बुधवार, 15 जुलाई 2020

💐आज उनकी याद आयी👍

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#भारतेंदु मिश्र 

तुलसीदास के अनुगामी त्रिलोचन जी की कविता पढ़ने के लिए जिस धैर्य की अपेक्षा है वह उनके इस अवधी बरवै को पढ़कर सीखा जा सकता है-‘रचना देखत बिसरइ रचनाकार तब रचना कइ रूप होय उजियार | ’ (अमोला-पृष्ठ-10,प्रकाशन वर्ष-1990 )अर्थात जब रचना को देखकर रचनाकार की सुधि ही न रहे| रचना तभी श्रेष्ठ मानी जाती है यही उसकी श्रेष्ठता का आदर्श भी कहा जा सकता है | यानी 'कविरेव प्रजापति:' कवि में सात्विक भाव कितना प्रबल हो चुका है|इसी बात को उलट कर देखें कि जब कोई रचनाकार अपना अहंकार रचनाशीलता में तिरोहित कर देता है अथवा बिसरा देता है तभी रचना (कृति ) का वास्तविक प्रकाश उजागर होता है|यहाँ कवि रचना के सौन्दर्य शास्त्र पर भी मानो अपनी टिप्पणी करते हुए निकल जाता है,अर्थात रचना ही बड़ी होती है,रचनाकार नहीं| 'अमोला' और 'मेरा घर' में संकलित उनकी अवधी रचनाशीलता पर अष्टभुजा जी के अतिरिक्त किसी ने खुलकर बात नही की|
इस बरवै को देखकर लगता है कि हम किसी आर्ष परम्परा के कवि की रचनाशीलता पर बात कर रहे है|इसप्रकार सहज ही उन्हें तुलसीदास का अनुयायी मान लेने का मन होता है| हमें तुलसी की तरह ही उनकी कविता में प्रतिरोध के स्वर को भी चीन्हना होगा |
त्रिलोचन जी की कविता पढ़ने के लिए जिस धैर्य की अपेक्षा है वह उनके इस अवधी बरवै को पढ़कर सीखा जा सकता है-
‘रचना देखत बिसरइ रचनाकार
तब रचना कइ रूप होय उजियार | ’
(अमोला-पृष्ठ-10,प्रकाशन वर्ष-1990 )
अर्थात जब रचना को देखकर रचनाकार की सुधि ही न रहे| रचना तभी श्रेष्ठ मानी जाती है यही उसकी श्रेष्ठता का आदर्श भी कहा जा सकता है | इस सहृदयता का भाव यदि आपके मन में है तो त्रिलोचन को पढ़िए | यानी 'कविरेव प्रजापति:' की वास्तविक भूमि जहां कवि में सात्विक निस्पृहता का भाव कितना प्रबल हो चुका है|
इसी बात को उलट कर देखें कि जब कोई रचनाकार अपना अहंकार रचनाशीलता में तिरोहित कर देता है अथवा बिसरा देता है तभी रचना
(कृति ) का वास्तविक प्रकाश उजागर होता है|यहाँ कवि रचना के सौन्दर्य शास्त्र पर भी मानो अपनी टिप्पणी करते हुए निकल जाता है,अर्थात रचना ही बड़ी होती है,रचनाकार नहीं| 'अमोला' और 'मेरा घर' में संकलित उनकी अवधी रचनाशीलता पर अष्टभुजा जी के अतिरिक्त किसी ने खुलकर बात नही की| 'मेरा घर ' के लोकार्पण में पूरे श्रृद्धा भाव से मैं उपस्थित भी रहा| अवधी कविताओं को बिना छुए ही बड़े बड़े वक्ता चाय समोसों की और मुड़ गए| तब हिन्दी में कुलीन कवियों का वर्चस्व चरम पर था|
इस बरवै को देखकर लगता है कि हम किसी आर्ष परम्परा के कवि की रचनाशीलता पर बात कर रहे है|इसप्रकार सहज ही उन्हें तुलसीदास का अनुयायी मान लेने का मन होता है| आज उनकी याद आयी ,हमारे नवाचारी अवधिया कवि भी उन्हें ठीक से नहीं जान पाए| मुझे ऐसा लगता है, नए लोगों को, शोधार्थियों को कालक्रम के हिसाब से रचनाओं को उलटना पलटना चाहिए,पढ़ना तो बड़ी बात होती है,दृष्टि के बिना क्या पढ़ना ?
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