्यवहार को जानने और परखने में भी कोई कसर नहीं छोडी| अपने समाज को
पढ़ने लिखने और सभ्य बनाने की प्रेरणा वे लगातार अपनी कारयित्री और भावयित्री
क्षमता से देते रहे|मंहगाई पर लिखी उनकी कविता का अंश देखिये-
हमका चूसि रही मंहगाई।
रुपया रोजु मजूरी पाई, प्रानी पाँच जियाई,
पाँच सेर का खरचु ठौर पर, सेर भरे माँ खाई।
सरकारी कंट्रोलित गल्ला हम ना ढूँढे पाई,
छा दुपहरी खराबु करी तब कहूँ किलो भर पाई।
हमका चूसि रही मंहगाई।
रुपया रोजु मजूरी पाई, प्रानी पाँच जियाई,
पाँच सेर का खरचु ठौर पर, सेर भरे माँ खाई।
सरकारी कंट्रोलित गल्ला हम ना ढूँढे पाई,
छा दुपहरी खराबु करी तब कहूँ किलो भर पाई।
हमका चूसि रही मंहगाई।
सरकारी कंट्रोल से
मिलने वाले अनाज से गरीब मजदूर और कम जोत वाले किसान का आज भी पेट नहीं भरता|सत्तर के दशक में जब एक रुपया
रोज की मजदूरी मिलती थी तब भी ऐसी ही दशा थी सरकारी खाद्यान्न वितरण नीतियों की
आलोचना करते हुए शुक्ल जी बताते हैं कि सरकारी गल्ला कैसे गायब हो जाता है|गरीब को
छ सात दिन लाइन लगाने के बाद भी पूरा अनाज नहीं मिला पाता|
गाँव में दलितों के
जीवन में आज भी बहुत परिवर्तन नहीं हुआ है|पराधीन भारत में यह दशा और भी हृदयविदारक
थी|अछूत समझे जाने वाले हमारे समाज के निम्न जातियों वाले मनुष्यों के साथ पशुओं
से भी बदतर व्यवहार हमारे ही सवर्ण मानसिकता वाले आस पड़ोस के लोग कर रहे थे| ऐसी
घृणा की मानसिकता का चित्र शुक्ल जी
‘अछूत की होली’ शीर्षक कविता में अभावग्रस्त
दलित मन की व्यथा के साथ रेखांकित करते
है-
हमैं यह होरिउ झुरसावइ।
खेत बनिज ना गोरू गैया ना घर दूध न पूत।
मड़ई परी गाँव के बाहर, सब जन कहैं अछूत॥
द्वार कोई झँकइउ ना आवइ।
खेत बनिज ना गोरू गैया ना घर दूध न पूत।
मड़ई परी गाँव के बाहर, सब जन कहैं अछूत॥
द्वार कोई झँकइउ ना आवइ।
शुक्ल
जी किसान जीवन जीने के कारण किसानो के पक्षकार के रूप में अपनी स्वाभाविक भूमिका
निभाते हुए आगे बढ़ाते हैं|यह साफ़ करते हुए चलते हैं कि किसान की रोटी छीनकर खाने
वाले हजारों ठग हैं|निम्न कविता में देखिये-
यक किसान की रोटी,जेहिमाँ परिगइ तुक्का बोटी
भैया!लागे हैं हजारउँ ठगहार।
हँइ सामराज्य स्वान से देखउ बैठे घींच दबाये हइँ
पूँजीवाद बिलार पेट पर पंजा खूब जमाये हइँ।
गीध बने हइँ दुकन्दार सब डार ते घात लगाये हइँ
मारि झपट्टा मुफतखोर सब चौगिरदा घतियाये हइँ।
भैया!लागे हैं हजारउँ ठगहार।
हँइ सामराज्य स्वान से देखउ बैठे घींच दबाये हइँ
पूँजीवाद बिलार पेट पर पंजा खूब जमाये हइँ।
गीध बने हइँ दुकन्दार सब डार ते घात लगाये हइँ
मारि झपट्टा मुफतखोर सब चौगिरदा घतियाये हइँ।
तात्पर्य यह कि कठिन
परिश्रम से कमाई गयी किसान की एक रोटी पर भी साम्राज्यवादी कुत्ते गरदन झुकाकर नजर
गडाए बैठे हैं|,पूंजीवादी बिल्लियाँ,गीध जैसे दुकानदार और मुफतखोर सब घात लगाए
बैठे हैं|आज देश की स्वतंत्रता के सात दशकों के बाद भी हमारे समाज में किसानों की
दशा लगभग उनके समय जैसी ही है, कुछ तकनीकी औजारों और वैज्ञानिक विकास की किंचित प्रगति
के अतिरिक्त कोई ख़ास परिवर्तन किसान की दुनिया में नहीं हुआ है|वह आज भी भूखा
है,कर्जदार है और आत्महत्या के लिए विवश है|शहरीकरण तो उलटे सीधे ढंग से बढ़ा है
किन्तु गाँवों का सर्वनाश हुआ है| सत्तर के दशक में लिखी अपनी कविता के माध्यम से
शुक्ल जी पूछते है-
रोय रहे सब भारतवासी,हाय
देसा का को विश्वासी
कृषक श्रमिक विद्यार्थी
तड़पें बढ़ी लूट अफसर ऐयासी
नौकरसाही का थनु
पकरे लटकि रही सरकार
देस का को है
जिम्मेदार |
चौराहे पर ठाढ किसनऊ
ताकै चारिव वार||
नौकरशाहों की नीतियों के समक्ष बौना महसूस करती हमारी
सरकारें आज तक किसानों के साथ न्याय नहीं कर सकी हैं|कृषियोग्य भूमि का दुरुपयोग
लगातार कस्बों और शहरों के निकट की जमीनों पर किया गया और लगातार जारी है|किसान को
कभी अपनी उपज का वाजिब मूल्य सरकारों ने नहीं दिया| बैंकों के अलावा महाजनों के
चंगुल में आज भी किसान फंसा हुआ है|आज जिस शहरीकरण की ओर लगातार हमारा समाज बढ़ा है
उसके पतित जीवन मूल्यों और रहन सहन की बात शुक्ल जी ने वर्ष 1935 में लिखी ‘हुवां
कस कस होई निरबाह ’शीर्षक कविता में बखूबी की है|कविता का अंतिम अंश देखिये-
जहां की दुनियइ
छायाबाद,भेखु भाखा बखरी ब्यउहारु
पेट मा कपट बात मा दगा जीभ
मा झूंठ ओठ मा प्यारु |
आँखि मा नसा चित्त मा छोभु
,देह मा रोग रूपु सुकुमार
दउसु भरी काटइ सबके प्याट
,यहै बइपारु लच्छ ब्यभिचार|
जहां पर कहइ चोर का साह/ हुवां कस कस होई निरबाह |
कहने को बहुत कुछ कहा जा
सकता है,परन्तु अब तक कुछ चंद हिन्दी के लोगों ने ही उनकी रचनाशीलता को रेखांकित
भी किया है|सबसे पहले मेरे गुरुवर प्रो.हरिकृष्ण अवस्थी जी ने लखनऊ विश्वविद्यालय के
पाठ्यक्रम में उनकी कविताओं को पाठ्य विषय के रूप में वर्षं 1977 में सम्मिलित
किया |इस प्रकार बाद में अनेक विश्वविद्यालयों में उनकी कविताएँ पढाई जाने लगीं|
लेकिन उनकी रचनाशीलता पर समग्र कार्य वर्ष2003 में डॉ.श्यामसुंदर मिश्र मधुप जी के
संपादन में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान से प्रकाशित उनकी रचनावली के रूप में
आया|इस सबके बावजूद विडम्बना देखिये की अवध से इतर प्रदेशों के रचनाकारों और
हिन्दी के विद्वानों ने ऐसे महत्वपूर्ण कवि को लेकर कोई पाठचर्या की व्यवस्था नहीं
बनाई| उन्हें केवल अवधी के रचनाकार के रूप में सीमित कर दिया गया|मधुप जी के
शब्दों में वे अवधी रचनाशीलता के सम्राट हैं| आधुनिक अवधी रचनाकारों की त्रयी की
बात करें तो उनमे तीन किसानवादी जनकवि मिलते हैं जिनमें सर्वश्री बलभद्रप्रसाद
दीक्षित पढीस ,वंशीधर शुक्ल,और रमई काका का नाम उल्लेखनीय है|इन तीनों ने महाकाव्य
या खंडकाव्य भले ही न लिखा हो किन्तु अवध के ग्राम्य जीवन के मार्मिक प्रसंगों को
गहराई से व्याख्यायित किया है|यदि वंशीधर शुक्ल जी की अवधी सेवा की बात की जाए तो
शुक्ल जी ने पढीस जी या रमई काका की अपेक्षा बहुत अधिक कार्य किया है| ये सब अपने समाज के जनकवि हैं| शुक्ल जी अपने समाज के
नेता भी बने और जब कांगेरस से निराश हुए तो राजनीति से संन्यास ले लिया|वंशीधर जी
का स्वर अपनी कौम और सामाजिक दुनिया के लिए एकदम साफ़ है|वे निराला की तरह अकुतोभय
रचनाकार हैं|
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