लोक जीवन के कवि गिरधर की काव्य भाषा अवधी है ऐसा मुझे जान पडता है।आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार उनका जन्म सम्वत-1770 के आसपास हुआ होगा।गिरधर जी कृषिचेतना,नीति वचन,ज्ञान-वैराग्य आदि के कवि माने जाते हैं किंतु उन्होने सोने का व्यापार करने वाले सेठों के घर की व्याकुल नारियों को भी निकट से अपने गाँव जवार मे देखा होगा,इसलिए वो उसकी दशा का भी मार्मिक चित्रण करते हैं।देखें लोक लोक कवि गिरधर की दो कुंडलिया-
1.हीरा
हीरा अपनी खानि को,बार बार पछिताय।
गुन कीमत जानै नहीं,तहाँ बिकानो आय।।
तहाँ बिकानो आय,छेद करि कटि में बांध्यो।
बिन हरदी बिन लौन मांस ज्यों फूहर रांध्यो॥
कह गिरधर कविराय,कहाँ लगि धरिए धीरा।
गुन कीमत घटि गयी,यहै कहि रोयेव हीरा॥
2. सोना
सोना लादन पिव गये,सूना करि गये देश।
सोना मिला न पिव मिले,रूपा हो गये केश॥
रूपा हो गये केश,रोय रंग रूप गँवावा।
सेजन को विस्राम,पिया बिन कबहुँ न पावा॥
कह गिरधर कवि राय,लोन बिन सबै अलोना।
बहुरि पिया घर आव,कहा करिहौ लै सोना॥
3 टिप्पणियां:
लोन बिन सबै अलोना .. म सास्वत ब्यथा समायी है! लोक जीवन कै झाँकी बहुत करीने से देखाये हैं कबिराय! फार्मौ चकाचक अउर भित्तर है भावउ !! आभार भैय्या!
अवधी और ब्रज के अनेक कवि ऐसे हैं जिन्ह पढ़े बिना हिन्दी के लोक को समझना असम्भव है। गिरधर और नरोत्तम के नाम उनमें आसानी से लिए जा सकते हैं। गिरधर के कुंडली-छंद का अत्यंत सफल प्रयोग हास्यकवि काका हाथरसी ने ब्रजभाषा के माध्यम से किया था।
गिरधर कविराज के छंदो मे रहस्य छुपा होता जो समाज के किसी को हमारे समक्ष करता है
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