सोमवार, 18 मई 2020

समकालीन किहानी का चरित्तर रचती कहानियाँ


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समीक्षक-डॉ  गंगाप्रसाद गुणशेखर 

पुस्तक समीक्षा 
 समीक्ष्य पुस्तक का नाम-कथा किहानी
(अवधी कथा जगत की ऐतिहासिक परिघटना)
प्रकाशक-परिकल्पना  प्रकाशन
प्रकाशन वर्ष-2019
मूल्य-रु 475/-हार्ड बाउंड संस्करण
पृष्ठ-191
संपादक-डॉ भारतेंदु मिश्र



समकालीन किहानी का चरित्तर रचती कहानियाँ

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डॉक्टर भारतेंदु मिश्र द्वारा संपादित 'कथा किहानी' समकालीन अवधी कहानियों का एक सुंदर और आकर्षक संग्रह है। इसमें परंपरा के अंतर्गत कुल छह कहानियां हैं और 'कथा कहानी'के अंतर्गत कुल इक्कीस कहानियां। इसमें दो बाल कहानियां भी संकलित हैं। तीन खंडों में विभक्त इस संग्रह में 'छोट के चोर','चमार भाई', 'गांव की जिंदगी', 'जगराना बुआ', 'सुनीता'और 'देशकाल'जैसी कहानियां हैं।इनके कहानीकारों के नाम हैं श्रीमती मोहिनी चमारिन, बलभद्र प्रसाद दीक्षित 'पढ़ीस,' वंशीधर शुक्ल, रमई काका,लक्ष्मण प्रसाद मित्र और त्रिलोचन शास्त्री।परंपरा खंड में रखी गई इन कहानियों की अपनी विशेषता यही है कि ये अवधी कहानियों के लिए एक सुंदर और सरस पृष्ठभूमि तैयार करती हैं।अगला खंड 'कथा किहानी' खंड है। इस खंड की कहानियों के शीर्षक हैं 'फुलबासा की पंचायत',' बड़की माई,' तिरिया चरित्तर',' लड्डू गोपाल',' बहू होए तो अस', 'बाबाजी,' 'असली मंसा',श्रवन के जुबानी',' डिप्टी साहेब', 'तिरबेनी केरि बहुरिया',' मुंदरी बिटिया,''मुआवजा', 'दाखिल खारिज','जमीन का टुकड़ा',' मरजादा',' बिटिया',' प्यास','दांव', 'ओझा काका',' लल्ला नआवा',मातरी भासा।इन कहानियों के कहानीकार हैं क्रमश:सत्य धर शुक्ल, जयसिंह व्यथित, शिवमूर्ति,विद्या बिन्दु सिंह, मोहम्मद अखलाक, रामबहादुर मिश्र,सुरेश प्रकाश शुक्ल, विनय दास, ओम प्रकाश 'जयंत', सूर्य प्रसाद शर्मा 'निशिहर,' चंद्रप्रकाश पान्डे, ज्ञानवती दीक्षित, भारतेंदु मिश्र, रश्मि शील,सुनील कुमार वाजपेयी, कृष्णमणि चतुर्वेदी 'मैत्रेय', गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर,'अजय 'प्रधान', सचिन पांडेय 'नीरज,'अंजू त्रिपाठी और अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी आदि। 
तीसरे खंड में बाल कहानियां हैं।इस खंड में केवल दो ही कहानियां संकलित हैं जिनमें पहली कहानी है 'खड़हर के वहि पार',और दूसरी कहानी है 'घुमंतू' इनके कहानीकार हैं क्रमशः आद्या प्रसाद सिंह 'प्रदीप' और अशोक अज्ञानी। 
इन कहानियों के संपादक डॉ भारतेंदु मिश्र समकालीन अवधी ( गद्य और पद्य दोनों में रची जा रही)की कविता और कहानी जैसी विधाओं में सक्रिय ही नहीं अपितु वह इनके पुरस्कर्ताओं में से एक हैं। सबसे पहले उस पत्रिका का उल्लेख करना ज़रूरी है जिसने अवध अंचल में हलचल पैदा की थी। अपनी उपस्थिति से अवधी के रचनाकारों को जगाया ही नहीं उनको सर्जन के क्षेत्र में अग्रसर भी किया था। इस 'बिरवा'पर न जाने कितनी नई चिड़िया आकर बैठी थीं और उन्होंने अपने स्थाई घोसले भी यहां बनाए थे।उनकी पहचान भी बनी थी। इस 'बिरवा' को पौधे से एक लहराता हुआ हरा-भरा वृक्ष बनाने में महती भूमिका निभाने वाली त्रिवेणी में डॉक्टर सुशील सिद्धार्थ,डॉ भारतेंदु मिश्र और डॉ रामबहादुर मिश्र अपने योगदान के लिए सदा सर्वदा के लिए याद किए जाएंगे। इसके बाद राम कृष्ण सन्तोष सक्रिय रूप से इस पत्रिका से जुड़े।लखनऊ में रोपा गया यह बिरवा धीरे -धीरे इतना विशाल हुआ कि इसकी छाया बिसवाँ महमूदाबाद होते हुए यह समूचे अवध अंचल में फैल गयी।कुछ दिनों के लिए ही सहीअवधी गद्य के लिए यह 'बिरवा' एक स्थायी अड्डा ही बन गया था।इस अड्डे के डॉक्टर सुशील सिद्धार्थ और राम कृष्ण सन्तोष अब हमारे बीच में नहीं हैं लेकिन उनका रचनात्मक अवदान अब भी अवधी को कृतकृत्य कर रहा है। इसके साथ-साथ अवधी में ब्लॉग लेखन में 'चिरैया' का योगदान भी उल्लेखनीय है। डॉ भारतेंदु मिश्र के अवधी के विकास के इन प्रयासों ने गद्य और पद्य दोनों को बराबर समृद्ध किया है।
इन अवदानों के साथ-साथ डॉक्टर भारतेंदु मिश्र का अवधी कहानियों के संपादन का यह प्रयास अभिनव इस अर्थ में है कि इन्होंने न केवल अवधी की कहानियों का संकलन करके अवध अंचल के निवासियों को मनोरंजन और संदेश का एक साधन मुहैया कराया है अपितु उनके लिए सृजन का एक और द्वार खोल दिया है।
सुप्रसिद्ध आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने अवधी गद्य के स्रोत 'उक्ति व्यक्ति प्रकरण' में खोजे हैं और इस तरह अवधी भाषा का आरंभिक काल उन्होंने 12वीं शताब्दी को माना है। कोई संदेह नहीं है कि अवधी भाषा का आरंभ काल 12 वीं सदी ही है लेकिन गद्य का यह रूप आगे चलकर देखने को नहीं मिलता क्योंकि वाचिक परंपरा में स्मृति के लिए गद्य की अपेक्षा पद्य ही सुविधाजनक था।इसलिए साहित्यिक अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम कविता ही रही।लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि अवधी गद्य प्रचलन में था ही नहीं। वह समाज में भरपूर मात्रा में था। वह पारस्परिक बोलचाल की भाषा का (कभी रसात्मक तो कभी रूखा) व्यावहारिक रूप बराबर बना रहा। 
यहाँ यह उल्लेख भीअनुचित न होगा कि डॉ भारतेंदु मिश्र की संपादकीय दृष्टि बहुत प्रखर है।इसीलिए वे परंपरा खंड में पहली कहानी के रूप में मोहिनी द्वारा लिखित 'छोटे के चोर' को स्थान देते हैं। इसका स्पष्ट संकेत यह है कि आधुनिक अवधी गद्य के विकास क्रम में अन्य विद्वानों की भांति वह भी इसे अवधी की पहली कहानी मानते हैं।इस खंड की दूसरी कहानी चमार भाई को अवधी की कहानी कहने में मुझे थोड़ा संकोच होता है। इसे हिंदी कहानी के रूप में स्वीकार करने पर एक संकट यह खड़ा हो सकता है कि जितनी भी कहानियों में इक्का-दुक्का संवाद आए हैं वे भी इसके लिए दावा करने लगेंगे कि उनकी कहानियां भी अवधी कहानियां हैं। इसके अलावा बहुत सारे हिंदी के उपन्यासों में अवधी के प्रचुर प्रयोग मिलते हैं उन्हें भी इनमें शामिल करने का आग्रह किया जाने लगेगा।लेकिन इन सब प्रयोगों से यह सिद्ध होता है कि जिस समय और जैसे खड़ी बोली कविता के क्षेत्र में ब्रज और अवधी से संघर्ष कर रही थी।ठीक उसी समय और वैसे ही अवधी अपने गद्य के विकास क्रम में आज की मानक हिंदी (खड़ी बोली) से संघर्ष कर रही थी।इस दृष्टि से इस कहानी को संग्रह में रखा जाना सोद्देश्य ही माना जाना चाहिए।ठीक यही बात त्रिलोचन शास्त्री की कहानी 'देश काल'पर भी लागू होती है।लेकिन इन दोनों कहानियों में जो एक खास अंतर है वह यह है कि जहां पहली कहानी में अवधी के प्रयोग बहुत कम हैं वहीं दूसरी कहानी में खड़ी बोली की अपेक्षा अवधी के प्रयोग बहुतायत में हैं। इस तरह भाषा की दृष्टि से इस कहानी को अवधी कहानी कहने में मुझे कोई संकोच नहीं होता।शायद इसीलिए 'चमार भाई' कहानी के संदर्भ में संपादक का भी स्पष्ट मंतव्य है कि 'इस कहानी को पूर्ण रूप में अवधी की कहानी कहना उचित न होगा।' 
श्रीमती मोहनी की कहानी 'छोट के चोर' ब्रिटिश कालीन प्रशासनिक ढांचे की पोल खोलती कहानी है।गरीबी और बेकारी से ग्रस्त समाज की वेदना को स्वर देती यह कहानी अपने कथन और शिल्प दोनों में ध्यान आकृष्ट करती है। कहानीकार ने उस समय के दिखावे और प्रशासनिक ढांचे के अनावश्यक खर्चे पर द्वारका से कहलाया है कि, "परसों ही हियाँ हाकिमआए रहैं तौन उनकी खातिर तीन-चार दिन पहले से बहुत है खास खूँटा ऊँटा गाड़े जात रहैं।मैं सोचेउं कि कौनौ बड़ा जनावर होई तो अतने खूँटा माँ बांधा जात है नहीं भैंस गाय बेचारी तो एकै खूँटा माँ रहलीं।तौन बुवा मैं रास्ता में खेलत रहेउँ कि मनई कहिन भाग भाग हाकिम आवत है।सब कोनो इधर-उधर लुकाय लागे।"इस कहानी में इनाम पाने के लिए लल्लू का नकली चोर बनकर इनाम पाने के लिए जाना उस समय की दीनता और दरिद्रता की विडंबना को दर्शाता है।लल्लो इसलिए चोर बनता है कि जब वह चोर बन जाएगा तो उसके पकड़े जाने पर जो इनाम मिलेगा वह उसकी मां के इलाज में काम आएगा। जब डिप्टी साहब को इस यथार्थ का पता चला तो उन्होंने लल्लू से पूछा कि," हमै सब हाल मालूम होयगा है। तुम अब हमसे सब सच-सच कहो ।"इस रहस्य का भेद खुल जाने पर "लल्लू सब हाल बताए गए कि महतारी के दवा दरमत के खातिर ई सब भवा।" फिर क्या था,"मारे पियार के लल्लू का गोदी मा बैठाए के मुंह चूमेन की भगवान हमहूँ का ऐसे लड़का दिहेउ और कहेन कि बेटा तुम ऐसा काम किहेउ है कि तुम्हारे हस लड़का पाई के तोहार गरीब महतारी सातों मुलुक के राजा से भी बढ़कर अमीर है खजांची का हुकुम दिहिन कि ई लड़का का दुइ थैली रुपया और देव और सिपाही का साथ कई देव।" लल्लू रुपया लेकर हंसी खुशी घर पहुँचे।इससे द्वारका क राहत मिली। महतारी तो इतनी खुश हुई कि उसकी," जान में जान आई और ऐसा लगा कि "सांप के हेरान मनि मिलिगा होइ।"बिना दवा दरमत के आठ दिन में चंगी होइ गै।"
इनाम पाने के लिए चोर बनने की बात पर द्वारका और लल्लू के बीच जो संवाद होता है उससे यह पता चलता है कि गरीबी में भी उन दोनों के बचे हुए जीवन मूल्य हमारे समय और समाज के लिए बहुत मूल्यवान हैं।द्वारका लल्लू से कहता है जो तू ऐसा करेगा तो फिर मैं काहे ना चोर बनो तो इतना छोटा भला तोसे घर से बाहर जेलखाना मां कैसे रह जाई मा सारी तोरे बिना जीव दे देई।" इस पर लल्लू कहता है," नहीं भैया तुम हो तो कुछ काम काज कर के कुछ खरीद का लेइव आवत हो तो माता जी के कुछ सेवा टहल कर देत हो।मैं तो कुछऊ नहीं कर सकतेउँ।"भाषा की दृष्टि से इसे ठेठ अवधी का नमूना कह सकते हैं।
बलभद्र प्रसाद दीक्षित की कहानी 'चमार भाई' अपने अवधी संवादों के कारण इस संकलन में संग्रहीत की गई है। यह कहानी कई कारणों से इस संग्रह के लिए उपयोगी है। पहली बात तो यह भाषा के लिए उपयोगी है।दूसरी बात यह कि उस समय के समाज में व्याप्त छुआछूत को इस कहानी में प्रमुखता से स्वर दिया गया है।इसमें क्रांतिकारी बात यह है कि बलभद्र प्रसाद दीक्षित ने चमार भाई को जनेऊ पहनाया।यह जनेऊ उस समय के लिए किसी चमार के द्वारा पहना जाना क्रांतिकारी कदम था। इस कहानी में बार-बार आता है और जनेऊ जो पंडित जी पहनते हैं उन पर बदलू कहता है," मुदा द्याखा कि कहां तेजु चुआ परति है।भूखन मरत हैं। भीखौ तो नहीं मांगे आवति है। लरिका मेहरिया रोके न रुके ननिहार का भागि गे।"चमार भाई से इस तरह के कथन बुलवा कर बलभद्र दीक्षित कहना चाहते हैं कि जनेऊ हमारी मर्यादा का द्योतक नहीं है।जनेऊ हमारी गरिमा की भी पहचान नहीं है।इसीलिए वे उसकी निर्भरता और उपयोगिता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। बदलू कहते हैं कि ," काम किहे ते होत है।हम जूती में जू ना लगाई तो जनेऊ का कइ लेई।"कहानीकार कहना चाहता है कि जनेऊ के आडंबर के द्वारा अपनी अकर्मण्यता को ढकना अच्छा नहीं है। शायद यही कारण है कि बलभद्र दीक्षित अपने समय के काठियावाड़ी घोड़ों जैसे अड़ियल ब्राह्मण समाज से लोहा लेते हैं और अपने चमार भाई बदलू को जनेऊ पहनाते हैं।इस तरह से यह कहानी भाषा,चेतना और सामाजिक परिवर्तन की दृष्टि से क्रान्तिकारी कहानी है।
      वंशीधर शुक्ल की 'गांव की जिंदगी'कहानी भाषा की दृष्टि से विशुद्ध अवधी भाषा की कहानी है। इसमें अवधी भाषा का देसी सौंदर्य मौजूद है। इस कहानी एक साथ कई  मोर्चे गहे गए हैं।गांव में आए दिन के झगड़े किस तरह भाईचारे को मिटा रहे हैं।इसी की बानगी देती है यह कहानी।राम दइला की माता जी का यह कहना कि,"बाबा अस्पताल का ना ले जाओ ।---बिना दिहे लिहे डागदरु लगाइ देइ ज़हर की सुई तो हम कहां पाईब अपने अभागिन के लाल का।"हमें बताता है कि उस समय अस्पतालों में भी घोर भ्रष्टाचार था। भ्रष्टाचार के इसी नग्न रूप को दर्शाने के लिए यह कहानीकार ने चौकीदार से कहलाया है कि," बाबा हुआँ थाने मा पाँच रुपैया ले ले हैं तब रिपोर्ट लिखि हैं"अस्पताल के भीतर व्याप्त भ्रष्टाचार का एक यह दृश्य भी कि ,"डॉ का खबर हुई मलहम पटी हुई।डॉक्टर आए।चोटे लिखा जाइ लाग।"इस समय अस्पताल के कंपाउंडर और मेहतर ने कहा," इन्हें कुछ देव नज़राना तो लिखिहैं नहीं तो मुकदमा हलुकाइ जाए।"
गाँव का क्या है? यह कहीं सरग है तो कहीं नरक। बंशीधर शुक्ल गांव के उस यथार्थ को सामने लाते हैं। गांव में परस्पर राग- द्वेष और ईर्ष्या आदि मानव जीवन के भीतर जहर घोल रहे हैं। गांव का सरस, सरल और सहज जीवन विषैला हो चला है।भाषा के प्रयोगों की दृष्टि से यह कहानी एक मार्गदर्शक कहानी कही जा सकती है।परंपरा खंड के अंतर्गत वंशीधर शुक्ल की कहानी गांव की जिंदगी और अवधी भाषा दोनों की एक आदर्श कहानी कही जा सकती है।इसे भाषा के अध्ययन की सरलता की दृष्टि से प्रतिनिधि कहानी भी कह सकते हैं।विषय वस्तु पर गौर करें तो भी यह अपने समय और समाज की यथार्थ दशा का सच्चा चित्रण करने वाली कहानी है।समाज के हर वर्ग में व्याप्त भ्रष्टाचार को भी यहां अनावृत करने वाला नमक का दारोगा कहानी जैसा प्रगतिगामी ओजस्वी स्वर मिला है लेकिन वंशीधर जैसे चरित्र का अभाव है। कहानीकार ने बिना किसी लाग लपेट के युगसत्य को उद्घाटित करना अपना साहित्यिक धर्म समझा है। गांव के उस समय के जातिगत समीकरण को भी यह कहानी पूरी संवेदना के साथ समेटती है-"दूध गर्म करवायन।तीन चार जने रहेन।सबका एकु -एकु बड़कवा गिलासु पियायेन । वैसी महाराज बोलाई के पूरी बनावे का कह दिहा। वइसी उनकी तहकीकात होइ लागि। अब सहिजदऊ लापता। चौकीदार सिपाही सब ढूँढ़ईं मुला वहि का कहीं पता नहीं। उनके घर के बुलाए गे। कोई थानेदार के आगे कसमें खाई के कहें कि साहेब सही जगह आज कई उद्दीन के ससुरारी का गवाह है।वहिके सारे की सगाई है। थानेदार का रोटी खवावा और विदा किहा। अब तब से हमारे घर पर घोसी फेट बांधे हैं।" रिश्वत  की जनस्वीकृति  खतरनाक होती है   और  वह  स्थिति शुक्ल के गाँव समाज में है- "देखो चौधरी यह यहां तो कहते हैं लेकिन अदालत में एक नहीं कहेंगे इससे यही अच्छा है कि हम घोषणाओं से कुछ ले लेंगे मुकदमे में कुछ होगा नहीं।"भ्रष्टाचार की इस तरह खुली स्वीकारोक्ति चिंता की बात है।लेकिन दरोगा के लिए यह कोई चिंता की बात नहीं है वह इसे अपना धर्म समझता है।
कहानीकार वंशीधर को यही चिंता है कि दरोगा जिस तरह बिंदास होकर अपनी रिश्वत की बात को स्वीकार करता है वह देश,प्रशासन, समाज और व्यक्ति किसी के हित में तो नहीं है। इसी तरह वह जिस नए समाज की संरचना करना चाहता है वह बहुत कठिन दिखता है।वह एक ऐसा गाँव-समाज   चाहता है जिसमें भ्रष्टाचार न हो। गांव में सामाजिक एकता को खतरा न हो।समरसता हो तथा जातिगत भेदभाव न हो और इस तरह वह गांव की जिंदगी को एक आदर्श जिंदगी में परिवर्तित करना चाहता है। गांव के कड़वे होते जा रहे माहौल में अपार स्नेह व समरसता का रस घोलना चाहता है। 
दूसरे खंड 'कथा किहानी' की पहली कहानी है 'फुलबासा की पंचायत'।यह कहानी हमारे ग्रामीण समाज की कहानी है जिसमें बाल मनोविज्ञान तो है ही साथ में प्रौढ़ मनोविज्ञान को भी बड़े सलीके से अभिव्यक्ति मिली है।फुलबासा ग्रामीण समाज की वह प्रतिनिधि नारी चरित्र है जो अपनी नासमझी के कारण न केवल कलह पैदा करती है बल्कि अपनी ही संतान को बिगाड़ती भी है।इस तरह कहानीकार का मुख्य उद्देश्य है मनुष्य को मनुष्य न रहने देने पर तुले ईर्ष्या और वैमनस्य को सौमनस्य में बदलना। इसीलिए कहानीकार कहानी के अंत तक आते-आते फुलबासा से ही स्वीकार करवाता है कि,'माना हमरे लरिकइ केरि गलती है तो का अब वहिका सूली चढ़ाइ  देहउ। ककरी का चोर कटारिन मरिहउ।"
इस कहानी की सबसे बड़ी खासियत है ग्राम्य जीवन की सरलता। जैसे यहां बाल जीवन सहज और भोला है उसी तरह से प्रौढ़ जीवन भी सहजता और सरलता से भरा हुआ है।फुलबासा जो अपने बच्चे का पक्ष लेती है बाद में वह भी इस सत्य को स्वीकारती ही है कि बच्चे तो झगड़ते ही हैं। मटरू की शैतानी को फुलबासा भी जानती है लेकिन वह इस बात को पहले ढकती है फिर जब जानती है कि सत्य नही छिपेगा तो 'बच्चे तो शैतानी करते ही हैं।'जैसे जुमले के झाबे के नीचे उसे ढक कर इतिश्री कर लेना उचित समझती है।वह उसके पक्ष को गलत ढंग से प्रस्तुत ज़रूर करती है लेकिन जब उसकी सच्चाई सामने आ जाती है तो उसे स्वीकार करने में भी वह देर नहीं करती यही गांव और उसकी सहज जीìवन शैली का सत्य है। 
अगली सुबह वही बच्चे एक साथ खेलते हुए मिलते हैं जिनके लिए इतनी बड़ी पंचायत बैठी।इस तरह एक संदेश के साथ के साथ कहानी का अंत होता है कि कोई बच्चों की टुन्न-मुन्न के कारण अपना सामरस्य न बिगाड़े जो गाँवों की सबसे बड़ी समस्या है।कोर्ट कचहरी का कारण बनता रहता है।
    दूसरी कहानी है जय सिंह व्यथित की 'बड़की माई'।इसे कहानी की अपेक्षा लघुकथा कहना बेहतर होगा।यह लघुकथा अपनी संप्रेषणीयता में अप्रतिम है। इसको पढ़ते हुए अनायास ही सुदर्शन की कहानी हार की जीत याद आ गई। बड़की माई में बाबा भारती और जियावन में खड़क सिंह के चरित्र को पुनर्जीवित होते हुए देखा जा सकता है।लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं लिया जा सकता कि 'बड़की माई' 'हार की जीत' की अनुकृति है।बड़की माई का विश्वास आभिजात्य का विश्वास नहीं है जबकि बाबा भारती का है।जियावन की बेटी की शादी पर इज़्ज़त बचाने के लिए अपने नाती की अँगूठी दे देना और लौटाने के समय जियावन का यह कहना ,"केस अँगूठी बड़की माई!"सामान्य जनजीवन के बीच टूटते विश्वास का दर्द है।इस दृष्टि से यह कहानी अपने गठन और अभिव्यक्ति में पूरी तरह से मौलिक और अनूठी है।केवल यही नहीं और भी कई कहानियों का आकार इतना छोटा है कि प्रथम दृष्ट्या उन्हें लघुकथा ही कहा जाएगा।लेकिन केवल आकार के आधार पर कहानी और लघुकथा अलग-अलग करना उचित नहीं।संपादक का मन्तव्य भी इस भेद बुद्धि से परे है।

'बड़की माई'लघुकथा अपनी संवेदना की दृष्टि से बहुत ही मारक है।जियावन की इज्जत बचाने के लिए बड़की माई का अपने नाती की अंगूठी को देना और उसके बाद जियावन का उसे लौटाने से मुकर जाना गांव में शहरी सभ्यता के घुस जाने के अशुभ संकेत हैं। कथाकार इस मार्मिकता की ओर इंगित करना चाहता है। जयसिंह व्यथित ने इतने छोटे से कलेवर में एक बड़े संदेश को बहुत सुंदरता के साथ पिरोया है।
    'तिरिया चरित्तर' कहानी भाषा विभाषा के विवादों को भेदती हुई इस संग्रह की प्रतिनिधि कहानी के रूप में प्रतिष्ठित होती हुई मिलती है।यह हिंदी भाषा की एक उत्कृष्ट कहानी मानी जा सकती है।शिव मूर्ति का कथा शिल्प सभी को सम्मोहित करता रहा है।इनके संवाद गोली की तरह दनदनाते हुए निकलते हैं और फिर भीतर जाकर शब्द-शब्द अपने अर्थ की बारूदी गंध के साथ छर्रों जैसे फैल जाते हैं।ये शब्द छर्रे जैसे वेग के साथ धँसने की वज़ह से टीस भी पैदा करते हैं। अपने किसान पति के द्वारा अपने ऊपर संदेह किए जाने पर स्त्री का अपने पति से यह कहना,"तुहार कसम जो कोई दूसरे का सपनों में सोचा होए।" बात आगे बढ़ने पर पति के द्वारा यह कहना कि "तुम्हारा यह तिरिया चरित्तर हम जानत है।उस पर वह कहती है,"तिरिया चरित्तर करब तो तोहार होस गुम हुइ जाए। गोड़न पर फाटि परिहौ।पनाह मांगि लेहो। गोड़न पर गिरि के माफी न मांगो तो हम चमारिन नहीं।" पृष्ठ- 63 
इसके बाद स्त्री का खेत में मछली गाड़ आना और फिर खेत में जुताई करते समय किसान का मछली पाना और गांव में आकर स्त्री का मछली को पका कर खा जाना और फिर पति के द्वारा मछली मांगे जाने पर किसान की पत्नी के द्वारा हल्ला मचाना और गांव वालों के सामने यह सिद्ध करना कि उसका पति पागल हो गया है,कहानी में आद्योपांत उत्सुकता बनाए रखता है।यह उपकथा कहानी में एक नई कहानी का अंतरजाल बुनती हुई लगती है।किसान का गांव वालों से पत्नी को छोर से मारते- मारते खेत में मिली मछली का ज़िक्र करना और किसान की पत्नी के द्वारा गाँव वालों से यह प्रतिप्रश्न करना कि,"भैया सब जने खेती करत हौ।हर जोतत हौ।कबौ खेते म मछरी पायेव?फिर ई दाढिजार का कसक मिलिगै।"पृ 65
इस अकाट्य और प्रभावी तर्क ने गाँव वालों को किसान को पागल मानने को बाध्य कर दिया।यह इस कहानी की भाषा विदग्धता और स्त्री जाति की विवेकशीलता की सबसे बड़ी पहचान है।गाँव वाले जब किसान को पेड़ से बांध देते हैं तो वही स्त्री उसके पास जाती है और कहती है,"हारी मानो। तिरिया चरित्तर देख लीहो।"किसान उसके पैर पड़ता हौर उसका उत्तर किसान के मुँह से भी हाँ में आता है,"हां तिरिया चरित्तर देखि लीन, समझिउ गएन। इस पर वह मुस्कुरा कर कहती है,"ठीक है।" इस संवाद से कहानीकार का मन्तव्य पता चलता है कि वह स्त्री की जीत से अधिक यंत्रणा से उसकी मुक्ति के प्रति अधिक चिंतित है।इतने छोटे से संवाद से कहानी का अंत करना एक सधे हुए शिल्पकार की सबसे बड़ी खासियत है और यही उसकी सिद्धि भी है।
     विद्या बिन्दु सिंह की कहानी लड्डू गोपाल इस संग्रह की इकलौती लंबी कहानी कही जा सकती है।पूरे सत्रह पृष्ठों की इस कहानी में ग्रामीण समाज की आस्था श्रद्धा और उसके विश्वासों के साथ मठ मंदिरों के भीतर के सच को पूरी संवेदना के साथ रेखांकित किया गया है।घरों में एक बेटी का स्थान उसके साथ उसके भाई भौजाई का आचरण इसके अलावा और भी बहुत कुछ है इस कहानी में। पुजारिन गायत्री का अपने बचपन में पुजारी के द्वारा अपहरण किया जाना इसके बाद उसे अपनी मां को सौंप देना।लेकिन उसका एक दो बार रोने के अलावा अन्य कभी उसका न रुदन न पीड़ा समाज में लड़की की स्थिति को स्पष्ट करता है।उसे वहां भी कोई ऐसा सुख नहीं था जिसके लिए वह यहाँ बेचैन होती।इस कहानी का नतीजा यह दर्शाता है कि लड़की जात को अपने घर और समाज में क्या स्थान मिलता है। पुजारी अपनी मां को जब गायत्री को सौंप कर गया था तो जब वह रोने लगी तो पुजारी की मां उसको गोद में बिठाकर खुद भी रोती हुई उसे चुप कराने लगी। गायत्री स्वयं कहती है कि," माताजी हमैं कनिया में बैठाए के समझावे लागी और अपनों रोवे लागीं ---हमैं गुड़ डारि के दूध पिए का दिहिन अपने हाथ से खाना खियायीं और अपने साथ सोवाइ लिही।"पृष्ठ -67
पहले पुजारी का गायत्री के यह कहने पर कि वे उसके साथ विवाह कर लें। पुजारी का उससे विवाह करने से मना करना और बाद में एक रात उसके संयम का स्वत:भंग हो जाना यह सब दर्शाता है कि इस समाज में जो तथाकथित सच्चरित्रता है, संत वृत्ति है उसने समाज का कितना नुकसान किया है। उसी तथाकथित संत वृत्ति के कारण पुजारी गायत्री को अकेले छोड़कर रात में भाग जाता है। यह कहानी स्त्री के उस अनकहे और अंतहीन दर्द की कहानी है जिसे अगर कोई सुनता भी है तो उसे अनसुनी करके छोड़ देता है। इस तरह की न जाने कितनी पुजारिनें अभागिन बनकर समाज में जीती हैं, जिनके दुख दर्द को उनका खुद का पुजारी भी पूछने नहीं आता। जिस तरह वह एक बार पुजारी से छली जाती है वैसे ही वह दोबारा कुंदन के द्वारा भी छली और ठगी जाती है।गायत्री पुजारी को धोखा देने के कारण बदला लेना चाहती इसीलिए जिस कुंदन से विवाह करके पुजारी से बदला लेना चाहती है वही कुंदन उसे छल कर रफूचक्कर हो जाता है।इस तरह बचपन में जिस मूर्ति रूपी लड्डू गोपाल के लिए मोहित हुई थी गायत्री आज उसी पुरुष समाज के द्वारा जीवित लड्डू गोपाल उसे दिए गए  थे।वह उन्हीं की रक्षा में लग जाती है।यह कहानी इस ओर भी संकेत करती है कि बलात्कारी की संतान को भी जन्म देकर कोई मां उसे मार नहीं पाती है। स्त्री का यही सर्व सहा सुकुमार स्वभाव हमारे समाज को सरस और शीतल बनाता आ रहा है। 
यह कहानी जहाँ एक ओर स्त्री की विवशता को दर्शाती है वहीं उसमें संघर्ष की ताकत भी भरती है।यह कहानी एक और काम करती है कि पुरुष के अनावश्यक ब्रह्मचर्य और उसके ढोंग को भी अनावृत करती है।
अगली कहानी 'बहू होए तो अस' वृद्धों की सेवा का आदर्श रचती कहानी है।मूल्यों से जूझते समय के सबसे बड़े और ज़रूरी यानी वृद्ध विमर्श की भी कहानी है।'बाबाजी,' गाँव की उस असलियत की कहानी है जो इक्कीसवीं सदी ने किनारे कर दी है' फिर भी गाँवों में ईर्ष्या और वासना की मौज़ूदी के कारण वह बिल्कुल अर्थहीन नहीं हुई है।कालिका के काका लखन की'असली मंसा' उसे बिगाड़कर ज़मीन ज़रिया हड़पने की थी।कालिका को बिगाड़ने की लखन की कोशिश सफल रही।कालिका को शहर भगाकर फिर मरवा डालने की क्रूर वृत्ति गाँवों के भीतर जड़ें जमा रही स्वार्थ लोलुपता औरअसंवेदनशीलता से उपजे भयावह परिणाम को दर्शाता है।गाँवों का यह कटु यथार्थ चित्रित करने में कहानीकार सफल रहा है।'श्रवन के जुबानी', ग्रामीण भ्रष्टाचार की कथा है।यह कथा कही जाने से लेकर अब तक ज्यों की त्यों है।मिड डे मील का बंदरबांट किसी से छिपा नहीं है।श्रवन के व्यभिचार विरोधी विचारों ने गाँव में अनाचार प्रतिरोधक क्षमता बनाए रखी-"किसी न किसी नौजवान को तो यह बोझ उठाना ही था।"किसी गाँव में श्रवन का होना उस गाँव के लिये शुभ संकेत है।लेकिन इसके लिए कहानीकार चरित्रवान शिक्षकों की निर्मिति भी अनिवार्य मानता है। ' डिप्टी साहेब' लघुकथा हमारी लचर शिक्षा व्यस्था की कहानी है जिसकी गुणवत्ता अधिकारियों द्वारा मिठाई खाते हुए जाँच-परख ली जाती है।लेकिन ऐसा कोई तीव्र आवेग यहाँ नहीं है जैसा कि बड़की माई में है।इस तरह प्रभाव की दृष्टि से यह कमज़ोर पड़ जाती है जो लघुकथा के लिए किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। 'तिरबेनी केरि बहुरिया' कहानी अभिलेखों के साथ खिलवाड़ और उसके बल पर नौकरी हथियाने जैसे आपराधिक कृत्यों को अंजाम देने जैसे दुस्साहस को बेपर्दा करती कहानी है।इस अपराध में स्त्री का भी लिप्त होना समाज के लिये दुहरा अभिशाप है।हरदीन बर्मा और तिरबेनी का स्वार्थ टकराना और भ्रष्टाचार का भेद खुलना गाँव-शहर सबका यही चरित्र है।कहानीकार संकेतोँ से बताना चाहता है कि जिनका भेद खुल जाता है तो खुल जाता है नहीं तो न जाने कितनी नकली मनीसाएं देश को लूट रही हैं और तिरबेनी मूँछों पर ताव देते घूम रहे हैं ।' मुंदरी बिटिया' कोरोना काल के लिए अति प्रासंगिक लघुकथा है।स्वावलंबी गाँवों का परावलंबी हो जाना बापू के 'ग्राम स्वराज' वाले सपनों की अकाल मौत है।उसी के प्रेत ने गाँवों को जकड़ रखा हैजिसके कारण-"भूखे मरे कै नौबति आ गै।सब दिल्ली पन्जाबै मेहनत मजूरी कय रहे हैं। --गरीबी रारि बढ़ाई देति है।" आज वही मज़दूर जब घर लौट रहे हैं तो कहानीकार का पूर्वाभास उसे युगचेता बना देता है।यह युग चिंतन जिस साहित्यकार में जितना प्रखर और प्रासंगिक होता है वह उतना ही बड़ा साहित्यकार होता है।इस दृष्टि से बिना किसी खींचतान के चन्द्रप्रकाश पांडे का साहित्यिक कद बड़ा हो जाता है। 'मुआवजा' सामान्य रूप से राजनीतिक बदले की कहानी है।शिल्प की अपेक्षा आकार में लघुकथा है।भावावेश में एक ऐतिहासिक सत्य विस्मृत हो गया है कि सन् 35 के लखनऊ अधिवेशन में पंडित नेहरू कांग्रेस के प्रांतीय अध्यक्ष बने थे।लेकिन वे रहते लखनऊ में नहीं थे।रहते प्रयागराज(तब इलाहाबाद) में ही थे।इस तरह 'जहाँ नेहरू रहा करते थे' यानी कि वह 'आनन्द भवन' होगा जो कहानी के अनुसार आग के हवाले कर दिया गया जबकि वह इतिहास और वर्तमान दोनों में पूरी तरह से सुरक्षित है।लखनऊ का नवजीवन  वाला भवन भी यथावत है।ऐसे में  इसे आग लगाए जाने की बात को जनमानस स्वीकार ही नहीं करेगा।इस कारण से यह कहानी के प्रभाव को खंडित कर देता है।कहानीकार के द्वारा सीधे किसी के'आठ-नौ बच्चों' की बात कही जाने से लगता है कि उसमें दलित समाज के प्रति दुराव का भाव है।लेकिन ऐसा भाव उनमें शिक्षिका होने के नाते शिक्षा न लेने के आक्रोश वश है घृणा वश नहीं।'पब्लिक पुलिस के पुराने रिलेशन'जैसी बात कहकर भी वह अपनी इस तटस्थ दृष्टि का संकेत दे देती है।साथ ही इस कहानी में आए राजनीतिक बदले की भावना वाले सत्य को भी नकारा नहीं जा सकता।
'दाखिल खारिज' कहानी ज़मीन के साथ-साथ रिश्तों पर से भी अधिकार खारिज होने की कहानी है। मनोहर के भाई रमेसुर का अपनी भतीजियों की शादी के बदले उनके पिता यानी अपने ही भाई की ज़मीन हथिया लेने की वृत्ति का पर्दाफाश ही नहीं करती अपितु उससे उपजे मनोहर के भीतर के मोहभंग को भी उभारती है-"अब मनोहर खुद का कटी कनकैया तना बेघर महसूस करइ लाग रहैं।"मनोहर का घर परिवार से यह कटाव इतना भयावह है कि रिटायरमेंट के बाद उन्हें नन्दनगरी की मलिन बस्ती मंज़ूर है पर गाँव में रहना नहीं।कहानीकार की मुख्य चिंता गाँव का यही चरित्र है,जिसे वह उद्घाटित करके ही संतुष्ट नहीं हो जाता अपितु उसका प्रतिकार वह लाखों रुपए पाने वाले  मनोहर को शहर की मलिन बस्ती में ही बसाकर कर देता है। यह कहानी गाँव के चरित्र में सकारात्मक बदलाव की अपेक्षा की कहानी है।इसके प्रभाव के फलस्वरूप मनोहर के पारिवारिक प्रेम को महुवा में रूपांतरित होते देखा जा सकता है-"महुवा मनोहर की ज़िंदगी म जैसे जैसे दाखिल भय मनोहर की पुरान ज़िंदगी मानौ खारिज हुइगै रहै।अब मनोहर क महुवा क अलावा कुछ याद न रहै।" मनोहर की यह विस्मृति रमेसुर के लिए एक बड़ा सबक है।यहाँ भाषा भी अपने नवीन अर्थ सामर्थ्य के साथ अपना एक स्वाभाविक परिवेश रचती चलती है।इस अर्थ में यह कहानी अपनी भाषा, उद्देश्य और प्रभाव निर्मिति आदि में सफल कहानी है।
'जमीन क्यार टुकड़ा' प्रेमचंद की नमक का दारोगा या ईदगाह की परंपरा वाली विशुद्ध आदर्शवादी कहानी है।नफीसा का लल्लन के नाम ज़मीन का बयनामा करना और उनके न रहने पर उनके बेटे आबिद का लल्लन के विरोध की बजाय उसे घर भी लिख देना एक आदर्श उदाहरण बनता है।रश्मिशील मंजी हुई शिल्पकार की तरह कहानी के शिल्प को गढ़ती हैं।उसमें बाहर से नहीं भीतर से सौंदर्य उभारती हैं।इसमें उनकी सधी भाषा बहुत सहायक होती है। वे भाषा के साथ बहुत सहूलियत बरतती हैं-"ज़मीन के साथै यहि यहु घरौ तुमरे नामै करित हय ,जहिमा यहु घर गजगज न होइ जाइ।" गजगज जैसे आंचलिक प्रयोग कहानीकार के भाषिक सामर्थ्य और सूझ को प्रकट करते हैं।'मरजादा' कहानी पारिवारिक मर्यादा के टूटने से उपजी कहानी है।यद्यपि गाँव शहर कहीं भी यह मर्यादा भंग हो सकती है फिर भी यहाँ शहरी वातावरण भी इस भंगिमा में कुछ कम साझीदार नहीं है।उर्मिला के नाम मकान उसके जीवन में राजन की जगह रंजीत को ले आता है और उसका अंत उर्मिला की आत्महत्या से होता है।यह कहानी मूल्य बोध की कहानी है।इसका त्रासद अंत नसीहत के लिए है।इसका घटनाक्रम बहुत तेजी से विकसित होता है।इसलिए सूचनाएँ अधिक हो गई हैं जिससे इसका कहानीपन भीतर से दरका हुआ-सा दिखता है। 'बिटिया'
 कहानी समाज के भीतर बेटी की स्थिति का बयान करती हुई कहानी है।'तुम्हारे बिटिया भय की आवाज़ सुनकर सिहर जाने वाले ठाकुर विजय पाल अपनी जिस बेटी के जन्म पर दुखी हुए थे अंततः वही बेटी काम आती है और उनका बेटा जो शहर पढ़ने के लिए भेजा गया था उन्हें देखने के लिए बस एक दिन के लिए आता है और देखकर वापस भी चला जाता है। ठाकुर विजय पाल की मजबूरी पर भी बेटे को तरस नहीं आया उसने कहा," हम बंगलुरु से बिहान चलब पापा ।मुला दस दिन ना रुकि पाउब।ठाकुर भल भल कहेनि हमें अस्पताल दिखाइ द्या तब जा। संतोष ना माने ।ठाकुर भीतर ही भीतर रोइ दिहिन आज बिटिया न होती तो उनका एक बून पानी पहाड़ होइ जात।"ठाकुर विजय पाल के साथ हुई इस घटना के बाद नरेटर विचार करता है कि,"बिटिया में ममता होत है।दया होत है। मुल मनई उनका चिरई  की नाय पालि- पोसि  के कम से कम खर्चा मा बियाहि  दे थै। ठाकुर के मन में भाव जाग आज बेटवा रहै या नाय।-- वह ठीक भयेन टौ बिटिया क लइके तहसील गयेन और अपनी आधी जमीन विनीता के नाउ  बय्नामा कइ देहन।" ठाकुर जब यह सब कर आते हैं तब जो होना था वही हुआ कि,'संतोष का बहुत मकमक लाग।'
'पियास'कहानी में उस दलित मां की पीड़ा व्यक्त हुई है जो उसे पाल पोस कर बड़ा करती है लेकिन जब वह बड़ा हो जाता है तो वह उसे भूल जाता है। उसके भीतर भी सवर्णों जैसा अहं भाव आ जाता है।पैसे से समृद्ध हो जाने पर गरीब अमीर ऊंच-नीच कोई नहीं रह जाता।अब पैसा ही महत्वपूर्ण हो जाता है।धन और पद से ऊंचे हो चुके हर जाति और वर्ग के लोग आपस में बराबर हो जाते हैं।उनके लिए और सभी उनसे छोटे और वे सबसे ऊपर होते हैं। रामदेई चाहती है कि वह अपने पाले गए बेटे को एक डॉक्टर के रूप में देखे। उसके गले में आला हो।सफेद कोट पहने हो और इस तरह से वह अपने को गौरवान्वित होते हुए देखना चाहती है। उसकी इच्छा पूरी तो होती है लेकिन उसके साथ यह जीवन लीला भी पूरी हो जाती है।अपने ही पालित पुत्र से उपेक्षा मिलती है।जीवन का यह कटु सत्य उसे देखना पड़ता है।राम देई और प्रसादी जिसे पालते हैं उस बच्चे का नाम बिनय है और कर्जा लेकर गरीबी मज़दूरी में भी किसी तरह पैसे बचा-बचा उसे पढ़ाकर डॉक्टर बनाते हैं।लेकिन डॉक्टर बन जाने के बाद वही बिनय उसी मां-बाप को भूल जाता है जिन्होंने अपना सर्वस्व उसके कैरियर के लिए होम कर दिया था।
बिनय चाहता तो टी बी की मरीज़ रामदेई का अच्छी तरह से इलाज करा सकता था पर अपनी व्यस्तता या बीबी के दबाव में वह नहीं करा पाता।लेकिन इससे राम देई को कोई खास शिकायत नहीं है।रामदेई की बस इतनी सी आस (प्यास)है कि वह अपने बेटे के गले में आला देखें और सफेद कोट उसके शरीर पर।जब बिनय गले में आला डालकर उसके पास आता है तो मूर्च्छित पड़ी रामदेई को अचानक होश आ जाता है। इसतरह उसकी इच्छा पूरी होती है यानी उसकी जन्म भर की अतृप्त प्यास बुझ जाती है।यहाँ दलित विमर्श को नए कोण से देखने की कोशिश है।
'दाँव'कहानी मातादीन की बेटी चंपिया के भजन तिवारी के बेटे नयन के साथ भाग जाने की घटना से शुरू होती है। इसमें अवर्ण-सवर्ण की राजनीति से लेकर हर पैंतरा खेला जाता है।इस व्यक्ति प्रश्न को राजनीतिक मोड़ देकर वर्ग प्रतिष्ठा का प्रश्न बना दिया जाता है। जैसा कि अमूमन हर घटना में होता है। भूतपूर्व विधायक इस मामले में कूद पड़ते हैं और थाने का घेराव हो जाता है। इस कहानी में एक मोड़ आता है जब मातादीन की बेटी चंपिया वैष्णो देवी के रास्ते पर मिल जाती है और तिवारी भाग जाता है। विधायक उसे अपने घर ले आते हैं।इसके बाद इस कहानी में फिर एक नया मोड़ आता है।यह मोड़ विधायक के घर से शुरू होता है कि जो मातादीन की बेटी है वह विधायक के घर में रहती है।विधायक कहता है कि उसकी विदाई वह करेगा और अंत में वह यह दिखाता है कि इनका विवाह परस्पर सहमति से हुआ था इसलिए इसमें कानून भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता है और अंतत: विधायक उन दोनों का विवाह करा देता है। लेकिन यह विवाह तभी कराता है जब उसका उल्लू सीधा हो जाता है यानी इस मुद्दे के बल परचुनाव जीत जाता है। इस कहानी की भाषा और विशेष रूप से इसके संवाद इस कहानी को बहुत बेधक बना देते हैं।इसमें अद्भुत संप्रेषण शक्ति है।कहानी अपने में रुचि ही नहीं पैदा कराती बल्कि पाठक को अंततक बाँधे भी रखती है।'संवाद की दृष्टि से इस संग्रह की सबसे सशक्त कहानी कही जा सकती है।
'ओझा काका'अवधी लोक कथा की परंपरा को आगे बढ़ाती लघु कहानी है।यहाँ भी वही शैली और लोक कहन वाली लालित्य भरी कहन है।विशुद्ध मनोरंजन है।बीच-बीच में बारीक रेशे से बुनी ग्रामीण समस्याएं भी हैं और उनमें छिपे संदेश भी।
लल्ला नआवा'व मातरी भासा जैसी कहानियों के कहानीकार अंजू त्रिपाठी और अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी कहानी की भाषा को सीधे लोक जीवन से लेते हैं।भाषा का सहज सौंदर्य सिर्फ़ सम्मोहित ही नहीं करता बांह पकड़ के बैठा भी लेता है- "बिटन्नाऔ लल्ला बस दुइ जान।---का हिंदू का मुसलमान गांव के सबै बेटवा उनका बुवा कहति हैं।"जिस बिधवा माँ ने मज़दूरी मेहनत से बेटे को पढ़ाया वही उसे छोड़ कर शहर चला गया लेकिन माँ के मरते दम तक उसकी सुध न ली।इस विडंबना को स्त्री हृदय से देखने का कौशल इस कहानी को पूरी संवेदना के साथ संप्रेषित करता है और कहानी का अंत हमारी आँखें नम कर देता है।अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी की लघु कथा भाषायी चिंतन पर केंद्रित है।उनका भाषा के कलाबत्तू में विश्वास करने वाले को लात जमवाकर ज़ोरदार ढंग से मातृ भाषा को निजी सुख-दु:ख की भाषा कहना मनोवैज्ञानिक सत्य है।भाषा का गंभीर समाजशास्त्रीय चिंतन है और प्राथिक शिक्षा को मातृभाषा में दिए जाने के तर्क को बल प्रदान करता है।
इस संग्रह के तीसरे और अंतिम खंड में जो बाल कहानियां हैं वे इस संग्रह को इस अर्थ में महत्त्वपूर्ण बनाती हैं कि बच्चों को भी दुनिया में वही अधिकार व महत्त्व प्राप्त है जो बड़ों को है।इस खंड में केवल दो ही कहानियां संकलित हैं जिनमें पहली है आद्या प्रसाद सिंह 'प्रदीप' की 'खड़हर के वहि पार' उसमें कहानीकार ग्राम्य जीवन में भूत-प्रेत और ओझाओं की उपस्थिति को ज़ोरदार ढंग से दर्ज़ करता है।गाँव में अन्ध विश्वास कैसे व्याप्त है इसका जीवंत दस्तावेज़ बनकर प्रस्तुत होती है यह कहानी।इसमें घनश्याम और महेस उस अन्धविश्वास को दूर करने का बीड़ा उठाते हैं।बच्चों के साथ बड़ों के लिये भी यह कहानी बराबर शिक्षाप्रद है।इस कहानी की भाषा बाल समझ के अनुरूप है-"बेटवा ई खंडहर हमार पुरान गाँउ रहा।--एक ठौ घरियार आईके हमकालीलि लिहिसि।उहां पेट चीर के हम निकरि आए।"जैसी भाषा और बच्चों की जिज्ञासा के शमन के लिए उपयुक्त कथानक इसे एक श्रेष्ठ बाल कहानी बनाते हैं।
दूसरी कहानी है 'घुमंतू' इसके कहानीकार हैं ' अशोक अज्ञानी जो'घुमंतू' जातियों के बच्चों की शिक्षा की चिंता इस कहानी के केंद्र में है।एक मौलवी के ईमानदार प्रयास से घुमन्तू बच्चों के जीवन में उजाला भरकर कहानीकार एक समरस समाज की रचना में सफल होता है।अपने शिक्षा तन्त्र की विफलता दर्शाना मात्र कहानीकार का ध्येय नहीं है अपितु  मौलवी जैसी चरित्र  सर्जना से इस तंत्र में प्राण फूँक कर घुमन्तू जातियों में शिक्षा संस्कार और स्थायित्त्व लाना है।
इस संग्रह की कहानियाँ अवधी के कथा संसार के कैनवास पर कलम नहीं कूँची से खचित कथा की आद्यबिंबात्मक दृश्यावलियां हैं।इनके रंग कहीं धूमिल तो कहीं गाढ़े भले हों पर अस्पष्ट नहीं हैं।अत:यह कहना गलत नहीं होगा कि ये कहानियाँ समकालीन किहानी का चरित्तर रचती कहानियाँ हैं।
@डॉ. गुणशेखर

प्रस्तुति : भारतेंदु मिश्र

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