गुरुवार, 28 जनवरी 2010

चन्दावती (धारावाहिक उपन्यास)

पहली किस्त:

दादा केरि तेरही
तेरह बाँभन आय गे रहै। उनका अलग चउका लगावा गा रहै, नई तेरह धोती-अँगउछा-जनेऊ-थरिया-लोटिया-नए पाटा,तेरह तुलसी बाबा वाली रामायन के गुटका अउरु तेरह संख बजार ते मँगवाये गे रहै। आस पास कि जवार ते चुने भये तेरह बाँभन नेउते गे रहै। उनकी सकल देखतै बनि परति रहै-ग्वार सुन्दर चोटइयाधारी पंडित -चन्दन टीका लगाये,ई बिधि सजे रहै कि मानौ सीध-म-सीध सरगै ते उतरि के आए होंय । गाँव के भकुआ उनका आँखी फारि फारि द्याखै लाग।छोटकउनू महराज पीतर के थारा मा सबके पाँय धोयेनि,सिवपरसाद अउरु चन्दावती दायी नये अँगउछा ते सबके पाँय पोछेनि। मोलहे उनका देखि कै सकटू ते कहेनि-‘ भाई,द्याखौ ई कतने सुघर पंडित आये है।आँखी जुडाय गयी,‘हाँ मोलहे भाई,किसमत अच्छी रहै हनुमान दादा केरि ई सब पंडित उनकी खातिर सरग केरि सीढी बनइहै।’
‘ठीक कहति हौ भइया,उनका सरग जरूर मिली।देउता रहै हनुमान दादा,सब उनकी करनी का परताप है-बहुत बडे मनई रहै वइ।’ ‘ अब बँभनन ट्वाला मा कउनौ वइस नामी मनई नही बचा है।’
‘हमतौ कहिति है दुइ -चारि- दस गाँवन मा वइस मनई ढूँडे न मिली।’
हवन क्यार धुआँ सब तन फैलि गवा रहै। अगियारि होयेके बादि संखु-घंटा बाजै लाग। लीपे- पोते आँगन मा तेरहौ बँभनन केरी चउकी सजाय दीन्ही गयी रहै। सब देउता,नौगिरह, गइया-कउआ-कूकुर -चीटी अउरु पंचतत्वन खातिर भोग लगाय दीन गा रहै । अब तेरहौ बाँभन जीमै लाग रहैं।
‘वाह चन्दावती दायी,अतना बढिया इंतिजाम,अतना सुन्दर भोजन बरसन बादि मिला है।..हनुमान दादा केरि आत्मा सरग ते देखि रही है तुमका,--बहुत असीस दै रही होई ।’ तेरही वाले बँभनन क्यार मुखिया कहेसि। चन्दावती केरी आँखी भरि आयीं।अपने अँचरे मा अपन मुँहु लुकाय लीन्हेनि।सब मौजूद मनई-मेहेरुआ तरह-तरह की बातै बनावै लाग रहैं। रामफल दादा दूरि बरोठे म बइठ रहैं। वइ सुरू हुइगे,भकुआ मुँहु फैलाय के सुनै लाग-
‘प.रामदीन सुकुल उर्फ हनुमान दादा दौलतिपुर केरि नाक रहैं।उनका बडा पौरुखु रहै। दस-पाँच क्वास तके गाँव जवारि मा हनुमान दादा क्यार रुतबा रहै। दौलति पुर क्यार ई सबते बडे किसान रहैं। बसि इनहेन के दुआरे टक्टर ठाढ है।’
दौलतिपुर मा कोई पचास घर हुइहै। तेली,तम्बोली,नाऊ,कहार,धोबी,पासी,चमार,मुरऊ,ठाकुर जैसी सब जातिन क्यार घर दौलतिपुर मा है।गाँव मा बँभनन के कुल जमा तीनि घर रहैं। कउनौ पूँछेसि-‘केत्ती उमिरि रहै हनुमान दादा केरि?’
रामफल फिरि सुरू हुइगे-‘अबही मुसकिल ते पैसठ केरि उमिरि भइ होई हमते पाँच साल छोट रहैं बखत आय गवा सरग सिधार गे। नामी पहेलवान रहैं-तोहार हनुमान दादा। अपनी जवानी मा कुस्ती लडै जाति रहैं तौ सदा जीति कै आवति रहैं। दौलतिपुर केरि असल दौलति तौ हनुमान भइयै रहैं। जस-जस उनका पौरुखु घटा तस-तस गठिया उनका तंग करै लागि रहैं। बिचरऊ जवानी मा बिधुर हुइगे रहैं। तब चन्दावती ते उनका परेम हुइगा,वइ चन्दावती ते बिहाव कीन्हेनि औ वहिका मेहेरुआ केरि जगह दीन्हेनि , फिरि चन्दावती सब तना उनके साथै तीस साल रहीं। चन्दावती उनकी बिरादरी कि न रहैं। तीस साल पहिले उनका परेम हुइगा रहै। हनुमान दादा बीस बिसुआ के कनवजिया औ चन्दावती गाँव कि तेलिनि। तबै चन्दावती क्यार गउना न भवा रहै। गाँव-म उनके मंसवा के मरै केरि खबर आयी रहै। चन्दावती वाकई-म चन्दै रहै। जो कोऊ याक दाँय द्याखै ऊ देखतै रहि जाय,बहुतै खबसूरत रहै चन्दावती।
ऊ जमाना रहै जब दबंग बाँभन ठाकुर जउनि नीची जातिन केरि सुन्दरि बिटिया बहुरिया देखि लेति रहैं तौ वहिका जब चहै तब अपनी हवस क सिकार बनाय लेति रहै। तब गरीब परजन के घर की मेहेरुवन केरि कउनौ इज्जति न रहै।कउनौ कानून न रहै इनके ऊपर।चन्दावती के घरवाले चन्दावती के परेम ते बहुतै खुस भे रहै।’.....
‘ द्याखौ दादा सौ-सौ रुपया दच्छिना दीन जाय रहा है’ -मोलहे इसारा कीन्हेनि। ‘रामफल दादा समझायेनि- तेरहीवाले बाँभन आँय,इनका दुरिही ते पैलगी कीन्हेव। इनकी नजर ते बचिकै रहैक चही।‘ ’ सकटू पूछेनि -काहे दादा? ‘
‘ तुम यार यकदमै बउखल हौ,हियाँ आये हौ तेरही खाय ,सवालन केरि झडी लगाय दीन्हेव।‘
‘ सकटू भइया तुम तमाखू बनाओ-लेव चुनौटी पकरौ।‘ ’अबही तमाखू ?अब तौ भोजन के बादि तमाखू खायेव।‘ ’तमाखू कि महिमा तुम नही जानति हौ-सुनौ- कृष्न चले बैकुंठ को राधा पकरी बाँह
हियाँ तमाखू खाय लो हुआँ तमाखू नाहि।...कुछ समझ्यो,अबै टेम है, तब तक तमाखू बनि सकति है। जबतक खानदान के मान्य न खाय ले तबतक हमार नम्बर कइसे लागी।‘
‘ठीक कहति हौ रामफल दादा।‘ ’कहिति तो हम ठीकै है,..... सुनति तो नही हौ। बनाओ। तमाखू बनाओ।‘ ‘तेरह बाँभन दान दच्छिना लइ कै चलि दीन्हेनि रहै।‘
महाबाँभन के पाँय छुइकै चन्दावती दायी अलग ते वहिका पाँच सौ रुपया दच्छिना दीन्हेनि। वहिकी आँखी चमकि गयी।वहु अपन दुनहू हाँथ ऊपर उठाय के आसिरबाद दीन्हेसि तीके तेरहौ बाँभन अपन हाथ उठाय कै आसीस दीन्हेनि।
छोटकउनू महराज चाँदी की तस्तरी-म पान तमाखू ,इलायची,लौग लइकै आगे बढिकै सबका बिदा कीन्हेनि। दुइ ताँगा उनका लइ जाय खातिर पहिलेहे तयार रहै। दुनहू ताँगावाले भोजन कइ लीन्हेनि रहै। उनका केरावा दइ दीन गा रहै, अउरु घर की खातिर परसा बाँधि दीन गा रहै। तेरहौ बाँभन जब ताँगन-म बइठि लीन्हेनि-तब महाबाँभन के इसारे ते ताँगा हाँकि दीन गे। हनुमान दादा की तेरही-म ताँगन-म जुति कै आये दुनहू घोडवनौ केरि दाना- पानी-मेवा ते खुब सेवा कीन गइ रहै,सो वहू मस्त हुइगे रहै।

1 टिप्पणी:

बलराम अग्रवाल ने कहा…

उपन्यास का कथानक तो मिट्टी से जुड़ा है ही, भाषा की रवानगी भी देखते ही बनती है। भाषा का ऐसा दाना-पानी-मेवा मिलता रहे तो लिखे शब्दों को पढ़ने से दूर भागने वाले टट्टू भी घोड़ों जैसे मस्त पाठक बनने की ओर प्रवृत्त हो सकते हैं। इस दूसरे उपन्यास की शुरुआत पर आपको बहुत-बहुत बधाई।