पुस्तक मेला
कुछ
पर्ची बांटति बुद्धिमान
कुछ
धरमधुरन्धर ब्यापारी
कल्लू
-कबीर सब एक भाव
रचना
मा तनिकौ नही ताव
अपनी
ढपली पर अपनि बीन
हम
पुस्तक मेला देखि लीन।
कुछ
कुर्ता वाले देखि लीन
कुछ
टाई वाले देखि लीन
कुछ
जनबादी कुछ फौलादी
कुछ
मेहेरबान कुछ गिरगिटान
कुछ
दाढीवाले लेखकन का
हम
गोल बनाये देखि लीन।
औरतै
हुआ हैरान मिलीं
भौचक्की
याक दुकान मिली
फिर
चमकै वाली साडिन मा
परकटी
लेखिका कई मिलीं
आपनि
किताब देखरावै का
उइ
हरबराय कै गिरी जांय
उइ
आलोचक संपादक के
कान्धे
पर मानौ चढी जांय
कुछ
नैन मिले बेचैन मिले
हम
सबकी कइती पीठि कीन।
जब
भूख लागि जिउ बिलबिलान
खाना
तौ बहुतै मंहग रहै
स्वाचा
चाहै ते काम चली
लरिकौनू
हमका समझायेनि
अब
चाह नही है- काफी है
हम
हुनुर हुनुर करतै रहिगेन
वुइ
दुइ कुझ्झी काफी लाये
मुंहु
बरिगा याकै चुस्की मा
जब
सौ रुपया का रेट सुनेन
जिउ
गा अघाय सब देखि लीन।
बडकई
दुकानै चमकि रहीं
कुछ
पैसावाले ठनकि रहे
कुछ
सेल्फीबाज नए लउडे
छोकरिन
संग मुस्क्याय रहे
कुछ
अपनी धज मा सजे बजे
बिद्वान
बने गपुवाय रहे
कुछ
पुरस्कार की चर्चा मा
कुछ
सोक सभा के खर्चा मा
अपनी
तरंग मा सबै लीन।
ऊ
सवालाख का प्रोफेसर
सेतिहै
किसान की बात करै
रिक्सा
वालेन ते बहस करै
रेडीवालेन
ते मोलभाव
मजदूरन
पर भासन झाडै
अपनी
किताब की चर्चा मा
सब
अपनै खर्चा कै डारै
परकासक
की चमचागीरी
संपादक
के जूता उठाय
ऊ
रहै संझोले कद का मुलु
अब
बनिगा है बिद्वान बडा
बंतू
लेखकन की भीड बढी
कबिता-
किसान ई का जानैं
ना
सोसित महिला की पुकार
ना
दलितन का कोई सुधार
ना
हिन्दू है -ना मुसलमान
ई
भाट आंय ई बेरिया के
ढोंगी
नौटंकीबाज बडे
अब
का करिहौ दद्दू हमार
हमका
समझायेनि गयादीन।
चौगिरदा
इनका रोब बढा
कुछ
कुंअर बहादुर मिले हुआ
कुछ
लपकी चपकी कबयित्री
लढिकौने(ट्राली
बैग वाले) वाले व्यंग्यकार
कुछ
नक्सा वाले कलाकार
मजदूर
मिले परकासक के
मानौ
सब फगुई खेलि रहे
सब
अपनै आपन पेलि रहे
धन्धेबाजन
के धक्के मा
हमहू
खुद का पहिचानि लीन
साहित्य
कहां पर बिथरि गवा
बसि
यहिबिधि सांचौ जानि लीन।
@भारतेन्दु मिश्र
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