अवधी लोक:एक परिचय
*भारतेन्दु मिश्र
अवध का लोक जीवन रीति-रिवाजो,संस्कारों ,ऋतु गीतों आदि के माध्यम से चीन्हा जा सकता है। धान –पान और मान की धरती है अवध की। यह अवध की ही धरती है जहाँ दरबार मे आने पर राजा स्वयं कवि को सम्मानित करने के लिए पान का जोडा पेश करते थे —‘ताम्बूलमासनद्वय च लभते य: कान्यकुब्जेश्वरात।’ यह उक्ति संस्कृत के ‘नैषधीयचरित’ महाकाव्य के रचयिता महाकवि श्रीहर्ष के सन्दर्भ मे प्रचलित है। कन्नौज के राजा विजयदेव के दरबार मे जब महाकवि श्रीहर्ष पधारते थे तब वे उनका स्वागत पान के बीडे से करते थे। अत: मान का पान अवध मे बहुत माने रखता है।
अवधी लखनऊ,कानपुर,उन्नाव,हरदोई,शाहजहानपुर,इटावा,कन्नौज,फर्रुखाबाद, फतेहपुर,रायबरेली, सुल्तानपुर, जौनपुर ,प्रतापगढ, इलाहाबाद,सिद्धार्थनगर,बाराबंकी, सीतापुर लखीमपुरखीरी ,गोण्डा,बलरामपुर,अम्बेडकरनगर, बहराइच,फैजाबाद, कौशाम्बी ,बान्दा, चित्रकूट ,गोरखपुर,कबीरनगर, आदि जनपदो मे रहने वाले कोटि-कोटि कंठों की मातृभाषा है।यह अलग बात है कि अवध का आदमी मूलत: जुझारू किसान है। यहाँ का आदमी शांत और संकोची स्वभाव का है। कृषि संस्कृति और गृह रति ही अवध के लोकाचार मे प्रकट होती है।अक्सर मूर्खता की हद तक संकोच मनुष्य की प्रगति मे बाधक हो जाता है।इस लिए भोजपुरी भाषी क्षेत्र की तुलना मे यहाँ का आदमी जल्दी से संगठित नही हो पाता।आमतौर पर अवध का आदमी प्रतिक्रियावादी भी नही है।
नौटंकी,रामलीला,रासलीला,कीर्तन,आल्हा,सफेडा ,रतजगा,जैसी लोकनाट्य परम्पराओ के साथ ही तुलसी और जायसी की इस धरती मे लोक गीतो की लम्बी परम्परा है। यही धरती है जहाँ अयोध्या है ,चित्रकूट है,जो रामकथा की व्यापकता की साक्षी बनी हुई है। राम का शील संकोच यहाँ की जातीयता मे शामिल है। शबरी और राम के मिलन का एक प्रसंग देखिये--
आजु बसौ सबरी के घर रामा।
बेर मोकइया क भोगु लगावै
अउरु नही सबरी के घर सामा।
कुस कै गोदरी सेज बिछउना
लोटि-पोटि परभू करै बिसरामा। आजु..।
सदियों प्राचीन इस लोकगीत मे भी शबरी के संकोच का निरूपण ही इसे मार्मिक बनाता है कि शबरी के संकोच के बावजूद राम उसके घर आ जाते हैं,और बेर तथा मोकइया जैसे अतिसामान्य समझे जाने वाले फल का भोग करते हैं।एक और संकोच का मार्मिक चित्र देखिये तुलसी कहते है--
जल को गये लक्खन है लरिका परिखौ पिय छाँह घरीक हुइ ठाढे।
पोछि पसेऊ बयारि करौं अरु पाँय पखारिहौ भूभुरि डाढे।
तुलसी रघुबीर प्रिया स्रम जानिकै बैठि बिलम्बलौं कंटक काढे।
जानकी नाह को ने ह लख्यो पुलक्यो तनु बारि बिलोचन बाढे।
सीता यहाँ वनप्रदेश मे यात्रा करते हुए राम के साथ जा रही है। वे थक गयी हैं। राम से अपनी थकान का भेद जाहिर नही करना चाहतीं परंतु बहाने बनाकर उन्हे रोक लेती हैं। राम बिना कुछ कहे सीता की मनोदशा का
अनुमान कर लेते हैं और चुपचाप बैठकर देर तक अपने पैर के काँटे निकालने का उपक्रम करते रहते हैं। अवध मे नर नारी के बीच इस प्रकार का संकोच दाम्पत्य की सहज व्यंजना मे आदर्श माना जाता है। अवध का लोक जीवन ऎसा है कि जहाँ अविवाहित युवक-युवतियाँ ही चोरी-छिपे नही मिलते अपितु पति-पत्नी को भी चोरी छिपे मिलना पडता है।यहाँ तक कि पुरुष अपने पुत्र को भी अपने बडे बुजुर्गों के सामने गोद मे नही उठाता,भले ही शिशु बिलख रहा हो और उसकी माता किसी अन्य गृहकार्य मे व्यस्त हो। यदि कोई ऎसा करता है तो प्राय: अन्य सभी उस व्यक्ति का मजाक बना देते हैं,और उस मेहरा[स्त्रैण्य स्वभाव वाला] कहकर चिढाते है। कई एसे लोक गीत हैं जो हैं तो नारी संवेदना के किंतु वे गाये पुरुषो द्वारा जाते हैं।अधिकतर ऎसे गीतो मे नारी की व्यथा,उसका शील –संकोच,शिकवा शिकायत ,मान –मनउव्वल आदि की अभिव्यक्ति होती है। देखिये एक पुरुष नारी की वेदना को किस प्रकार गाता है-
लरिकइयाँ के यार संघाती,
जोबन पै लगाओ न घाती, पिया कै मोरे थाती।
नाहक जुलमी जोबनवा तू आयेव सांसति हमरे जियरा कै करायेव
अब लिखबै ससुर घर पाती लूटै आवै चोर दिन राती
पिया कै मोरे थाती।...
अवध के लोक गीतों की विभिन्न छवियाँ हैं,जिनमे सबसे अधिक गीत कथात्मक हैं,जो रामकथा की लोकवादी छवियाँ प्रस्तुत करते हैं।ऋतुगीत हैं,बारहमासा हैं,जातीय गीत हैं जिनमे धोबियाराग,कुम्हारगीत,गडरियागीत आदि विभिन्न जातियो के गीत अपने लोकसौन्दर्य की छवियो के साथ आज भी विद्यमान हैं-
मोटी-मोटी रोटिया पोयो री बरेठिनि भोरहे चलिबे घाट,
बरेठिन, भोरहे चलिबे घाट।
तीनि चीज ना भूल्यो बरेठिन हुक्का-चिलम औ आगि,
बरेठिन हुक्का-चिलम औ आगि।
तोरी मोरी जोडिया जमी बरेठिन
भोरहे चलिबे घाट,
बरेठिन,भोरहे चलिबे घाट।
हुक्का फोरि कै फुक्का बनइबे पियेव गदहा कै सींग,
बरेठा पियेव गदहा कै सींग।
इस एक लोक गीत मे ही धोबी दम्पति के बीच की नोक झोंक बहुत मार्मिक बन गयी है।यहाँ संकोच नही है। इन लोक गीतों को पढने से यह भी ज्ञात होता है कि अवध की सवर्ण स्त्रियाँ या कि सवर्ण जातियाँ इस संकोच और लोकाचार से अधिक पीडित रही हैं,न कि असवर्ण जातियाँ। ये असवर्ण जातियाँ भी लोक सौन्दर्य के अधिक निकट रही हैं।सोहर,बनरा,कजरी,सावन,होरी,फाग,गारी,कृषिगीत-निकउनी,बोउनी आदि गाये जाने की लम्बी परम्परा अवध मे रही है। इन लोकगीतों मे जीवन का अनंत श्रम सौन्दर्य भरा पडा है। असल मे लोकरीतियो की हमारी सुन्दर परम्पराये तथाकथित विकासवाद और प्रगतिवाद के नीचे या पीछे दबकर रह गयी हैं। हम अपना घर और गाँव पीछे छोडकर विश्वग्राम की ओर बढ गये हैं। राम का आदर्श रामकथा के संस्कारों के साथ-साथ आज भी किसी न किसी रूप मे शील संकोच की भाँति लोक मे प्रतिफलित होता दिखाई देता है।यही कारण है कि अवध का आम आदमी दिल्ली,मुम्बई,कोलकाता जाकर वहाँ की भाषा तो अपना लेता है किंतु अपनी अवधी मे बतियाने मे उसे शर्म और संकोच का अनुभव होता है। अवध का प्रवासी अपने अवधी लोक का सौन्दर्य वहीं घर मे धर आता है,और अपने अवधी संकोच मे जीवन बिता देता है। विश्वग्राम की व्यापक अवधारणा मे अवध के प्रबुद्धजनों को अपनी लोकचेतना की आग को बचाकर रखना चाहिए।
(मड़ई , के लिए संपादक -कालीचरण जी छात्तीस गढ़ वाले )
*भारतेन्दु मिश्र
अवध का लोक जीवन रीति-रिवाजो,संस्कारों ,ऋतु गीतों आदि के माध्यम से चीन्हा जा सकता है। धान –पान और मान की धरती है अवध की। यह अवध की ही धरती है जहाँ दरबार मे आने पर राजा स्वयं कवि को सम्मानित करने के लिए पान का जोडा पेश करते थे —‘ताम्बूलमासनद्वय च लभते य: कान्यकुब्जेश्वरात।’ यह उक्ति संस्कृत के ‘नैषधीयचरित’ महाकाव्य के रचयिता महाकवि श्रीहर्ष के सन्दर्भ मे प्रचलित है। कन्नौज के राजा विजयदेव के दरबार मे जब महाकवि श्रीहर्ष पधारते थे तब वे उनका स्वागत पान के बीडे से करते थे। अत: मान का पान अवध मे बहुत माने रखता है।
अवधी लखनऊ,कानपुर,उन्नाव,हरदोई,शाहजहानपुर,इटावा,कन्नौज,फर्रुखाबाद, फतेहपुर,रायबरेली, सुल्तानपुर, जौनपुर ,प्रतापगढ, इलाहाबाद,सिद्धार्थनगर,बाराबंकी, सीतापुर लखीमपुरखीरी ,गोण्डा,बलरामपुर,अम्बेडकरनगर, बहराइच,फैजाबाद, कौशाम्बी ,बान्दा, चित्रकूट ,गोरखपुर,कबीरनगर, आदि जनपदो मे रहने वाले कोटि-कोटि कंठों की मातृभाषा है।यह अलग बात है कि अवध का आदमी मूलत: जुझारू किसान है। यहाँ का आदमी शांत और संकोची स्वभाव का है। कृषि संस्कृति और गृह रति ही अवध के लोकाचार मे प्रकट होती है।अक्सर मूर्खता की हद तक संकोच मनुष्य की प्रगति मे बाधक हो जाता है।इस लिए भोजपुरी भाषी क्षेत्र की तुलना मे यहाँ का आदमी जल्दी से संगठित नही हो पाता।आमतौर पर अवध का आदमी प्रतिक्रियावादी भी नही है।
नौटंकी,रामलीला,रासलीला,कीर्तन,आल्हा,सफेडा ,रतजगा,जैसी लोकनाट्य परम्पराओ के साथ ही तुलसी और जायसी की इस धरती मे लोक गीतो की लम्बी परम्परा है। यही धरती है जहाँ अयोध्या है ,चित्रकूट है,जो रामकथा की व्यापकता की साक्षी बनी हुई है। राम का शील संकोच यहाँ की जातीयता मे शामिल है। शबरी और राम के मिलन का एक प्रसंग देखिये--
आजु बसौ सबरी के घर रामा।
बेर मोकइया क भोगु लगावै
अउरु नही सबरी के घर सामा।
कुस कै गोदरी सेज बिछउना
लोटि-पोटि परभू करै बिसरामा। आजु..।
सदियों प्राचीन इस लोकगीत मे भी शबरी के संकोच का निरूपण ही इसे मार्मिक बनाता है कि शबरी के संकोच के बावजूद राम उसके घर आ जाते हैं,और बेर तथा मोकइया जैसे अतिसामान्य समझे जाने वाले फल का भोग करते हैं।एक और संकोच का मार्मिक चित्र देखिये तुलसी कहते है--
जल को गये लक्खन है लरिका परिखौ पिय छाँह घरीक हुइ ठाढे।
पोछि पसेऊ बयारि करौं अरु पाँय पखारिहौ भूभुरि डाढे।
तुलसी रघुबीर प्रिया स्रम जानिकै बैठि बिलम्बलौं कंटक काढे।
जानकी नाह को ने ह लख्यो पुलक्यो तनु बारि बिलोचन बाढे।
सीता यहाँ वनप्रदेश मे यात्रा करते हुए राम के साथ जा रही है। वे थक गयी हैं। राम से अपनी थकान का भेद जाहिर नही करना चाहतीं परंतु बहाने बनाकर उन्हे रोक लेती हैं। राम बिना कुछ कहे सीता की मनोदशा का
अनुमान कर लेते हैं और चुपचाप बैठकर देर तक अपने पैर के काँटे निकालने का उपक्रम करते रहते हैं। अवध मे नर नारी के बीच इस प्रकार का संकोच दाम्पत्य की सहज व्यंजना मे आदर्श माना जाता है। अवध का लोक जीवन ऎसा है कि जहाँ अविवाहित युवक-युवतियाँ ही चोरी-छिपे नही मिलते अपितु पति-पत्नी को भी चोरी छिपे मिलना पडता है।यहाँ तक कि पुरुष अपने पुत्र को भी अपने बडे बुजुर्गों के सामने गोद मे नही उठाता,भले ही शिशु बिलख रहा हो और उसकी माता किसी अन्य गृहकार्य मे व्यस्त हो। यदि कोई ऎसा करता है तो प्राय: अन्य सभी उस व्यक्ति का मजाक बना देते हैं,और उस मेहरा[स्त्रैण्य स्वभाव वाला] कहकर चिढाते है। कई एसे लोक गीत हैं जो हैं तो नारी संवेदना के किंतु वे गाये पुरुषो द्वारा जाते हैं।अधिकतर ऎसे गीतो मे नारी की व्यथा,उसका शील –संकोच,शिकवा शिकायत ,मान –मनउव्वल आदि की अभिव्यक्ति होती है। देखिये एक पुरुष नारी की वेदना को किस प्रकार गाता है-
लरिकइयाँ के यार संघाती,
जोबन पै लगाओ न घाती, पिया कै मोरे थाती।
नाहक जुलमी जोबनवा तू आयेव सांसति हमरे जियरा कै करायेव
अब लिखबै ससुर घर पाती लूटै आवै चोर दिन राती
पिया कै मोरे थाती।...
अवध के लोक गीतों की विभिन्न छवियाँ हैं,जिनमे सबसे अधिक गीत कथात्मक हैं,जो रामकथा की लोकवादी छवियाँ प्रस्तुत करते हैं।ऋतुगीत हैं,बारहमासा हैं,जातीय गीत हैं जिनमे धोबियाराग,कुम्हारगीत,गडरियागीत आदि विभिन्न जातियो के गीत अपने लोकसौन्दर्य की छवियो के साथ आज भी विद्यमान हैं-
मोटी-मोटी रोटिया पोयो री बरेठिनि भोरहे चलिबे घाट,
बरेठिन, भोरहे चलिबे घाट।
तीनि चीज ना भूल्यो बरेठिन हुक्का-चिलम औ आगि,
बरेठिन हुक्का-चिलम औ आगि।
तोरी मोरी जोडिया जमी बरेठिन
भोरहे चलिबे घाट,
बरेठिन,भोरहे चलिबे घाट।
हुक्का फोरि कै फुक्का बनइबे पियेव गदहा कै सींग,
बरेठा पियेव गदहा कै सींग।
इस एक लोक गीत मे ही धोबी दम्पति के बीच की नोक झोंक बहुत मार्मिक बन गयी है।यहाँ संकोच नही है। इन लोक गीतों को पढने से यह भी ज्ञात होता है कि अवध की सवर्ण स्त्रियाँ या कि सवर्ण जातियाँ इस संकोच और लोकाचार से अधिक पीडित रही हैं,न कि असवर्ण जातियाँ। ये असवर्ण जातियाँ भी लोक सौन्दर्य के अधिक निकट रही हैं।सोहर,बनरा,कजरी,सावन,होरी,फाग,गारी,कृषिगीत-निकउनी,बोउनी आदि गाये जाने की लम्बी परम्परा अवध मे रही है। इन लोकगीतों मे जीवन का अनंत श्रम सौन्दर्य भरा पडा है। असल मे लोकरीतियो की हमारी सुन्दर परम्पराये तथाकथित विकासवाद और प्रगतिवाद के नीचे या पीछे दबकर रह गयी हैं। हम अपना घर और गाँव पीछे छोडकर विश्वग्राम की ओर बढ गये हैं। राम का आदर्श रामकथा के संस्कारों के साथ-साथ आज भी किसी न किसी रूप मे शील संकोच की भाँति लोक मे प्रतिफलित होता दिखाई देता है।यही कारण है कि अवध का आम आदमी दिल्ली,मुम्बई,कोलकाता जाकर वहाँ की भाषा तो अपना लेता है किंतु अपनी अवधी मे बतियाने मे उसे शर्म और संकोच का अनुभव होता है। अवध का प्रवासी अपने अवधी लोक का सौन्दर्य वहीं घर मे धर आता है,और अपने अवधी संकोच मे जीवन बिता देता है। विश्वग्राम की व्यापक अवधारणा मे अवध के प्रबुद्धजनों को अपनी लोकचेतना की आग को बचाकर रखना चाहिए।
(मड़ई , के लिए संपादक -कालीचरण जी छात्तीस गढ़ वाले )
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