जयन्ती पर विशेष --
किसान कवि पढ़ीस
# भारतेंदु मिश्र
आधुनिक समाज वैश्विक साम्राज्यवाद के शिकंजे में जिस तरह जकड़ा है वह पहले कभी न था| बाजारू प्रतिस्पर्धा की होड़, नेता और आभासी व्यापारियों की मिली भगत से आम जन मजदूर और किसान सबसे अधिक प्रभावित हुआ है| मीडिया और सोशल मीडिया की आपाधापी में हिन्दी की कविताई अनेक पडावों को पार करते हुए बहुत तेजी से काव्य आन्दोलनों और विमर्शों के बीच हिचकोले लेती हुई दिखाई दे रही है| हिन्दी भाषा का चरित्र भी किसी हद तक सामंतवादी हो गया है |अब इस वैश्विक मंदी के दौर में किसान मजदूर की अभिव्यक्ति पर ही संकट उठ खडा हुआ है| जमीन से जुड़ा निम्न मध्य वर्ग भुखमरी के कगार पर है| भारत जैसा खेतिहर देश अब किसानों के अस्तित्व की समस्या से जूझ रहा है| विस्थापन पलायन और बेरोजगारी की स्थिति अत्यंत दयनीय है अब उसपर कोई बात भी नहीं करना चाहता | ऐसे आसन्न संकट के समय पढीस जैसे वर्ग चेतस किसान कवि को याद करना बहुत प्रासंगिक जान पड़ता है|सच्चे अर्थ में सामाजिक बदलाव का स्वप्न उन्होंने देखा था,और उसी के लिए उन्होंने अपना जीवन होम कर दिया| सांप्रदायिकता और स्त्री चेतना के विरुद्ध पढ़ीस जी की कहानी लामजहब उल्नेलेखनीय है| समाज को दिशा देते हुए उन्होंने अवधी में कबिताई की और खड़ीबोली में निबंध और कहानियां लिखीं|
बलभद्र प्रसाद दीक्षित ‘पढ़ीस’ अवधी के किसान कवि हैं जिनका जन्म 25 सितम्बर 1898 को सीतापुर की सिधौली तहसील के अंबर पुर नाम ग्राम में हुआ था| तब देश पराधीन था|किसान अशिक्षित थे,पढीस जी ने उन्हें उनकी भाषा में शिक्षित करना उचित समझा, उनके लिए कविताएँ लिखीं | पिता का असमय निधन हो जाने के कारण उनके परिवार पर बचपन में ही विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा | बड़े भाई दीनबंधु को गाँव में ही मजूरी करनी पड़ी |लेकिन उससे भी परिवार का निर्वाह संभव न होता था|पढीस जी चार भाई थे| पिता के देहांत के समय दीनबंधु की आयु कुल बारह वर्ष की थी | उनकी दयनीय दशा की चर्चा किसी प्रकार कसमंडा के राजा सूर्यबख्श सिंह तक पहुँची तो उन्होंने दीनबंधु को चाकरी पर रख लिया | अब उनका परिवार दीनबंधु की नौकरी के सहारे जी उठा था| कुछ दिनों बाद दीनबंधु की स्वामिभक्ति से प्रसन्न राजा साहब ने दीनबंधु को अपनी राजकुमारी के विवाह में दहेज़ के रूप में उसके ससुराल विजयनगर राज्य भेज दिया| जाते समय दीनबंधु ने राजा से अपने स्थान पर सेवा के लिए पढ़ीस जी को नियुक्त करवा दिया |
तब पढ़ीस जी बालक ही थे |राज साहब की कोठी कमलापुर में थी तो उन्हें वहीं रहना होता था| राजा साहब का बेटा यानी राजकुमार के साथ ही उनकी भी शिक्षा होने लगी |राजा ने अंगरेजी स्कूल में राजकुमार के साथ ही लखनऊ में उन्हें भी पढ़ाया| लखनऊ में भी राजा साहब की कोठी थी सो किसी तरह की असुविधा न थी| पढ़ लिखकर पढ़ीस जी राजा साहब के निजी सचिव बन गए| किसानों की समस्याओं पर वे राजा साहब को जो राय देते वह उन्हें स्वीकार भी करते थे| राजकुमार से भी अधिक उनका सम्मान राजा साहब के परिवार में होता था |राजा साहब के बाद राजकुमार जब मालिक हुए तो पढ़ीस जी से उनकी अनबन हुई और उन्होंने सन 1933 में राजा की नौकरी छोड़ दी| जब 1938 में लखनऊ में जब आकाशवाणी केंद्र की स्थापना हुई तब उन्हें देहाती कार्यक्रमों के लिए नियुक्ति मिली|आकाशवाणी का पहला किसान चेतना का कार्यक्रम “पंचायत घर” अवधी में उन्होंने शुरू किया था| तब अधिकाँश प्रोग्राम लाइव ब्राडकास्ट होते थे| लखनऊ में उन दिनों साहित्य का बहुत अच्छा वातावरण था| सन 1936 में प्रेमचंद जी की अध्यक्षता में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अधिवेशन लखनऊ में ही हुआ था | निराला,रामविलास शर्मा,अमृतलाल नागर,यशपाल आदि लखनऊ में ही रहते थे| प्रगतिशील चेतना की बयार बहने लगी थी| पढ़ीस जी ब्राह्मणवाद से लड़ते हुए दलितों और स्त्रियों के जीवन में बदलाव के लिए लिख पढ़ रहे थे| वर्ष 1933 में उनका अवधी कविता संग्रह ‘चकल्लस’ प्रकाशित हुआ था जिसकी भूमिका निराला जी ने लिखी थी| जिसमें निराला जी लिखते हैं-
“ देहाती भाषा में होने पर भी जहां तक काव्य का संबंध है ‘चकल्लस’ अनेक उच्च गुणों से भूषित है|इसके चित्र सफल और सार्थक हैं | स्वाभाविकता पद पद पर,परिणति में पूरी संगति है |हिन्दी के अनेक काव्यों से यह बढ़कर है,मुझे यह कहने में संकोच नहीं|”(सूर्यकांत त्रिपाठी निराला) इसके साथ ही निराला जी उनकी ‘बिट्योनी’ शीर्षक कविता को उद्धृत करते हैं-
फूले कांसन ते ख्यालयि /घुघुवार बार मुंहू चूमयि/बछिया बछवा दुलरावयि
सब खिलि खिलि ,खुलि खुलि ख्यालयि/ बारू के ढूहा ऊपर/परभात अइसि कसि फूली
पसु पंछी मोहे मोहे /जंगल मा मंगल गावैं
बरसाइ सतौ गुन चितवयि / कंगला किसान की बिटिया |
कंगाल किसान की बेटी पर लिखी गयी संभवतः यह अवधी ही नहीं हिन्दी की भी पहली कविता है| उनकी कुछ कवितायेँ तो छायावादी परंपरा और प्रगतिवादी चेतना को सुदृढ़ बनाती हैं| उन्हें पढ़ते हुए साद,पन्त निराला ही नहीं विलियम ब्लैक,और वर्ड्सवर्थ की भी याद हो आती है| पढ़ीस जी ‘चेतौनी’ कविता में चेतावनी देते हुए कहते हैं-
बरन बने चारि मुला जाति ददू याके आय
छुआ छूति छोपि बूड़े जाव काहे हपर हपर/चलौ भाई डगर डगर |
वर्ग चेतना को रेखांकित करती उनकी कविताई देखें-
सोचति समुझति इतने दिन बीते /तहूँ न कहूं खुली आंखीं
काकनि यह बात गाँठ बांधेव /उइ अउर आंय हम अउर आन|
रामविलास जी ‘पढ़ीस ग्रंथावली’ में अपने संपादकीय में लिखते हैं-
‘हिन्दी में तीन क्रांतिकारी लेखक थे -प्रेमचंद,निराला और पढ़ीस |ये तीनो लेखक ऐसे थे जो गाँव के थे और ये किसानों के जीवन से बहुत अच्छी तरह परिचित थे|’
राजा कसमांडा की नौकरी छोड़ने के बाद उन्होंने खद्दर और सत्याग्रह को अपनाया| किसान शिक्षा और अछूतोद्धार को अपना आदर्श बनाया था| उनकी ‘चमार भाई’ कहानी जहां एक ओर दलित विमर्श की श्रेष्ठ हिन्दी कहानी है तो दूसरी ओर ‘चमेली जान’ उनकी लिखी पहली किन्नर कथा है| आज किन्नर विमर्शकार उनकी कहानी पढ़कर चमत्कृत हैं|उनका कहानी संग्रह सन 1939 में पटना से प्रकाशित हुआ था और ‘चमेली जान’ को अमृतलाल नागर जी ने अपने साप्ताहिक समाचार पत्र ‘चकल्लस’में 1939 में स्केच के रूप में प्रकाशित की थी| वे आज भी प्रासंगिक हैं| वे आज भी चमत्कृत करते हैं| और खेत में हल चलाते हुए नसी लगने के कारण अल्पायु में ही टिटनेस से उनका 14जुलाई 1942 को देहांत हो गया| उनके असमय देहांत पर शोकाकुल निराला जी ने कहा था-“दीक्षित जी के लिए बहुत सोचता हूँ,मगर वह नस मेरी कट चुकी है,जिसमें स्नेह सार्थक था|” बाद के आलोचकों ने उन्हें निरा अवधी कवि समझकर उपेक्षित कर दिया| ऐसे किसानचेता अवधी- हिन्दी के महान साहित्यकार की 122 वीं जयन्ती पर उनकी सुधि को नमन
प्रस्तुति
भारतेंदु मिश्र
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