बुधवार, 22 फ़रवरी 2017


पढीस जी की कविताई
(पुस्तक अंश )
प्रस्तुति-भारतेंदु मिश्र 

              पढीस जी अवधी समाज के कवि ही नही वरन प्रगतिचेता समाज सुधारक के रूप मे देखे जाते हैं।वे लगातार अपनी जातीय सामजिक रूढियो को न केवल चुनौती द्ते चलते हैं वरन भरपूर संघर्ष भी करते हैं।समय और अवसर पाते ही वे इसी उद्देश्य के लिए दूसरो को प्रेरित भी करते हैं।बडी बात ये है कि वे जो अपनी रचनाओ मे कहते हुए दिखाई देते हैं वैसा ही जीवन वे स्वयं जीते भी हैं।उनके जीवन और साहित्य मे अंतर नही है।जब एक ओर स्वतंत्रता संग्राम के सहभागी बुद्धिजीवियो की देशभक्ति परक कविताओ का दौर चल रहा था,और दूसरी ओर छायावादी कविता की श्रंगारिक और नितांत वैयक्तिक प्रणयानुभूतियो की कविताएं लिखी जा रही थीं। उस दौर मे पढीस जी अपने गांव के मजदूरो किसानो के जीवन की आख्यानधर्मी कविताएं लिख रहे थे।पढीस जी की कविताई की विशेषताएं-
1.किसान चेतना 2.छायावादी प्रभाव 3.प्रगतिवादी स्वर 4.ग्रामीण स्त्रियो का श्रमसौन्दर्य 5. अंग्रेजियत का परिहास तथाआत्मव्यंग्य 6.मानवतावादी दृष्टि7.कुलीनतावाद का विरोध 8.अवधी की गहरी समझ


 1.किसान चेतना
ये कुछ ऐसी विशेषताएं है जो पढीस को अपने समय का सर्वश्रेष्ठ अवधी कवि साबित करती हैं।बाद के अवधी कवियो ने उन्ही की लीक पर चलकर अवधी कविता को प्रगतिशीलता के सही मायने समझाए।एक खासबात ये भी है कि पढीस जी की किसी कविता मे ईश्वर भक्ति वन्दना या प्रार्थना अथवा अपनी निरीहता दिखलाकर ईश्वर से कुछ मांगने का भाव शायद नही दिखता। सन 1933 मे चकल्लस का प्रकाशन हुआ।अर्थात इसमे संकलित सभी  35 कविताएं अपने समय से न केवल संवाद करती हैं बल्कि रूढि मुक्त समाज के मनुष्य का निर्माण करने की दिशा भी तय करती हैं।इसके अलावा पढीस जी की 20 अन्य कविताएं भी ग्रंथावली मे संकलित मिलती हैं जो चकल्लस के बाद लिखी गयीं होंगी।निराला जी ने चकल्लस की भूमिका मे लिखा था-‘मेरे मित्र बलभद्र प्रसाद दीक्षित पढीस,चकल्लस के कवि अपनी रचनाओ के साथ बहुत दिनो से मेरी दृष्ति मे एक अच्छे कवि के रूप से परिचित हैं।वह सीतापुर अवध की देहाती भाषा में कितनी अच्छी कविता करते हैं,पाठक स्वयं चकल्लस पढकर देखेंगे।....देहाती भाषा में होने पर भी जहां तक काव्य का संबध है चकल्लस अनेक उच्च गुणो से भूषित है।इसके चित्र सफल और सार्थक हैं।स्वाभाविकता पद-पद पर ,परिणति मे पूरी संगति है।हिन्दी के अनेक सफल काव्यों से यह बढकर है,मुझे कहते हुए संकोच नही।–देहाती लडकी का चित्र है-फूले कांसन ते ख्यालयि/घुंघुंवार बार मुहु चूमयि/बछिया बछरा दुलरावयि/सब खिलि खिलि ख्लि खुलि ख्यालयिं/बारू के धूहा ऊपर/परभातु अइसि कसि फूली/पसु पंछी मोहे मोहे/जंगल मा मंगलु गावै/बरसाइ सतौ-गुनु चितवयि/कंगला किसान की बिटिया।–इस पुस्तक के पाठ से स्मरण हो आया-वयं शस्त्रांवेषेण हता:।मधुकर,त्वं खलु कृती।(लखनऊ-6/12/1933)’ (पढीस ग्रंथावली-पृ-65)
निराला जैसा विख्यात अक्खड और समर्थ कवि उस समय जिसकी प्रश्ंसा कर रहा हो वह कवि कमजोर कैसे हो सकता था।निराला जी सूत्रात्मकता के साहित्यकार हैं ।वे पढीस जी की प्रशंसा का सूत्र देते हुए संस्कृत की उक्ति का सहारा लेते है
जिसका शब्दार्थ है-हम सब शस्त्र के अन्वेषण मे ही मर गए किंतु ए मधुकर तुम तो निश्चय ही कर्मठ निकले।अब जरा इसकी व्यंजना देखिए-हम सब भद्रलोक की भाषा चेतना वाले साहित्यकार तमाम आडम्बर खोजने बनाने मे अपनी शक्ति क्षीण करते रह गए किंतु हे भ्रमर(पढीस) निश्चय ही तुमने स्वाभाविक रूप से अनायास ही साहित्य का पराग बिखेर दिया है।कृती तो तुम ही हो।इस प्रकार की प्रशस्ति वह भी निराला जी के द्वारा जिस कवि की गयी हो उसे हमे गंभीरता से पढना चाहिए।
अत्यंत स्वाभाविक है कि पढीस जी अपने समय के प्रबुद्ध साहित्यकार के रूप मे जाने जाते थे।हमारा समाज अनेक स्तरो पर संघर्ष कर रहा था।गरीबी,अशिक्षा,जातीय चेतना, भाषा, बिदेशी गुलामी आदि कई दबाव थे हमारे तत्कालीन चिंतको पर। पढीस जी की कविताओ मे ऐसे अनेक प्रश्नो के समाधान
या समाधान का मार्ग देखने को मिलता है।कवि सन 1930 के आसपास कंगला किसान की बेटी पर कविता लिखता है।जब हमारे स्वनाम धन्य छायावादी कवि प्रकृति की रासलीला के गीत गुनगुना रहे थे। पढीस जी अपने समय मे रहकर भी समय से भुत आगे की काव्य दृष्टि लेकर चलने वाले कवि हैं।पढीस जी का समय पर जैसा मूल्यांकन किया जाना चाहिए वह नही हुआ।इस उपेक्षा का एक बडा कारण उनका अवधी मे लिखना भी माना जा सकता है।अवधी भाषा को उसके समय और सामर्थ्य के अनुरूप व्याख्याता नही मिले।वंशीधर शुक्ल ,रमई काका,
मृगेश,विश्वनाथ पाठक आदि के अलाव बाद के ज्यादातर अवधी के कवि अवधी को हास्य कविता का साधन बनाने मे लग गये।अवधी मे धार्मिक साहित्य लिखने वाले भी कवियो की कमी नही रही।
बहरहाल पढीस जी जिस मानवीय प्रगतिशील चेतना की बात लेकर चल रहे थे वह पक्ष अवधी समाज के विकास प्रबल पक्ष था।पूरे देश मे ये अवध ही सबसे घनी आबादी वाला क्षेत्र है।तब भी था जब पढीस जी लिख रहे थे।ये प्रगतिशील चेतना उनदिनो लखनऊ मे भी घोअ चर्चा का विषय बनी हुई थी।यही कारण हैकि लखनऊ मे ही प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अधिवेशन 9-10 अप्रैल 1936 को मुंशी

प्रेमचन्द जी की अध्यक्षता मे संपन्न हुआ था।जैनेन्द्र जी भी इस अधिवेशन मे शामिल हुए थे।तब निराला ,रामविलास शर्मा यशपाल,अमृतलाल नागर,और पढीस जी भी लखनऊ मे रहे होंगे।इस अधिवेशन मे कौन शामिल हुआ कौन नही यह कहना कठिन है।लेकिन इतना जरूर सच है कि प्रगतिशील चेतना की बयार उस समय लखनऊ मे भी बहने लगी थी। रामविलास जी ने यू ही नही पढीस ग्र्ंथावली का संपादन स्वीकार किया था।वे पढीस जी की प्रगतिशील चेतना के साक्षी भी रहे थे।अवधी मे लिखने के कारण पढीस जी को प्रगतिशीलो की उपेक्षा का भी सामना करना पडा हो यह भी हो सकता है क्योकि उनदिनो हिन्दी के मानकीकरण की बात भी चलने लगी थी।सभी विभाषाओ(अवधी,ब्रज,भोजपुरी,मगही,मैथिली,कौरवी,
बघेली,बुन्देली आदि) को मिलाकर हिन्दी को सशक्त भाषा बनाने की बात जोर पकडने लगी थी। इसी समय मे पढीस,वंशीधर शुक्ल,रमईकाका जैसे प्रातिभ कवि
अवधी भाषा मे आकर आधुनिक अवधी की नीव को मजबूत करते हैं।इन तीनो कवियो के सामने अवध के किसानो की दुर्दशा और उनका दयनीय जीवन था।रूढिग्रस्त जीवन ,अशिक्षा ,कुपोषण से ग्रसित समाज को उसकी भाषा मे ही जागरूक किया जाना था इस लिए पढीस जी ने अवधी मे कविता की उन्हे आधुनिक अवधी की शक्ति का पता था। बाद मे वंशीधर शुक्ल ,रमई काका जैसे अन्य कवियो ने भी उनकी बनाई लीक को और आगे तक बढाया। तात्पर्य ये कि पढीस जी जानबूझकर अपने लेखन की सार्थकता को ध्यान मे रखते हुए अवधी मे कविता कर रहे थे।पढीस जी के बारे मे डा.श्यामसुन्दर मिश्र  मधुप का कथन है-       ‘जहां तक बलभद्र प्रसाद दीक्षित पढीस जी का प्रश्न है,आंचलिक अवधी में कविता की नई लीक डालने का श्रेय उन्ही को है।वे शुक्ल जी से 6 वर्ष बडे थे।शुक्ल जी एकसीमा तक उन्हे अपना प्रेरक मानतेथे।’(वंशीधर शुक्ल रचनावली,संपादकीय,पृ.xii )  पढीस जी की ख्याति आसपास के जनपदो मे उससमय तक अवधी कवि के रूप मे हो चुकी थी।उनकी कविताई की शक्ति के बारे मे पढीस ग्रंथावली के आमुख मे कथाकार पं.अमृतलाल नागर कहते हैं-
 सन 32-33 मे हमने पहलीबार पढीस जी को निराला जी के यहां देखा था।तब तक उनकी एक कविता-सब सट्टी बिकी असट्टय मां,लरिकौनू एमे पास किहिन।–लगभग स्ट्रीट सांग जैसी लोक प्रिय हो चुकी थी।’
असमय देहांत हो जाने के कारण पढीस जी का साहित्य विपुल मात्रा मे नही है किंतु जितना है वो आधुनिक अवधी समाज और भाषा की दिशा तय करने वाला साबित हुआ है। 
हालांकि बाद मे उन्होने खडी बोली गद्य मे बेहतरीन काम भी किया उनका कथा संग्रह ‘ला मजहब’(1938) मे प्रकाशित हुआ था। इन कहानियो मे प्रेमचन्द युगीन कथा कौशल साफ दिखाई देता है।अल्पायु मे चले न गये होते तो शायद अवधी और हिन्दी दोनो भाषाओ को कुछ और बेहतर साहित्य दे जाते।
पढीस जी किसानो के लिए ही कवि बने उनके ही जीवन मे बदलाव का उद्देश्य लेकर पढीस जी ने कविताई शुरू की थी।बाढ सूखा भुखमरी जैसी विपत्तियां
उनदिनो आमतौर से किसानो को लगातार झेलनी ही होती थीं।उस पर सामंतो तालुकेदारो के अन्याय पूर्ण आचरण गरीब किसानो को अपमानित और लांछित जीवन जीने के लिए विवश करता था।जाति और बिरादरी की मार तिसपर ब्रहमणवादी धार्मिक व्यवस्था सबसे ज्यादा गरीबो किसानो को पीडित कर रही थी।
पढीस जी का संघर्ष बहुआयामी था।एक ओर उन्हे अपने बिरादरी वालो को सही मार्ग दिखाना था दूसरी ओर गरीब रूढिग्रस्त किसान को सुरक्षित करना था।एक ओर दरबार की नौकरी थी तो दूसरी ओर अपनी साहित्य साधना भी चल रही थी।एक ओर पढीस जी दरबारी पोशाक पहनकर घोडे पर बैठे दिखाई देते हैं तो दूसरी ओर सबकुछ छोडकर खेत मे हल जोतते भी दिखाई देते हैं। सच्चे अर्थो मे वे एक समावेशी समाज का प्रतिनिधित्व करते हुए दिखाई देते हैं।उनके मन मे श्रम का सम्मान करने की प्रबल चेतना विद्यमान है।किसान को जगाते हुए पढीस जी कहते हैं-
 वुइ लाटकमहटर के बच्चा,की संखपतिन के परपोता
वुयि धरमधुरन्धर के नाती,दुनिया का बेदु लबेदु पढे
वुइ दया करैं तब दान देंयि,वुइ भीख निकारैं हुकुम करैं
सब चोर होर मौस्याइति भाई,एक एक पर ग्यारह हैं
तोंदन मा गड्वा हाथी अस,वुइ अउर आंय हम अउर आन।(पृ.148 वही)
इस कविता को लेकर प्रख्यात मार्क्सवादी विचारक डा. रामविलास शर्मा जी ने अपने संपादकीय लेख में जो टिप्पणी की है वह बेहद विचारणीय है-
 ‘उयि और आंयिं।उयि कौन हैं जो औरि आंयिं?ये जमीदार हैं और हम और आन-किसान हैं,जमीदार दूसरे वर्ग के हैं किसान दूसरे वर्ग के।वर्ग चेतना को लेकर लिखी हुयी हिन्दी की यह पहली कविता है।यहां पर अंग्रेज से लडायी है।लेकिन जमीदार से भी लडायी है,इसलिए कि अंग्रेज का सबसे बडा समर्थक यहां का सामंत है,यहीं का जमीदार है’(पृ.-7 वही) 
प्रस्तुत पंक्तियो मे मे साफ तौर पर अंग्रेज बहादुरो की कम्पनी वाली व्यवस्था और स्थानीय सामंतो के बीच फंसे किसान को अपनी अस्मिता से अवगत कराने की जतन कवि कर रहा है।असल मे पढीस जी जैसे संवेदनशील कवि की यह स्वाभाविक चिंता रही होगी।ये पूरी कविता पं.रूपनारायण पांडेय द्वारा संपादित ‘माधुरी’के फरवरी 1943 के अंक मे प्रकाशित हुई थी।किंतु चकल्लस मे ‘वुइ का जानेनि हम को आहिन’ शीर्षक कविता का अवलोकन कीजिए-
दुनिया के अन्नु देवइया हम,सुख संपति के भरवैया हम
भूखे नंगे अधमरे परे,रकतन के आंसू रोय रहे
हमका द्याखति अंटा चढिगे,वुइ का जानेनि हम को आहिन
ज्याठ की दुपहरी,भादौं बरखा ,माह के पाला पथरन मा
हम कलपि कलपि औ सिकुरि सिकुरि ,फिर ठिठुरि ठिठुरि कै जिउ देयी
ठाकुर सरपट सौं कइगे,वुइ का जानेनि हम को आहिन
मोटर मा बैठी बिस्मिल्ला,दुइ चारि सफरदा सोहदा लइ
 जामा पहिन्दे बे सरमी का,खुद कूचवान सरकार बने
पंछी –पेढुकी मारेनि खाइनि,वुइ का जानेनि हम को आहिन।
हम कुछ आहिन वुइ जानैं तौ,वुहु नातु पुरातन मानैं तौ
वुइ रहिहैं तौ हमहू रहिबै ,हमते उनहुन की लाज रही
घरु जरि कै बंटाधार भवा,तब का जानेनि हम को आहिन।(पृ.79 वही)
किसान की ओर से लगातार पढीस जी गैरबराबरी को रेखांकित करते हुए सामंतवादी व्यवस्था को समाजवादी तर्को से निर्मूल करना चाहते थे।सबको समानता की नजर से देखने का उस समय बहुत जोर चल रहा था। पढीस जी का गांव गोमती नदी के किनारे बसा है।नदी है तो जल की संपन्नता भी होगी और बाढ की विभीषिका भी सामने आती रहेगी।बालू के टीलो की बात ,खेतो की फसलो की अनंत राशि,फल- फूल ,बाग और जंगल आदि के नैसर्गिक बिम्ब उनकी कविताई मे मिलते हैं।खास बात तो यह है कि पढीस जी ग्राम्य सौन्दर्य के कवि के रूप मे दिखाई देते हैं।उनकी लंबी कविताओ मे कहानिया भी हैं अर्थात वे आख्यानधर्मी लंबी कविताएं भी लिखते हैं।शीर्षक कविता चकल्लस का कथ्य भी पूरनमासी को होने वाले मेले को समर्पित है।अब इस प्रकार मेले उनदिनो गावो की जिन्दगी मे बहुत महत्वपूर्ण होते थे।.......
चला टींडीं तना मनई, न तांता टूट दुइ दिन तक
कचरि छा सात गे तिनमा,अधमरा मयिं घरै आयउं।
पूरनमासी के मेले को देखने के लिए गांव का आम आदमी टिड्डी दल की तरह एक के पीछे एक लगातार बढता चला आता है।यह आने जाने का क्रम दो दिन तक नही टूटता।इस भीड मे छ-सात लोगो के कुचले जाने की भी सूचना मिली,मै इस भीड मे किसी तरह अधमरा होकर घर वापस आ पाया हूं।मेले का भव्य वर्णन
आगे देखिए-
जहां द्याखौ तहां ददुआ,लाग ठेठर(थियेटर)गडे सरकस
ठाढ तम्बू कनातन मा,चक्यउं चौक्यउं कि बौरान्यउं।
 गांव का अभावग्रस्त किसान कहता है-अरे दादा! जहा देखो वहीं थियेटर लगा है बडे बडे सरकस के तम्बू खडे हैं उन्हे देखकर मुझे मतिभ्रम होने लगा।पता नही कि मै चकित हो गया या कि बौरा गया ।सरकस का टिकट चार आने का था मेरे पास कुल सात पैसे थे।किसान अनाज लेकर मेला देखने जाता था कि अनाज बेचकर अपने लिए कुछ सामान इत्यादि ला सके।कवि कहता है कि किसान की पीठपर एक थैला भर ज्वार थी जो चार आने की तो होगी लेकिन उसका भी तुरंत विनिमय नही हो पाया।इसी बीच उधारी के लिए निवेदन किया तो वह भी संभव नही हुआ।देखिए पढीस जी कहते हैं-
चवन्नी की रहै जोन्धरी,परी झ्वारा म पीठी पर
मुलउ टिक्कसु उधारउ काढि का, काका न लयि पायउं।
लिहिन बढकायि दस बजतयि, सबयि खिरकिन कि टटियन का
ठनक तबला कि भयि भीतर,टीप फिरि याक सुनि पायउं
जो बाढी चुल्ल खीसयि काढि का,बाबू ति मयिं बोल्यउ
’घुसउं भीतर ?’ चप्वाटा कनपटा परि तानि का खायउं।
यितनेहे पर न ख्वपडी का सनीचरु उतरिगा चच्चू
सौपि दीन्हिस तिलंगन का ,चारि चबुका हुवउ खायउं।
रहयिं स्यावा सिमिरती के बडे मनई कि देउता उयि
किहिन पयिंया पलउटी तब छूटि थाने ते फिरै पायउं।
चला आवति रहउं हफ्फति,तलयि तुम मिलि गयउअ ककुआ
रोवासा तउ रहउ पहिले,ति तुमका देखि डिडकारेउं।
तनकु स्यहित्यायि ल्याहउं तब करउं बरनक चकल्लस का
पुरबुले पाप कीन्हेउं तउन दामयि दाम भरि पायउं।(पृ.70)
 यह संग्रह की शीर्षक कविता है पढीस जी की पहचान इसी पहली अवधी कविता
से बनी होगी। गराब किसान की मनोदशा का चित्रण इस कविता मे उल्लेखनीय है  कि कविता का नायक किसान अपने जीवन मे थोडा मनोरंजन करने के लिए किस प्रकार मेले मे जाकर तत्कालीन बाजारवादी ताकतो के सामने विवश होता है और
प्रताडित होकर पिट पिटाकर किसी तरह रोता हुआ घर वापस आता है।यह कविता तमाम तथाकथित सामंतो और सभ्य लोगो के मुंह पर तमाचा है।वर्णन की मनोवैज्ञानिकता तो बहुत ही आकर्षक और प्रेरक है।लगता है कि पाठक स्वयं ही उस किसान के स्थान पर थियेटर मे घुसने के लिए बेताब है और जो पिटकर बाहर आ रहा है।यह हास्य की नही करुणा की कविता है लेकिन हमारे तमाम विचारको ने इसे हास्य की दृष्टि से व्याख्यायित किया है। करुणा की बडी कविताए ही हमारी मानवीय संवेदनाओ को झकझोरती हैं। जब किसान थियेटर मे घुसने की कोशिश करने लगता है तो दरबान उसके मुंह पर जोर का तमाचा लगता है तो उसे
लगता है कि शायद उसका कोई बुरा ग्रह जिसे शनीचर कहते हैं वो उतर गया है।लेकिन वो थियेटर वाले उसए तिलंगो को सौपते है जो चार चाबुक मार कर उसे आगे मेला सेवा समिति वालो को सौप देते है।सेवा समिति वालो के पैर दबाकर किसी तरह वो किसान थाने से छूटकर आता है।तब जब हांफता हुआ आ रहा था कि उसे गांव के ककुआ मिल गये तो उनसे कहता है-कक्कू बहुत देर से रोने का मन कर रहा था लेकिन तुमको देखकर जोर की रोने की चीख निकल पडी है।कवि कहता है तनिक सुस्ता लिया जाये तब आगे चकल्लस का वर्णन किया जाएगा।किसान कहता है कि मैने पूर्वजन्म मे बहुत पाप किये हैं तो उन्ही का भुगतान मिल रहा है।
प्रश्न ये है कि इस कविता मे विसंगति है अशिक्षित किसान की पीडा है दुख है।इसमे हास्य का पुट केवल चकल्लस शब्द से ही व्यंजित होता है।परंतु यदि ध्यान दिया जाए तो ये कविता भले ही भद्रजन को हास्य कविता लग सकती है।कवि ने गरीब किसान का मजाक बनाने के लिए तो यह कविता कदापि नही लिखी होगी।वस्तुत: अपनी संवेदना की गंभीरता के कारण ये कविता किसान के भोलेपन की मर्म वेदना प्रस्तुत करती है।यह हास्य की कविता नही लगती।
पढीस जी चकल्लस की भूमिका मे लिखते हैं- ‘ यदि शहरी शिक्षित समाज इस बात का अनुभव करे कि देहाती भाषा मार्जित भाषा का एक अंग है ,अपनी भविष्य की भाषा निर्माण मे उससे सुन्दर से सुन्दर मसाला मिलेगा।साथ ही साथ देहाती 
शिक्षित युवक समाज अपनी प्यारी मातृभाषा को अपनाने लगे,तो वह हिन्दी भाषा का एक सुन्दर से सुन्दर अंग हो सकती है।चकल्लस एक देहाती आदमी की लिखी ,देहाती भाषा मे,देहाती चित्रो की एक कितबिया है।इसको पढने के लिए पंडितो की भाषा जानने की आवश्यकता नही।यह हृदय की भाषा मे लिखी गयी है,और हृदय की भाषा का अध्ययन कर लेने पर इसमे आनन्द मिलेगा।हृदय की वह भाषा जो पशु पक्षियों तक के मन का हाल जान लेती है।’(पृ.69 वही)
अर्थात पढीस जी जानबूझकर अपनी देहाती भाषा को पूरे स्वाभिमान से अपनाते हैं और नवयुवको को यह भी समझाने का प्रयत्न करते हैं कि यह बोली नई परिमार्जित हिन्दी भाषा को ऊर्जा प्रदान करने वाली है।इस भाषा मे हृदय की सच्ची संवेदना के खुशबू है।जिस पाठक वर्ग के लिए यह किताब लिखी जा रही है यह उन्ही की भाषा मे लिखी है इसमे किसी पंडित विद्वान विचारक जैसे बिचौलिए की आवश्यकता नही है।
   ................  पर प्रकृति और मनुष्य के सह संबन्ध की मार्मिक कविताई पढीस जी के यहां अपनी अप्रतिम सौन्दर्य राशि के साथ बिखरी पडी है।मनुष्य का जीवन प्र्क़ृति के साहचर्य के बिना अधूरा है।पढीस जी जितने प्रकृति के कवि हैं उतने ही मनुष्य जीवन की मार्मिक सौन्दर्य चेतना और उसके संघर्ष के कवि भी हैं।पढीस जी किसान की खेती की समस्याओ से बेहतर ढंग से वाकिफ थे।राजा कसमंडा के दरबार मे अक्सर किसान अपनी दैनन्दिन समस्याओ को लेकर उनके ही सामने उपस्थित होते थे क्योकि पढीस जी ही वहां के राजा के प्राइवेट सेक्रेटरी थे।इस प्रकार हम कह सकते है कि पढीस जी के पास वैविध्यपूर्ण जीवन के अनुभवो का संसार था।जो उस समय के अन्य रचनाकारो के पास प्राय: नही था।     
पढीस जी की संपूर्ण कविता ही किसान चेतना को समर्पित है।वो राजा की नौकरी मे थे तब भी किसानो की सहायता करते रहे नौकरी के बाद आकाशवाणी मे नौकरी की उसका भी लक्ष्य गांव की समस्याओ का समाधान और किसान के जीवन को सहज बनाना।दीनबन्धु किसान पाठशाला अपने आप मे किसान संघर्ष को सही दिशा देने के लिए ही स्थापित की गई थी।यही नही किसान कवि को खेत मे हलचलाते समय फाल लगने से असमय टिटनेस से काल का भी वरण करना पडा।किसानओ की चिंता ही उनके कवि लेखक और जीवन का भी मुख्य सरोकार दिखाई देता है।
सामंत और सर्वहारा के बीच की खाईं को पढीस जी ने बखूबी समझ लिया था।यही कारण है कि उनकी अनेक कविताएं किसान की व्यथा को परिभाषित करती
है।कवि किसान की भाषा मे लगातार चेतावनी देता चलता है।कवि का उद्देश्य कहीं भी पांडित्य प्रदर्शन करना नही बल्कि सर्वहारा गरीब किसान को जागरूक करना है।सामंतो के लिए कवि किसानो की ओर से कहता है-
हम कुछु आहिन वुइ जानै तौ
वहु नातु पुरातन मानै तौ
वुयि रहिहैं तौ हमहू रहिबै
हमते उनहू की लाज रही
घरु जरि कै बंटाधारु भावा
तब का जानिन हम को आहिन।(पृ.79 वही)
सामंतो के सामने किसानो का कोई अस्तित्व ही नही बचा था।एक तरफ अंग्रेजी राज की शोषण वाली नीतियां दूसरी तरफ अपने ही सामंतो के चाबुक से खाल नुचवाते सर्वहारा किसान।पढीस जी इसी सामंतवादी सोच पर व्यंग्य करते हुए भलेमानुस कविता मे कहतेहैं-
हैं गांव गेरावं जिमीदारी
दुइ मिलइ खुली सक्कर वाली
सोंठी साहुन के परप्वाता
हुंडी चलती मोहरवाली
बंकन मा रुपया भरा परा
तिहिते हम बडे भले मानुस।(पृ.107 वही)
 ये जो तथाकथित भला मनुष्य है वो ही किसान का सच्चा शोषक है।कवि समाजवादी सोच को लेकर आगे बढता है कि समाज मे गैरबराबरी और सामाजिक विसंगतियो पर प्रहार किया जाए ताकि किसान और सामंतो के बीच की दूरी कम हो सके।पढीस जी फरियादि शीर्षक कविता मे देशी विदेशी दोनो प्रकार के सामंतो को चेतावनी देते हुए कहते हैं- 
वुइ साहेब हैं तुम साहूकार
वुइ फौजदार तुम तुम जिमीदार
हर की मुठिया को गहि पायी
जो भोगयी छोडिनि अपनि चालु।(पृ.-86-वही)
यहां भोगयी का तात्पर्य व्यक्ति विशेष न होकर सारे कष्ट भोगने वाला सर्वहारा है।जिसे हर दशा मे सेवा करनी है हल चलाना है कष्ट भोगना है।कवि सर्वहारा की ओर से सामंतो से फरियाद करता है कि अब वो अपने आचरण से बाज आयें आपस का संघर्ष छोडें पूरे समाज के हित पर विचार करें,अन्यथा यह मानवता, सामाजिकता और सांसारिकता समाप्त हो जाएगी।समाज को बदलने के लिए उसी समाज की भाषा मे बात करनी होती है।पढीस जी इसी लिए अवधी भाषा मे कविता करते हैं।सर्वहारा और सामंतो का अंतर पढीस जी लगातार स्पष्ट करते हुए चलते हैं।अनेक कविताओ मे अनेक तरीको से कवि किसान और सामंत दोनो को चेतावनी देता हुआ चलता है कि दुनिया बदल रही है।अमीर गरीब सब एक होकर समाज का नवनिर्माण करें अन्यथा सर्वनाश हो जाएगा।पढीस जी की अनेक कविताएं ‘स्वाचौ स्वाचौ,च्यातौ च्यातौ’ जैसे संबोधनो से ही प्रारंभ होती हैं।
पढीस जी की किसान चेतना मे सर्वहारा की गहरी चिंता के साथ ही सामंतो को भी भरपूर समझाने चेताने की कोशिश की गयी है।गांव मे तमाम बिना खेत वाले मजदूर किसान उस समय भी थे जिन्हे लगातार भुखमरी का शिकार होना पडता था।खेतो पर भी मजदूरी नही मिलती थी ज्यादातर मजदूरो को उनके श्रम के बदलेभोजन का ही सहारा था।कवि इस व्यवस्था को बदलने के लिए सजग होकर सबको एक साथ चलने के लिए सलाह देता है।
 ‘वस्तुत: पढीस जी ने अवधी की आधुनिक मुक्तक कविता के क्षेत्र में एक युग प्रवर्तक कार्य किया है।वे आधुनिक अवधी कविता के क्षेत्र मे मील का पत्थर हैं।’(पृ.137-अवधी काव्य धारा,डा.श्याम सुन्दर मिश्र मधुप)


2.छायावादी प्रभाव
पढीस जी जिस युग मे कविताई कर रहे थे वो समय छायावादी काव्य प्रवृत्तियो के लिए जाना जाता है। सन 1916 के आसपास हिन्दी कविता मे छायावादी
प्रवृत्तिया विकसित होने लगी थीं।छायावाद शब्द का सर्व प्रथम प्रयोग मुकुटधर पाण्डेय ने किया था।प्रसाद पंत निराला महादेवी आदि का रचना समय भी यही
था।कविता मे पुनर्जागरण के स्वर फूटने लगे थे तो कवि श्रंगार,दार्शनिकता और प्रकृति प्रेम के सौन्दर्य गीत गाने लगे थे।सुमित्रा नन्दन पंत,जयशंकर प्रसाद और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जैसे कवियो ने छायावादी कविताओ की सर्जना की कमान संभाल रखी थी।माखन लाल चतुर्वेदी,रामकुमार वर्मा,हरिवंश राय बच्चन आदि  भी हिन्दी की मुख्यधारा की कविता मे अपनी कविताई की नौका लेकर छायावाद की धारा मे आगे बढ रहे थे। उस धारा से अपनी अलग पहचान बनाने वाले कवि पढीस जी देहाती भाषा मे अपने अनपढ समाज के लिए कविताई कर रहे थे।यह बेहद साहसिक कदम था।ये अभिव्यक्ति का खतरा उठाने जैसा कदम था क्योकि अवधी भाषा का मानक रूप नही था।पढीस जी अपनी बोली मे ही अपने किसान और मजदूरो को शिक्षित भी कर रहे थे और सामाजिक सुधार रूढि मुक्त समाज की संरचना भी कर रहे थे।पढीस जी को छायावादी प्रवृत्तियो की पूरी समझ है और वे अवधी कविता मे हिन्दी की छायावादी और प्रगतिवादी चेतना को आगे बढाने का काम कर रहे थे।संभवत: इसी लिए निराला जी ने उनके काव्य संकलन पर भूमिका लिखकर मुग्ध भाव से उन्हे बधाई दी थी।निराला जी ने जो एक संस्कृत की सूक्ति द्वारा अपनी टिप्पणी का समापन किया है उसकी भंगिमा की व्याख्या पहले कर चुका हूं।
    पढीस जी की अधिकांश कविताओ की रचना 1920 से लेकर 1932 के बीच हुई होगी क्योकि चकल्लस का प्रकाशन 1933 मे हुआ था। ये साहित्य मे छायावादी प्रभाव का समय कहा जा सकता है।प्रो.सूर्यप्रसाद दीक्षित के अनुसार-
 ‘पढीस जी का काव्य काल छायावादी युग था।वे निराला जी के अभिन्न मित्र थे
।ऐसी स्थिति में उनकी कविताओं में छायावादी अभिव्यक्ति का होना स्वाभाविक ही था।चकल्लस मे संकलित द्वासरि दुनिया,सूखि डार,डोंगिया,महतारी,स्वनहुली
स्यामा,बिटौनी,तथा परछाहीं आदि रचनाओं में छायावाद की स्पष्ट छाप है।(पृ.58-अवधी भाषा और साहित्य संपदा)
’दार्शनिकता प्रकृतिप्रेम और सौन्दर्य के मार्मिक बिम्बो का सृजन कविता मे किया जा रहा था। पढीस जी अपनी सूखि डार कविता
मे शीशम के पेड की सूखी डाल के बहाने से जीवन की दार्शनिकता और उसकी असंगति की ओर संकेत करते हैं-
जब पांच भूत अपनी किरिया ते अलग व्यलग भे
पंछी पिंजरा छांडि चला,तब का जानी को कहां रही
फिरि कैसि डार सिरसा वाली।(पृ.76 वही)
लहलहाती हरी शीशम की डाल कैसे सूख गयी और अपने वृक्ष से अलग हो गयी अब उसका अतीत और उसकी हरीतिमा की स्मृतियां ही शेष बची हैं।ऐसा भी हो सकता है कि किसी आत्मीय जन के दिवंगत होने पर भी पढीस जी ने ये कविता लिखी हो।मानवीकरण अलंकार की योजना बहुत सुन्दर है।पढीस जी की एक कविता है ‘सतखंडेवाली’ इस कविता मे किसी सुन्दरी के अप्रतिम सौन्दर्य का वर्णन कवि करता है।जैसे प्रसाद जी की कविता आंसू या निराला की सन्ध्या सुन्दरी मे यही प्रवृत्तियां देखने को मिलती हैं।अंग्रेजी मे विलियम ब्लैक की ऐसी अनेक कविताएं हैं,और यदि पी.बी.शैली की एक कविता है – ‘शी वाक्स इन ब्यूटी’ केपाठ्य से भी सतखंडेवाली का मिलान करें तो अनेक समानताएं मिलती हैं।कुछ उसी तरह पढीस जी की यह कविता भी स्त्री के रूप सौन्दर्य के जादू की मार्मिक कविता है लेकिन पढीस जी उस सन्ध्या सुन्दरी को अपने आगोश मे भर लेना चाहते हैं—
संझबतिया सुरजाबैठनि,गौधूरि केरि वह बेरिया
चौक के चौमुहाने पर,जब चकित थकित ह्वै देखेन
समहे तुमहे बैठी हौ रूप के समुद्र अन्हाये
खिरकी पर महकि रही हौ सुन्दरि सतखंडे वाली।
................................
जब पाउब पकरि पिछौरा,समुझब यहु ट्वाना टटका
तुमरे पियार के आंसू ,हमका कस ना पघिलैइहैं
तुमका छाती मा कसिकै,हां अथै जाब ऊसर मा
तब रूप अरूप देखायेव,सुन्दरि सतखंडेवाली।(पृ.116 वही)
यहां कवि अपनी नायिका के रूप सौन्दर्य का वर्णन करता हुआ कहता है-गोधूलि वेला मे सूर्यास्त के समय जब दिया बाती का समय हो रहा था तब चौक के सामने अर्थात सबके समक्ष थका हुआ और चकित भाव से तुम्हे देखता हूं।तुम्ही रूप के समुद्र मे स्नान किए हुए मेरे मन की खिडकी पर सामने ही बैठी हो।आगे कवि कहता है कि तुम्हारी तिरछी चितवन का जादू मुझपर हो गया है।तुमने मुझे प्रेम के नशे मे डूबे हुए को गोद मे दबाकर ऊपर से नीचे नापदान मे फेंक दिया है।मेरी यही एक त्रुटि है कि मै प्रेम करता हूं।इसी रूप छवि के सामने मै स्वयं को कंगाल महसूस करता हूं। तुम उस दिन ताल पर मिली तो मानो कोई बिजली सी चमक गयी हो।मै तेल इत्र आदि लगाकर तुमसे मिलने के लिए किन्नर कुमार की तरह आया लेकिन तुमने अपनी मटकती हुई चाल से भटका दिया।कवि आगे कहता है कि प्यारी सतखन्दे वाली सुन्दरी ध्यान रहे इस बार जब कभी मै तुम्हे पीछे से पकड पाऊंगा तभी तुम्हारे प्रेम के जादू को समझ पाऊंगा।तुम्हारे प्रेम के आंसू मुझे कैसे नही पिघलायेंगे।फिर मै तुम्हारा दृढ आलिंगन करेके इसी ऊसर मे कही डूब जाऊंगा।तब तुम अपने अनुपम रूप की छवियां दिखलाना।
यह छायावादी सौन्दर्य की अप्रतिम अवधी कविता है।इसे हम व्यष्टि से समष्टि के जादू तक को जोड कर देख सकते हैं।इसी प्रकार एक ‘बादर’ कविता भी बडी मार्मिक है।हमारे अवधा के गांव मे बादल कैसे आता है और उसकी किस तरह से सारी धरती प्रतीक्षा करती है ये पढीस जी मनोयोग से बताते चलते हैं।बादल कैसे आसमान मे अपनी विविध छवियो से सबका मन आह्लादित करते हैं।पशु पक्षी सभी प्रसन्न होते हैं।बादल पर भी छायावादियो ने बहुत कविताएं लिखी हैं।निराला
जी की बादलराग भी अपने आप मे अपने समय की सर्वोत्कृष्ट कविता है।यहां अवधी मे ऐसे स्वर बहुत कम या बिल्कुल नए कहे जा सकते हैं ।इन पंक्तियो मे देखें तो श्रमजीवी किसान की दृष्टि से कुछ नया अर्थ निकलने लगेगा-
कस बनि बनि कै बिगरब,कस बिगरि बिगरि बनइब
कस रोयि रोयि हंसबै,कस हंसै हंसि कै रोइब
कै चारि घरी किरला,अघवायि क पिरथी का
जब इन्द्र अखाडा मा,सब जाइ घुसे बादर
तब भा अकासु निर्मल,देउता फिरि ते चमके
चिरई चुनगुन किरवा तक दौरि लाग धन्धा
अंगडाइ उठे बुढवा,जमुहाइ कै जुआनौ
अपने करम कि लाठी,फिरि कसि कसि कै पकरिन।(पृ.123 वही)
इस कविता मे कवि हाथी जैसे बादलो के झुंड की शोभा और मोरो के नाचने आदि का वर्णन भी करता है।वो एक रूपक लेकर चलता है कि बादल इन्द्र के अखाडे के पहलवान जैसे हैं।बादलो के सौन्दर्य के साथ ही पढीस जी ये भी बताते हैं कि सारा तमाशा देखने के बाद भी किसान मजदूर को विश्राम कहां संभव है।जितना बिगड्ता है उतना बनता नही।हंसना और रोना लगातार किसान की जिन्दगी है।बस किसान को तो अपने कर्म की लाठी पकडे रहना है।इसी प्रकार पढीस जी की ‘परछाहीं’
 शीर्षक एक कविता है जिसमे मनुष्य की परछायीं का मानवीकरण किया गया है-
दिन का नखरा दूरि होय,जब राति अन्धेरिया घिरि आवइ
परछांहीं लपट्याय रहै बिरऊ का जिउ कुछु कल पावइ
दिन महिना बरसै क्यतनी,सब आजु काल्हि मा बीति गयीं
पर परछांहीं साथु न छांडेसि बिरवा की दुरगती भयीं
आखिर एकु ऐस दिनु आवा,दुख सुख का बन्धनु टूटि परा
बिरवा आपुयि रूप तालु की,छाती पर भहराय गिरा
तालु बापु जी अपने लरिका का क्वांरा मा कसि लीन्हेनि
खोलि करेजे की क्वठरी तिहिमा तिहिका पउढाय दिहिनि
बिरवा मुकुति पायिगा जब ते तबते वहु विद्याह बनिगा
परछाहिंउ का रूप छान्ह के साथयि पानी मा मिलिगा।
यह कविता तालाब के किनारे खडे एक वृक्ष की परछायी को लेकर लिखी गयी है।जो वृक्ष के साथ ही जन्म लेती है और उसके साथ ही अंत मे संसार रूपी सरोवर मे विलीन हो जाती है। तात्पर्य ये इस कविता को पुरुष की संगिनी स्त्री के रूप मे भी देखा समझा जा सकता है।यहां किसान जीवन के दाम्पत्य का चित्रण वृक्ष और उसकी परछायीं के मानवीकरण द्वारा भी कवि ने किया है।दार्शनिकता तो उस युग की प्राय: अनेक कविताओ मे अर्थगांभीर्य का सृजन करती चलती है। पढीस जी वसंत ऋतु को लेकर भी प्राकृतिक सौन्दर्य का चित्रण करते हैं।उनकी एक कविता है-आवा बसंतु छावा बसंतु’ आधुनिक अवधी मे प्राकृतिकसौन्दर्य की ये श्रेष्ठ कविता है।कविता का अंतिम अंश देखिए-
माह की उजेरी पांचयि ते,डूंडी-डंगरिउ कूदयि लागीं
ह्वरिहार अरंडा गाडि गाडि,फिरि अंटु संटु अल्लाय लाग
लरिका खुरपा के बेंटु अयिस,तउनौ कबीर चिल्लाय लाग
बाबा बुढवा बौरायि उठे ,आवा बसंतु छावा बसंतु।(पृ.141-वही)
 कवि कहता है कि बसंत के आगमन पर शुक्ल पक्ष की पंचमी से ही बूढी दुबली पतली गायें(स्त्रियां) भी उत्साह मे कूदने लगती हैं।होली के तमाशायी एरण्ड का पेड चौक चौरस्तो पर गाडकर होली की मस्ती मे अंट शंट बकने लगे हैं।खुरपे की बेंटी जैसे कम उम्र के लडके भी इस बसंती मौसम मे कबीर कबीर चिल्लाने लगे हैं।बूढे बाबा तो मानो बौरा ही गये हैं।वसंत ऐसा आया है कि वो सब को आच्छादित किये हुए हैं।इसी प्रकार ‘कठपुतरी’ शीर्षक गीत और ‘पपीहा बोलि जा रे’ जैसे श्रेष्ठ अवधी गीत भी अत्यंत मार्मिक और उल्लेखनीय हैं।मेरी दृष्टि मे पपीहा बोलि जा रे ,शुद्ध छायावादी गीत की प्रतिनिधि रचना है-
छिनु छिनु पर छवि हाय न भूलयि
हूलयि हिया हमार
साजन आवैं तब तुइ आयेव
आजु बोलु उइ पार।
पपीहा बोलि जा रे।
हाली दोलि जा रे।(पृ.151-वही)
विरहिणी नायिका पपीहा को उपालम्भ देती हुई उससे अपने आसपास से उडाने का जतन करती है क्योकि उसके पी कहां..सुर से उसे अपने प्रियतम की याद आ रही है। दूसरी ओर ‘कठपुतरी’ छावादोत्तर परंपरा का गीत लगता है जिसे हम नवगीत की परंपरा से जोड कर देख सकते हैं-
ठुनुकि ठुनुकि ठिठुकी कठपुतरी
रंगे काठ के जामा भीतर
अनफुरु पिंजरा पंछी ब्वाला
नाचि नाचि अंगुरिन पर थकि थकि
ठाढि ठगी अस जस कठपुतरी।
छिनु बोली,छिनु रोयी गायी
परी चकल्लस मा कठपुतरी।(पृ.146 वही)
 हालांकि ये गीत अन्य सभी कविताओ और पपीहा बोलि जा रे की तुलना मे अत्यंत लघु गीत है।परंतु गीत के नाद सौन्दर्य और दार्शनिकता की अभिव्यक्ति का
ये अप्रतिम नमूना है।कविता के कौशल की दृष्टि से ये पढीस जी की श्रेष्ठ रचना है।पढीस जी की ‘बिटउनी’ कविता देहाती लडकी का एक विरल चित्र है।देखिए-
बारू के ढूहा ऊपर,परभात अइसि कस फूली
पसु पंछी मोहे मोहे जंगल मा मंगल गावैं
बरसायी सतो गुनु चितवै कंगला किसान की बिटिया
देखतै पुछारी नाचै ताल दै मुरैला उछरइ
साधे सनेहु की जउरी जर चेतन बांधे घूमयि
जब आगि भरी आंखिन ते सविता दुनिया का द्याखै
दस दिसि ते बादर दउरैं भरि करियारी के फीहा
मुहुं झांपि लेइ देउता का कुम्हिलाइ न कहूं कुआरी
जब रिमिकि झिमिक झरि लागै बिरवा तकि छतुरी तानैं
मेढुकी मछरी तकि तकि कै गुन गनि गनि गीत सुनावैं
जुगुनू पियार के मारे ग्वाडन तर दिया जरावै
भ्याटै अकास ते तारा दुगनाइ दिपित देहीं की
बप्पा के तप की बेदी अम्मा की दिया चिरैया।
उपर्युकत के स्वर से ज्ञात होता है कि किसान की लडकी के सौन्दर्य से समस्त प्रकृति आभिभूत है ।उसकी रूप राशि से मुग्ध हो पशु पक्षी मंगल गान कर रहे हैं मोर नाच रहे हैं।जुगुनू उसे दिया दिखा रहे हैं।अंतरिक्ष के नक्षत्र भी उसकी देह की दीप्ति को द्विगुणित कर रहे हैं।कहीं वह धूप से कुम्हिला न जाये इसलिए बादल सूर्य को ढक लेते हैं।वर्षा मे भीगने से बचने के लिए वृक्ष उसके लिए छतरी बन जाते हैं।इस प्रकार कंगाल किसान की बेटी ने अपने व्यवाहर से समस्त प्रकृति को अपने वश मे कर लिया है।कल्पना की यह उडान चायावादी परंपरा से जोडी जा सकती है।दूसरी ओर किसान बाला का ये चित्र पढीस जी के समय के अन्य किसी कवि के पास नही मिलता। ध्यान देने की बात है कि निराला जी ने केवल इसीकविता का उल्लेख भूमिका मे किया है।इसी क्रम मे ‘पनिहारिन’ कविता में एक और महिला का चित्र देखिए -
बरगद के तरे बाउली पर हिरदउ के भीतर भाव भरी
उतरी बिन पखनन केरि परी वह चन्द्रलोक की किरन जैसि
सांवरि सांवरि सुन्दरि स्यामा।
रसरी पर नौ रसे रमे जायिं गगरी तीनिउ गुन भरे जायिं
द्याखति मा आंखी खुली जायिं ऊ सुबरन रेखा केरि झलक
जब पानी भरै लागि स्यामा।
टुकवा प्यौन्दा घेंघरी ते हंसि दुनिया दारन ते पूंछि रहे
यह बिस्व पिता की पुतरी तुम कौनी आंखिन ते देखि रहेव
आधी उघारि सयानि स्यामा।
मुलु राज पाठु रुपया तुमार वहिके ठेंगरन पर नाचि रहे
माता बिथरौती हैं ई छबि पर हीरा मोती किरनन ते
तन मन ते पूरि रही स्यामा।
स्वनुहुली स्यामा इसी लोक की एक पनिहारिन किशोरी है।परंतु पढीस जी सौन्दर्य दृष्टि ने उसे अलौकिक बना दिया है।वह साक्षात परी जैसी दिकह रही है।वह सूर्य किरणो सी सुनहली और दैदीप्यमान है।वह विश्वपिता अर्थात जगतनियंता के आंखो की पुतली है जिसकी पवित्रता मन मे वासना जैसा भाव उत्पन्न नही होने देती।पिता की भांति उअसकी माता भी अलौकिक सामर्थ्य वाली है जो अपने अपूर्व तेजोमय रूप की किरणो से उसकी देह पर हीरे मोती की राशि विकीर्ण करती है।कल्पना और सौन्दर्य की यह व्यंजना ही पढीस जी की कविताई को शिखर तक ले जाती है।वह छवि नव रस रुचिरा है और उसकी गगरी मे भरा जल सत रज तम जैसे तीनो गुणो से परिपूर्ण है।वह सारे सांसारिक ऐश्वर्य को तुच्छ बनाने वाली छवि है।
  
3.प्रगतिवादी स्वर
पढीस जी की कविताई का लक्ष्य ही विकास और प्रगति रहा है।पढीस जी के पास
कविता करने की अद्भुत कुशलता थी किंतु उन्होने देहाती भाषा बोली को अपनी कविता का माध्यम इसी लिए बनाया कि वो अपने रूढिग्रस्त अशिक्षित किसान समाज को प्रगति का मार्ग दिखा सकें।उन्हे पढना लिखना सिखा सकें।यही कारण
है कि पढीस जी उस जमाने मे सामाजिक यथार्थ का चित्रण करते हुए आगे बढते हैं जबकि उनके समकालीन कवि अवधी मे भक्ति परक कविताओ की धारा प्रवाहित करने मे लगे हुए थे।कोई राम रसायन तो कोई सीता स्वयंबर और कोई रामविलास तथा बुद्धविलास जैसे धर्म दर्शन से आपूरित रचनायें लिखने मे जुटे हुए थे। पढीस जी ने अपनी अलग राह बनायी और आगामी पीढी के कवियो को दिशा दी।यही कारण है कि पढीस जी अवधी की नयी कविता के प्रस्थान बिन्दु माने जाते हैं।चकल्लस की दूसरी कविता ‘लरिकउनू’ है ।इस कविता मे ही कवि उच्च शिक्षा की निरर्थकता पर व्यंग्य करता है।मनुष्य का सच्चा विकास जो जीवन की पाठशाला से ही संभव है-
कालरु ,नकटाई सूटु हैटु
बंगला पर पहुंचे सजे बजे
नौकरी न पायेनि पांचौ की
लरिकउनू ए.मे. पास किहिन।
अरजी लिक्खिन अंगरेजी मा
घातयिं पूछयिं चपरासिन ते
धिरकाल ‘पढीस’ पढीसी का
लरिकउनू ए.मे.पास किहिन।(पृ.71-वही)
यहां पढीस जी उस पढाई को धिक्कारते हैं जो सूट बूट और टाई मे सजना तो सिखाती है लेकिन जीवन के असली दांव पेंच नही सिखाती। यह कविता किसी ऐसे ही बेरोजगार ए.मे. पास युवक की कहानी है जो पढा लिखा है समय की भाषा भी जानता है लेकिन कढा नही है।उसे चपरासी से तमाम बातें पूछनी जाननी पडती हैं।तात्पर्य ये कि जीवन की व्यावहारिक शिक्षा के बिना ये अंग्रेजी की शिक्षा निरर्थक है।इसी प्रकार पढीस जी की एक कविता ‘छीछाल्यादरि’ है जिसमे कवि कहता है कि परदेसी और देसी के तालमेल न हो पाने को पति पत्नी की नोक झोंक के माध्यम से प्रस्तुत करता है-
हम गजल पचासा गायी, तब तुम टुन टुन करौ पियानू पर
यह अन्धरा बहिरा केरि देवायी,छीछाल्यादरि द्याखौ तौ।
तुम देसी देखे खारु खाव,हम परदेसी पर उकिलायी
यहु क्स दुलहा?यह कसि दुलहिनि?सबु छीछाल्यदरि द्याखौ तौ।(72-वही)
सोभानाली, धमकच्चरु,तथा ‘मुरहू चले कचेहरी का’ जैसी अनेक रचनाएं पढीस जी की प्रगतिशील चेतना की दुहाई देती चलती हैं।उस समय भी हमारी न्याय व्यवस्था कुछ खास किस्म के चालाक लोगों के हाथ मे थी जो आज भी कमोबेश उसी जगह खडी है।पढीस जी के शब्दो मे देखिए-
कानून कि पुरिया चीखि चांटि कयि
मुरहू चले कचेहरी का
कमबख्ती की क ख ग घ पढि
आये आपु कचेहरी का
बासन भडवा पडिया पडवा
छल्ला छपका सब बेंचि खोंचि
चंडूली चुल्ल मिटावै का फिर
पहुंचे आपु कचेहरी का।(पृ.84 वही)
पढीस जी का समय एक प्रकार से सामंतो के भीषण द्वन्द्व का भी समय है।छोटे सामंत आपस मे लड रहे थे और अंग्रेजी राज तो था ही।ऐसे समय मे खेती को संभालने वाले किसान की हालत और खराब हो गर्ही थी।पढीस जी ‘फरियादि’ शीर्षक कविता में कहते हैं-
वुयि साहेब है तुम साहूकार
वुइ फौजदार तुम जिमीदार
 हर की मुठिया को गहि पायी
जो भोगयी छोडिनि अपनि चाल।
च्यातौ च्यातौ ,स्वाचौ स्वाचौ
ओ बडे पढीसौ दुनिया के
कौने कर ऊंटु बैठि जायी
जो भोगयी छोडिनि अपनि चाल।
दुनिया की कर जिनगी की जर
वुइ लीन्हे बैठ जुगाधिन ते
फिर देखि लेव का हुयि जायी
जो भोगयी छोडिनि अपनि चाल। (पृ.86 वही)
यहां भोगयी प्रतीक है किसान और कृषि क्षेत्र मे काम करने वाले मजदूर का।पढीस जी महलो वाले सामंतो को और पढे लिखे अपने के सभ्य समझने वाले लोगो से साफ कह्ते हुए चलते हैं कि युगो युगो से किसान और कृषि मजदूरों के ही हांथ मे दुनिया भर की मशीने रही हैं।उन्होने अपनी आवश्यकता के अनुरूप मशीनो का स्वय्ं आविष्कार भी किया है।उन्ही के हांथ मे हमारे जीवन का मूल सदैव  समाहित रहा है।अब सोचो और चेत जाओ अन्यथा यदि इन लोगो ने अपनी चाल छोड दी तो फिर क्या हो सकता है इसका अनुमान अभी तुम्हें नही है।इस कविता का स्वर भी शोषण के विरोध मे कवि की चेतावनी से परिपूर्ण है।पढीस जी एक और कविता है जिसका शीर्षक ही  ‘चेतउनी’ है अर्थात चेतावनी।कवि अपने समाज को अपनी भाषा मे चेतावनी देता है-
मुसलमान हिन्दू औ किरहिटान सब कोई
हिलि मिलि कै चलौ नाहीं धरे रहौ सटर पटर
चलौ भाई डगर डगर।
तुम बडे पढीस हौ तो खुदयि खुब पढि स्वाचौ
धरमु चिल्लाति अहि तुम देखि रहेव भटर भटर
 चलौ भाई डगर डगर। (पृ.110 वही)
ये पढीस जी का जातीय स्वर है इसमे कहीं किसी एक धर्म या जाति की बात न
करके कवि संपूर्ण मानवता और सभी धर्मो के मैत्री भाव की ओर संकेत करता है।मजहबी लोग अपने अपने ढंग से अपनी प्रचार की दूकान चलाने लगे थे लेकिन कवि को ये धर्म का अलगाव मंजूर नही था।बाद मे भी हमने विभाजन की त्रासदी झेली है ।पढीस जी मानवतावादी थे।यदि सब वस्तुओ पर समान अधिकार रखने वाली सामान्य परिभाषा के आधार पर विचार करें तो पढीस जी सच्चे साम्यवादी भी नजर आते हैं। जब पढीस जी किसान को एक वर्ग के रूप मे देखते हैं और उन्हे चेतावनी देते हैं तो स्वाभाविक रूप से वो मार्क्सवादी भी नजर आते हैं लेकिन वो परंपरागत मार्क्सवादी नही हैं।पढीस जी ने साइकिल पर एक कविता लिखी है।जब पूरी दुनिया विकास के नए वैज्ञानिक सन्यंत्र बनाने और उनका उपयोग करने की दिशा मे आगे बढ रही थी तब हमारे देश मे भी साइकिल जैसी सवारी का आगमन हुआ।हर तकनीकी विकास अपने समय मे आम जनता के लिए अपने आप मे एक अजूबा होता है।पढीस जी के लिए तब ये पैरगाडी भी किसी अनोखे आविष्कार से कम न थी।अवधी के अलावा हिन्दी मे भी शायद ही ऐसी दूसरी कविता मिले-
साह्यब रहै सलामति,यह मोरि पैरगाडी
दुनिया ति है अजूबा यह मोरि पैरगाडी।
सब म्वाह नगर म्याला का देखि देखि छकिगे
वुइ राति अन्धेरिया मा सबकी गल्ली भूलीं
बडके की गाडी के जब बर्ध झ्वाक डारेनि
छोटकऊ क्यार घ्वाडा लै ठ्याक ठप्प हुइगा
मंझिलऊ केरि मोटर का फाटि गवा भोंपू
तब यह छिन मंतरु मा महिका घर लायी
दुनिया ति है अजूबा यह मोरि पैर गाडी।


जंगल मा जब जाग्येव तब का देखेव दादा
गंजरही फसल पूरी पर फ़ाटि परा पाला
आन्धी बउखा पथरन ते द्यास की मडैया
सबु टूकु टूकु टूटीं हुइगै किसान चौपट
जिउ छांडि भले भाज्यों तब यहै पैरगाडी
पहुंचाय दिहिस महिका ठकुरन कि छोलदारी
दुनिया ति है अजूबा यह मोरि पैरगाडी ।(-124,वही)
पढीस जी के समय मे साइकिल भी बहुत संपन्न लोगो के घर की शोभा रही होगी।लेकिन बैल और घोडा की तुलना मे ये नयी सवारी धीरे धीरे बहुत लोकप्रिय होती गयी।इसीलिए कवि इसे दुनिया भर की अन्य वस्तुओ की तुलना में अनोखी वस्तु के रूप मे विवेचित करता है।सबसे बडी बात ये भी है कि पैरगाडी स्वय्ं चलायी जा सकती है जबकि अन्य गाडियां,पेट्रोल या फिर पशुओ के सहारे ही चल सकती थीं।उनके समय में ये साइकिल मनुष्यता के लिए किसी आविष्कार से कम नही थी।
पढीस जी की सबसे लंबी कविता का शीर्षक है ‘किहानी’ ये अवधी की ही नही समस्त हिन्दी कविता के लिए चुनौती के तौर पर व्याख्यायित की जा सकती है।इस कविता मे अंग्रेजो के किसी पिकनिक का चित्रण किया गया है।संपन्न वर्ग के लोग भोग के लिए तब क्या क्या नाटक करते हैं और उनके नाटको से गांव के आम नागरिक किस तरह से प्रभावित होते हैं यह विचारणीय है।तब हम अंग्रेजो के गुलाम ही थे लेकिन इस कविता की मारकता को आज भी फार्महाउसो मे मनायी जा रही भोगवादी पार्टियो के रूप मे देखा समझा जा सकता है।कुछ अंग्रेज पिकनिक मनाने के लिए अपनी मोटर गाडियो से किसी झील के किनारे श्मशान की ओर पहुंचते हैं वहां वो लोमडी का शिकार करते हैं फिर उसे भूनकर खाते हैं,नाचते हैं मजे करते हैं।आसपास के लोगो की मदत से मछली पकडते हैं उन्हे भी भूनकर खाते हैं और लोगों मे बांटते हैं।उनके साथ दो बहुत बडे बाघ जैसे शिकारी कुत्ते भी हैं।सुबह की सैर और शिकार के बाद दोपहर को अपने टेंट मे वापस लौटे।वो सब लगातार कुछ न कुछ खाते पीते जा रहे हैं।नौकाविहार करते हैं स्त्री
पुरुष सभी नाचते गाते हैं पपिहरी बजाते हैं।उसके बाद सबको सेवा के लिए बख्शीश मे रुपये बांटते हैं फिर अपनी मोटर गाडियो मे बैठकर चले जाते हैं।गांव वालो के लिए ये अजूबा था।अंग्रेजो की सफेद त्वचा और उनकी स्त्रियो के पहनावे आदि लोग छुप छुप कर देखते थे।एक ओर वे अंग्रेज वैभव का प्रदर्शन करते हैं संपन्नता मे डूबे हुए हैं दूसरी ओर ग्रामीड मजदूर अभावग्रस्त हैं।उनके पास दो जून खाना खाने की भी व्यवस्था नही है।बेहद गरीबी और पिछडापन है।
यह कविता बेहद मार्मिक बन गयी है ,इसका रचनाविधान यथार्थ और फैंटेसी दोनो को एक साथ लेकर चलता है।शायद यह भी अवधी ही क्या हिन्दी की पहली इतनी मार्मिक कविता है जिसमे वर्ग चेतना की विवेचना इतनी सहजता से प्रकट होती है।कविता का अंतिम भाग देखें-
ठाकुर साहेब ते नीक खायिं का वुइ ठाकुर के ठाकुर हैं
मुस्क्यान करैं किलक्यान करैं मन्नान करैं भन्नान करैं
काका कासन के पुरवा मा सब भूखन ते चिल्लान करैं
मुझान करैं बिरझान करैं बिल्लान करैं अकुतान करैं
काकनि जब राम घरै जायेव अतनी फरियादि जरूर किहेव
जो जलमु दिहेव हमका स्वामी अंगरेजै के बच्चा कीन्हेव
अंग्रेज न हुइ पायेव काका तो जिमीदार के घर आयेव
वहिमा कुछु मीन मेख बूंकैं तौ तुम पटवारी हुइ जायेव
पटवारीगीरी जो न देयिं तौ चौकीदारी छीनि लिहेव
बसि जलमु जलमु आनन्दु किहेव सुख ते सोयेव हंसि के जागेव
दुइ पहर दिनौना चढि आवा जाइति है राम क काम करै
बडकये ख्यात ते का जानी केतने कंगलन का पेटु भरै।(115-वही)
 ध्यान देने की बात है कि इसी कविता की पंक्ति ‘काकनि जब राम घरै जायेव’ लेकर अमृतलाल नागर जी ने पढीस ग्रंथावली के आमुख का शीर्षक बनाया था।पढीस जी की इस कविता में अपनी तरह से वर्ग चेतना को व्याख्यायित करते
है।अगले जन्म के काल्पनिक सुख की बात करते हैं किंतु फिर अपने काल्पनिक स्वप्नलोक से बाहर आकर अपने काम पर ध्यान देने की बात करते हैं।कवि को बडे खेत पर जा कर काम करना है जिससे तमाम कंगालो के पेट भरने वाले हैं।पढीस जी की कविता इसी प्रकार सर्वहारा के हितो की व्याख्या करती चलती है।शायद इसीलिए पढीस जी जनकवि कहे जाते हैं।वे किसानो के यथार्थ जीवन के के कवि हैं।
   
4.ग्रामीण स्त्रियो का श्रम सौन्दर्य
पढीस जी की अवधी कविताओ मे सबसे खास बात यह है कि उनकी कविताओ मे ग्राम्याओ का रूप सौन्दर्य लगातार अपनी स्वाभाविकता के साथ सुशोभित होता है।घसियारिन,महतारी,स्वनहुली स्यामा,सोभानाली,सतखंडेवाली,बिटउनी,म्यहरारू,,कठपुतरी,भगंता क भौजी,चमारिन.
आदि स्त्रीपात्रो को लेकर लिखी गयी उनकी मार्मिक कविताएं हैं।पढीस जी जिस समाज की स्त्रियो की बात उट्ठाते हैं वे नैसर्गिक रूप से अत्यंत सुन्दरी हैं लेकिन अभावो के कारण उन्हे कोई मानसिक दुख या कुंठा नही है।प्रभात हो रहा है घसियारिन घास छीलने के लिए घर से निकल रही है।यह कविता घासछीलने वाली षोडसी के साहचर्य का गीत है जिसमे उसके प्रेमी का स्वर और उसकी प्रणयी मनोभूमि का अनुमान कीजिए-
बिन काजर कजरारी आंखी अरुनारी भोली
खोडस बरसी भाव भरे छिहरायि रहे लहरायि रहे
मनहे मन कोंछु पसारि करयि परनाम नवेली
बिस्वपिता किरनन ते हंसि वह रूप रासि अन्हवायि रहे
कस गीतु बन्दना गायि रही।
 वहिके सुख की कुछु थाह कहां इन्दरानी पावैं
नटवर नैना नाचि नाचि चरवाहे की छबि ताकि रहे
वहु आवा सुन्दर सांवलिया मुस्क्यातयि ब्वाला
‘अब न छोलु’ वह हंसि हेरेसि, दूनौ पियारु बरसायि रहे
घसियारिन हिउ हुलसाय रही।
(90-वही)
ऐसी अनेक कविताएं है पढीस के खजाने मे जिनका मंचन किया जा सकता है।ये जनगीत के रूप मे  लिखी गयी कविताएं हैं।कवि की नजर मे वो घसियारिन वनदेवी जैसी है जिसके एक हाथ मे खुरपा है दूसरे मे गडासा विराजमान है।उस समय आजकल जैसा स्त्रीविमर्श तो नही थी लेकिन पढीस जी के मन मे जो समाजवादी और साम्यवादी विचारो की उथलपुथल चल रही थी उसका ही ये परिणाम था कि उन्होने सबसे अधिक कविताएं स्त्री पात्रो को लेकर लिखी हैं। खास बात ये भी है कि वे सब स्त्री पात्र बहुत भोले होने के कारण मन मोह लेते हैं।थोडे मे ही उन्हे सुख की अपार संपदा मिल जाती है।जैसे कि उपर्युक्त घसियारिन को ही देख लीजिए। इसी क्रम में ‘महतारी’ शीर्षक कविता भी उल्लेखनीय है।मां को लेकर इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति कदाचित ही पढीस जी के समय तक किसी अन्य कवि ने इस प्रकार की होगी-
तुम रूप रतनु की रासि रुपहली किरनन ऊपर बिहंसि बिहंसि
हीरा मोतिन के थार भरे बिथरउती हौ हमरे ऊपर।
......................................
तुम नारी हौ महतारी हौ बहिनी बिटिया सबु कुछु आहिउ
कन कन ते लै सुख का गुलाल बरसौती हौ हमरे ऊपर।(पृ-99 वही)
पढीस जी की मां प्रकृति के रूप मे सर्वाधिक सुन्दरी हैं।उसका नारी रूप बहन बेटी वाला रूप भी सर्वश्रेष्ठ है।इस धरती के कण कण से सुख का गुलाल लेकर वही मां कवि पर बरसाती है।पढीस जी पारंपरिक भक्तिभाव के कवि नही हैं।वे मनवतावादी
 दृष्टि लेकर सदैव आगे बढते हैं। इस कविता मे वे नारीवादी चेतना से ओतप्रोत दिखायी देते हैं।
पढी जी की ‘बिटउनी’ शीर्षक कविता भी अद्भुत है निराला जी ने चकल्लस की भूमिका मे इसी कविता उल्लेख किया था।किसान की बेटी का ग्रामीण परिवेश उसके सहज सौन्दर्य मे अभिवृद्धि करता है।किसान तो कंगाल है उसके पास सांसारिक सुख की सामग्री नही है किंतु उसका परिवेष और ग्रामीण वातावरण नैसर्गिक सौन्दर्य की संपदा ही उसकी बेटी को सुन्दरी बनाते हैं।पशुओ पक्षियों और वृक्षो के साथ खेलते हुए वो बडी हो रही है।नदी के कछार के पास स्वयं उगी हुई कास के सफेद फूलो की शोभा दर्शनीय है निर्धन किसान की बेटी वही बालू के शिखरो पर खेल रही है-
फूले कासन ते ख्यालयि घुघुवार बार मुहुं चूमयि
बछिया बछवा दुलरावयि सब खिलि खुलि खुउलिइ खुलि ख्यालयि।
बारू के ढूहा ऊपर परभातु ऐसि कसि फूली
पसु पंछी मोहे मोहे जंगल मा मंगलु गावयि। 
इसी कविता का अंतिम भाग देखिए-
पइरा पर पउढी पउढी वह चितवै चाकु चन्दरमा
मुस्क्यायि रूपु छबि छकि छकि प्रेम की अरघ अंजुरी भरि
भ्याटयि अकास ते तारा दुगनाय बिपित देही की
बप्पा के तप की बेदी अम्मा की दिया चिरैया
धनवान कि द्वासरि दुनिया कंगला किसान की दुनिया।(102 वही)
 पढीस जी की स्त्री पात्रो से जुडी कविताएं अवधी कविता की महत्वपूर्ण पूंजी हैं।बिटउनी उनकी बेहद मार्मिक कविता है।निर्धन किसान की बेटी धरती पर चलता फिरता सौन्दर्य का खजाना है।इसी प्रकार ‘स्वनहुली स्यामा’ ग्रामीण स्त्री के सहज सौन्दर्यबोध की कविता है।इसके अतिरिक्त अन्य कविताएं भी स्त्री सौन्दर्य चेतना
 और सामाजिक मर्यादा को व्याख्यायित करती हैं।
पढीस जी कविताओ मे कहानी कहते चलते हैं।वे कविताओ मे नये पात्रो को सृजित करते हैं। ‘भगंता क भौजी’ उनकी ऐसी कविताओ मे उल्लेखनीय है-
जो जस किहिस तैस फलु तिहिका /झुकि झुकि दुलहू तक वां बोले
पूरे बांटन बांटि दिहिस जब अतनी भारी भगंता कि भौजी
पुरवा गांव जिला तक जानिस भाइनि के घर दुलहिन रानी
रोटी कपरा क्यार मुकदिमा अक्किलवाली भगंता कि भौजी।
बडे बहादुर जी घर वाले मूडे बाहैं धरि धरि दाहैं
नागनाथ तस सांपनाथ मुलु पूरयि कीन्हेसि भगंता कि भौजी।(145 वही)
भगंता कि भौजी पात्र की रचना पढीस जी आदर्श विवाहिता स्त्री के रूप मे करते हैं।पूरे घर परिवार को सही रास्ता दिखाने वाली भगंता कि भौजी निश्चित रूप से दबे पिछडे समाज मे सामाजिक पारिवारिक न्याय का उदाहरण प्रस्तुत करती है।इस कविता का प्रकाशन पहली बार 1938 मे चकल्लस साप्ताहिक के भाभी अंक मे हुआ था।एक अन्य महत्वपूर्ण कविता जो कि दलित स्त्री के श्रम सौन्दर्य की परिचायक है इसका शीर्षक है  ‘चमारिन’ ।एक अंश देखिए-
वुइ सांची सूधी बातयि वहिकी आपयु रूपु बनै कबिता
जस उवति सुर्ज किरनन की कांबी हिरदौ भीतर घुसि जाय
बेजा दबाव पर तिलमिलाइ का नागिन अस फन काढि देयि
को चितयि सकै।(147-वही)
पढीस जी इस स्त्री को साक्षात कविता के रूप मे देखते हैं।उस स्त्री को देखते ही काव्यात्मक संवेदनाएं उभरने लगती हैं।वह साक्षात सूर्य की किरणो का समूह है।उसके रूप और तेज का सामना करने की क्षमता किसी मे नही है।वह सीधे हृदय मे घुस जाती है।लेकिन किसी धूर्त की बेवजह टिप्पणियो को लेकर वही नागिन की तरह फुफकारने लगती है।ऐसी ग्राम्य दलित स्त्री की तेजस्विता अन्य समकालीन कवियो के पास देखने को नही मिलती।इसी कविता मे दलित दाम्पत्य का विरल चित्र भी पढीस जी ने प्रस्तुत किया है।अपने पति के साथ वह अपनी निर्धनता केबावजूद मगन है उसके ऐसे विरल प्रणय को देखकर सारा अन्य सुख मिट्टी मे मिल जाता है देखें-
ब्यल्हरातयि आवा हंसतै पूछिस ‘कै री रोटी कहां धरी ?’
रूखी सूखी सिकहर ऊपर मोरे छैला मोरे साजन
कहि आखिंन पर बैठार लिहिस धनु धूरि भवा यहु धरमु देखि
समुझौ कोई।(147-वही)
पढीस जी को लगता है कि इस साहचर्य सुख के समक्ष अन्य सभी आर्थिक धन संपदा वाले सुख मिट्टी हैं।दाम्पत्य का यही श्रेष्ठ धर्म है।
5. अंग्रेजियत का परिहास तथा आत्मव्यंग्य
 पढीस जी शायद पहले अवधी कवि हैं जो अपनी ही बिरादरी पर व्यंग्य करते हैं।पढीस जी का जन्म जिस समय पर हुआ वह समय गुलामी का था।दुनिया के अधिकांश देशो पर ब्रिटिश साम्राज्य का कब्जा था।स्वाभाविक है लोग अंग्रेजी सभ्यता को अपनाने मे ही अपनी प्रगति मानने लगे थे।सभ्य होने का अर्थ अंग्रेजी सभ्यता का अनुकरण माना जाने लगा था।हालांकि कमोबेश आज भी इसी विचार का प्रभाव देखने को मिलता है।पढीस जी की ‘लरिकउनू ए.मे. पास किहिन’ कविता इसी निरर्थक शिक्षा व्यवस्था का परिचय देती है।बेरोजगारी तब भी थी और आज भी है।पढे लिखे नौजवानो को उस समय भी काम नही मिलता था।इस कविता मे देखें कि एम.ए.पास नवयुवक अंग्रेजी मे चिट्ठी लोख लेता है लेकिन कार्यालय मे उठने बैठने और अधिकारियो से बातचीत करने का सलीका चपरासी से पूछता है।पढीस जी कहते हैं कि ऐसी पढाई को धिक्कार है जो हमारे आचरण और व्यवहार की बारीकियो को नही समझा पाती या जो हमे रोजगार नही दे पाती।एक अंश देखें—
कालरु नकटाई सूटु हैटु बंगला पर पहुंचे सजे बजे
 नौकरी न पायेनि पांचव की लरिकउनू ए.मे.पास किहिन
अरजी लिखिनि अंगरेजी मा घातइ पूछैं चपरासिन ते
धिरकाल पढीस पढीसी का लरिकउनू ए.मे.पास किहिन।(71-वही)
इस कविता मे पढीस जी कालर टाई सूट हैट बंग्ला जैसे प्रतीको के माध्यम से पाश्चात्य सभ्यता पर कशाघात करते हैं दूसरी ओर वो ये भी बताना चाहते हैं कि पहनावा और दिखावा हमे सार्थक ज्ञान से नही जोड सकता।ऐसी ही एक उनकी कविता- ‘छीछाल्यादरि’ है जिसमे बेमेल विवाह पर बात करते हुए पढीस जी देशी लोगो द्वारा विदेशी सभ्यता को अपनाने के परिणाम की बात करते हैं।देखें--
हम गजल पचासा गायी तब तुम टुन टुन करौ पियानो पर
यह अन्धरा बहिरा केरि देवाई छीछाल्यादरि द्याखौ तौ
तुम देसी देखे खारु खाव हम परदेसी पर उकिलायी
यहु कस दुलहा? यह कस दुलहिनि सब छीछाल्यादरि द्याखौ तौ।(72-वही)
छीछाल्यादरि का अर्थ है दुर्दशा कवि पढीस जी इस सामाजिक दुर्दशा के प्रत्यक्ष साक्षी रहे है।सामाजिक संचेतना की अनेक कविताएं पढीस जी ने लिखी है।वे बार बार चेतावनी भी देते हुए चलते हैं।‘गिल्लागुजारी’ कविता मे भी पढीस जी का चेतावनी वाला स्वर प्रबल है।एक अन्य कविता-‘हम औ तुम’ उनके इसी सामाजिक द्वन्द को व्याख्यायित करती है।इस कविता मे भी देशी विदेशी सभ्यता का समालोचनात्मक रूप उभर कर आता है।एक अंश देखें-
हम चितई तुमका मुलुर मुलुर मलकिनी निहारै भकुरि भकुरि
तुम मुह मा सिरकुट दाबि चलेव जब याक बिलायिति पास किहेव
तुम कथा म सत्यनरायन की बूटै पहिन्दे पूजा कीन्हेव
सोडा का चन्नामिर्तु किहेव जब याक बिलायिति पास किहेव। (119-वही)
पढीस जी वो चिंतक कवि हैं जो प्रगतिशील चेतना के प्रभाव को जानते हैं और उसे अपने ही समाज पर लागू करते हुए आगे बढते हैं।जैसे निराला जी ने ‘कान्यकुब्ज कुलांगार’ कहकर अपने ही सजातीयो का विरोध किया था उसी प्रकार पढीस जी
 भी अपने ग्रामीण समाज के अनपढो को शिक्षित करते हुए सबसे पहले अपने सजातीयो की आलोचना करते हैं।अपने कान्यकुब्ज ब्राह्मण होने को लेकर पढीस जी अनेक कविताओ में व्यंग्य करते हुए चलते हैं।अपनी जाति बिरादरी की रूढियो पर करारा व्यंग्य करना तो उनकी कविताओ का मानो स्वभाव ही है।एक कविता है-‘हम कनवजिया बांभन आहिन’अपने समय मे बहुत चर्चित हुई थी।यह कविता चकल्लस मे तो संकलित थी ही बाद मे अनेक पत्र पत्रिकाओ मे भी इसका पुनर्प्रकाशन हुआ।इसका स्वर गांव मे रहने वाले ब्राहमणो के नकली आभिजात्य की वास्तविकता को उजागर करना है। पूरी कविता ब्राहमणवाद के या आधुनिक शब्दावली मे कहें तो मनुवाद के विरोध मे रची गयी है।इसमे कान्यकुब्ज ब्रह्मणो की आलोचना के साथ ही आत्मव्य्ंग्य का स्वर भी साफ दिखाई देता है-
लरिकऊ चरावयिं हरहा, बिनुआ कंडा बीनै बडे चतुर
दाइज के लाओ दुइ हजार हम कनजवनिया बांभन आहिन
हर की मुठिया खुद गहि पायी तौ ख्यातन लछमी फाटि परै
मुलु तीन तिलोक कहां जायी हम कनवजिया बाभन आहिन
गायत्री मंत्रु भूर भूसा जपि जपि रोजुइ चिल्लाइति है
हम कनवजिया हम कनवजिया हम कनजवनिया बांभन आहिन।(136-वही)
पढीस जी अपने ही समाज और अपनी ई बिरादरी की जैसी आलोचना करते हैं वैसी आलोचना किसी अन्य कवियों करते हुए नही देखा गया।

6.मानवतावाद-  
पढीस जी मनवतावादी कवि हैं ।जीवन के यथार्थ और विसंगतियो का पहलीबार अवधी कविता मे चित्रण पढीस जी करते हुए आगे बढते हैं।उनकी अधिकांश कविताओ के चरित्र उनके गांव जवार से निकलकर आते हैं और सामाजिक समरसता बरसाते हुए आगे बढ जाते हैं।पढीस जी की काव्यगत विशेषताओ में अन्य प्रमुख पक्ष उअनका मानवतावादी दृष्टिकोण है।पढीस ई ऊंच नीच की खाईं से ऊपर मनुष्य को स्थापित करते हुए चलते हैं।वे अपने समाज की अलग सृष्टिकरते हैं जहां कोई बडा नही है कोई छोटा नही है।कोई ऊंचा नही है कोई नीचा नही है,बल्कि सब एक समान हैं।अपनी मनई शीर्षक कविता मे वे कहते हैं-
जो दुखियन देखे खारु खायिं सुखवालेन ते खीसै काढैं
वहु भलै सिकन्दर का प्वाता मुलु कहां रहा सुन्दर मनई।
जो अपनै मा बूडा बाढा संसारु सैंति कै सोंकि लिहिस
वहु राकस है वहु दानव है अब कौनु कही सुन्दर मनई।  
जो सब धरमन का धारे है सबमा मिलि एकु रूपु द्याखै
वहु केसन महम्मद ईसा बुद्धा वहै आय सुन्दर मनई। (127-वही)
इस कविता मे एक सदाचारी सच्चे मनुष्य की कल्पना की गयी है।पढीस जी के अनुसार जो बाहर भीतर एक जैसा आचरण करता दिखाई दे वही सच्चा और सुन्दर मनुष्य है-अर्थात जिसमे तदानुभूति हो।तदानुभूति का अर्थ है दूसरे के सुखदुख को अपने जैसा मानना।पढीस जी की दृष्टि मे वही सच्चा मनुष्य जो सभी धर्मो का बराबर सम्मान करता हो। जो अपनी बडाई मे डूबा रहे अहंकार मे लिप्त रहे वो राक्षस या दानव तो हो सकता है सुन्दर मनुष्य तो कतई नही हो सकता।पढीस जी ने अपने गांव के पास दीनबन्धु किसान पाठशाला की स्थापना की थी। जिस पाठशाला मे सभी जातियो और समुदायो के बच्चे जवान बूढे किसान पढने आते थे।केवल कविता लिख डालना एक बात है,समाज मे अपने आचरण से अपने विचारो को चरितार्थ करना और उदाहरण बन जाना और बात है।पढीस जी की कथनी करनी मे कोई भेद नही था।पढीस जी अपने परिवेश के बच्चो को शिक्षित करते हुए कविताएं लिखते हैं।–लरिका,बिटिया,मेहरारू,,जैसी उनकी कविताएं जीवन के उपदेशो से जुडी उई हैं वे सबको शिक्षित करते चलते हैं।तात्पर्य ये है कि अच्छी औरत कौन सी है?,समाज मे सुन्दर लडका किसे माना जाये? इसी प्रकार अच्छी लडकी कौन सी है ? इन विषयो को लेकर पढीस जी की कविताएं मानवीय उदात्त चेतना और सामाजिक जीवन को व्याख्यायित करती है।पढीस जी तीनो कविताओ मे मानवीय ही पक्ष लेकर चलते हैं।समरसता हमारे समाज का प्रमुख गुण है औरअच्छे सच्चे लडको लडकियो और औरतो पुरुषो से ही समाज बनता है। ‘लरिका ’शीर्षक कविता का अंश देखे-
 ‘जो अपने कुल का दिया आय संघी साथिन का होया आय
अब वहै जितंगरु पूतु आय बसि आय सुन्दर लरिका
जिहिका सब देखे जिया करैं जिहिका सबहे दमु भरा करैं
दुनिया का वहै खजाना है हां वहै आय सुन्दर लरिका।’(129-वही)
...
इसई क्रम मे ‘बिटिया’ और ‘मेहरारू’ शीर्षक कविताओ के अंश इस प्रकार हैं-
’जिहिके सुन्दर गुन गरू गरू करिया गोरी की का चरचा
वह बिटिया असि बिटिया रानी सुख सुन्दरापा की खानि जौनि
अब तौनि आय सुन्दरि बिटिया।‘(131-वही)
...
 ‘जिहिकी की कोखी ते जगु जलमा जो सिरहिट की महतारी है
वह पुरुख रूप की पुन्य ऐसि जब जगर मगर जग मा जागै
तब सांचु मेहेरिया वहै आय।’(132-वही)
पढीस जी का सामाजिक शिक्षक वाला रूप बहुत ही आदर योग्य है।पढीस जी अपने समाज के लोगो को प्रगति की सच्ची दिशा दिखाना चाहते हैं।इसी उद्देश्य को लेकर वो आदर्श लडका,लडकी.पुरुष और औरत को परिभाषित करते हुए चलते हैं।इस प्रकार हम देखते है कि पढीस जी अपने गांव समाज को जागृत करते हुए चलते हैं।यह उस समय के कवियो चिंतकों या कहें कि समाज के लोगो का परम कर्तव्य था। वह केवल कविताई करने वाले निरे कवि नही थे। उनकी ‘भलेमानुस ’ शीर्षक कविता मे पढीस जी ने श्रेष्ठ मनुष्य की परिभाषा दी है और साथ ही सामंतवादी आचरण करने वालो पर व्यंग्य भी किया है।

 ‘हयिं गांव गेराउं जिमीदारी दुइ मिलैं खुलीं सक्कर वाली
सोंठी साहुनि के परप्वाता हुंडी चलती मोहर वाली
बंकन मा रुपया भरा परा तिहिते हम बडे भले मानुस।’(107-वही)
ऐसे धनाढ्यो की भलमंसाहत को पढीस जी ने निकट से देखा परखा था।इसी प्रकार ‘चेतउनी’ कविता मे अपने समाज के आम जन को चेतावनी देते हुए कहते है कि भाई सीधा सरल मार्ग चुनो जीवन इधर उधर भटकने से नही चलेगा-
’छांडि छांडि अगर मगर चलौ भाई डगर डगर
जोति भै मलीन तौनि जागि उठै जगर मगर
चलय भाई डगर डगर।’(109-वही)
अंतत: कविता या फिर किसी भी कला रूप का लक्ष्य तो मनुष्य ही है।मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाना साहित्य का भी लक्ष्य सदैव से ही रहा है।

7.कुलीनतावाद का विरोध;
पढीस जी के समय मे ऊंची जातियो की कुलीनतावादी सोच समाज पर अपना पूरा दखल रखती थी।छुआछूत धरम करम और ब्रहमणवादी चेतना के सभी दुर्गुण ब्रहमण बिरादरी मे पाये जाते थे।पढीस जी कबीर की तरह अपने ही समाज की भरपूर आलोचना करते हैं और उन्हे बार बार चेतावनी भी देते चलते हैं।हास्यव्यंग्य और हल्के अन्दाज मे पढीस जी बडी चेतावनी देकर अपनी बात कह जाते हैं। ‘कयिस कयिस कनवजिया हौ’शीर्षक कविता मे पढीस जी कहते है-
घ्वडहा उंटहा लदुआ किसान,निज करम करयि तौ तुम डहुंकौ
अपनी बिरादरी का तूरति हौ,अइस नीक कनवजिया हौ
तुम दकियानूसी बातन भूले ,देस काल ते पाछे हौ
तुमका गल्लिन की गिटई हंसती,अयिस खरे कनवजिया हौ
तुम जस जस चौका पर झगरेव,तस जाति बीच भ्ंभोल भवा
दादा अबहे कुछु चेति जाव,तुम कयिस अयिस कनवजिया हौ।(143-वही)
 जैसा कि साफ तौर पर देखा जा सकता है कि पढीस जी अपनी ही बिरादरी के लोगो की आलोचना करते हैं।गांवो मे अनेक ब्रहमण भी घोडा और ऊंट रखने वाले होते थे उसके द्वारा वे सामान लादकर धुलाई द्वारा कुछ कमाई कर लेते थे।ऐसे ब्रहमण किसानो को उनकी ही बिरादरी के लोग मौका बे मौका अपमानित करते थे।उस समय ब्रहमण जातियां केवल पूजा पाठ,बैदकी,पठन पाठन जैसे कार्य ही करती थीं।ब्रहमण किसान अपने खेत पर हल भी नही चलाते थे।आमतौर से उस समय समाज मे ब्रहमण क्षत्रिय और वणिक तीनो हाथ के श्रम वाला कोई कार्य नही करते थे। श्रमजीवी नीची जातियो के लोग उन पर हंसते थे।ऐसे कुलीनतावादी लोग देश काल की प्रगति के हिसाब से सदैव पीछे ही रह जाते हैं।पढीस जी कहते है कि जैसे जैसे कुलीनतावादी चौके पर भोजन के समय झगडते रहे वैसे वैसे उनकी ही जातियो मे विघटन होता गया।इसके बावजूद अडियल बूढे समझनए के लिए तैयार नही हैं।इस प्रकार की कविता लिखकर पढीस जी अपने समाज को जगाने की कोशिश करते हैं।
सामंतो और कुलीनतावादियो को लेकर पढीस जी ने कई कविताएं लिखी हैं।इसी क्रम मे ‘हम कनवजिया बांभन आहिन’शीर्षक कविता का एक और अंश देखिए-
दुलहिनी तीन लरिका त्यारह,सब भिच्छा भवन ते पेटु भरै
घर मा मोसा डंडयिं प्यालैं,हम कनवजिया बांभन आहिन
बिटिया बैठी बत्तिस की ,पोती बर्स अठारह की झलकी
मरजाद का झंडा झूलि रहा,हम कनवजिया बांभन आहिन।(135-वही)
उस समय कुलीनतावादी सोच वाले समाज के लोग दकियानूसी,आलसी, निकम्मे और जनसंख्या बढाने वाले सामाजिक बोझ जैसे होते थे।पढीस जी जाति से उसी बिरादरी से आते हैं लेकिन उनकी सामाजिक और मानवीय सोच ने उन्हे ऐसी कविताएं लिखकर अपने समाज को जागृत करने का साहस प्रदान किया होगा।यह अनपढो मूर्खों के बीच रहकर अपने समाज को उनकी ही भाषा मे जगाने का काम बेहद चुनौती भरा था।
 गांव के कुलीन आभिजात्य वर्ग के किसान का ज्यादातर जीवन कचेहरी मे व्यतीत होता रहा है।अपनी अकड और नकली स्वाभिमान के चलते ये लोग लगातार झगडते हरते हैं।पढीस जी की एक कविता है ‘मुरहू चले कचेहरी का’ पढीस जी मुरहू संबोधन ऐसे वर्ग के लिए करते हैं जो अपमानजनक ही नही गाली के तौर पर प्रयोग मे लाया जाता है।कविता का अंश देखिए--
कानून कि पुरिया चीखि चांटि कयि ,मुरहू चले कचेहरी का
कमबख्ती की क ख ग घ पढि, आये आप कचेहरी का।
बासन भंडवा,पडियां पडवा,छल्ला छपका सबु बेंचि खोंचि
चंडूली चुल्ल मिटावै का फिर,पहुंचे आप कचेहरी का।(84-वही)
मुरहू का अर्थ है अत्यंतचतुर और धूर्त व्यक्ति।वह कानून के दांव पेंच सीखकर अपने ही गांव के किसी व्यक्ति या परिवार को नीचा दिखाने के लिए कचेहरी जा रहा है।उसी मुरहू के लिए पढीस जी कहते हैं उसने कमबख्ती की क ख ग घ सीखी है अर्थात पूरी शिक्षा ली है।अपने नकली स्वाभिमान और कुलीनता की रक्षा के लिए मुकदमेबाजी मे उसने अपनी सारी गृहस्थी का सामान भी बेंच डाला है।इसप्रकार अपनी कुलीनता की रक्षा के लिए मूर्ख कुलीन व्यक्ति सिर मुडां कर अपनी ही धुन मे कचेहरी जा रहा है। इस कविता का स्वर हास्य मिश्रित व्यंग्य का है ताकि कुलीनतावादी समाज के लोग कवि का मर्म समझ सकें।
घर घर की किसान की समस्या उस समय बहु आयामी थी।अंग्रेजी राज था तो दण्ड का कठिन विधान भी था।अंग्रेज चाहते थे कि हम हमारे समाज मे आपस मे ही लडते रहें।पढीस जी के पास यह सब समझने की साफ नजर थी।इसी लिए पढीस जी कभी व्य्ंग्य के माध्यम से तो कभी सीधे तौर पर भी ठाकुरों सामंतों कान्यकुब्ज ब्राह्मणोपर व्यंग्य करते हुए चलते हैं।एक और भलेमानुस कविता का अंश देखिए-
भलमंसी का जामा पहिंदे,हम आहिन बडे भलेमानुस
 चद्दरयिं चारि तकिया त्यारह,मलमल मखमली फूलवाली
महलन मा मौज उडाइति है,अपछरा नचायी मतवाली
गुलगुले गद्यालन पर पउढे,हम आहिन बडे भलेमानुस।(107-वही)
ये जो भलमंसी का जामा पहन कर रहने वाले लोग है असल मे उन्ही से समाज की विसंगतियां बढती हैं।पढीस जी अपने समय मे इस प्रकार की समाज सुधार की चेतना वाली कविताएं लिख रहे थे।अंग्रेजी की पढाई भी कुलीनतावादी सोच को बढाने वाली कडी थी लोग अंग्रेजी पढकर अंग्रेजी सभ्यता को सहज ही अपनाने लगते थे।पढीस जी व्यंग्य के माध्यम से अंग्रेजी सभ्यता अपनाने वाले व्यक्ति से कहते हैं-
अकतही अंगरखा खोलि धरेव,कुरता औ धोती छांडि दिहेव
यहु पहिरि कमर- कटु कोटु चलेव,जब याक बिलायिति पास किहेव।
लरिका सब भाजयिं चौंकि चौंकि,रपटावैं कुतवा भौंकि भौंकि
तुम अजभुत रूप धरेव भौया,जब याक बिलायिति पास किहेव।
बिल्लायि मेहेरिया बिलखि बिलखि,साथ की बंदरिया निरखि निरखि
यह गरे म हड्डी तुम बान्धेव,जब याक बिलायिति पास किहेव।
हम चितयी तुमका मुलुर मुलुर,मलकिनी निहारैं भकुरि भकुरि
तुम मुहिं मा सिरकुट दाबि चलेव,जब याक बिलायिति पास किहेव।
तुम कथा म सत्तिनरायन की,बूटयि पहिंदे पूजा कीन्हेव
सोडा का चन्नामिर्तु किहेव,जब याक बिलाइयिति पास किहेव।(119-वही)

     उसी समय नही आज भी हमारे गांवो मे पाश्चात्य पोशाक और खान पान को बहुत आदर की दृष्टि से नही देखा जाता।पढीस जी जैसा सजग कवि अपने समय मे लगातार अपनी भाषा मे अपने समाज को जगाने का काम कर रहा था।पढीस जी जनकवि हैं। उन्हे अपनी जनता के लिए ऐसी कविताएं लिखनी पडी उस समय किसी अकादमी आदि के लिए आ फिर प्रकाशन आदि की दृष्टि से कविताएं नही लिख रहे थे।सफल कविताई तो वही है जो अपने विरोधी को भी आकर्षित कर सके।पढीस जी अपने तथाकथित उच्च वर्ग की खिल्ली उडाते हुए समाज को जगाने का काम करते हैं।
8.अवधी की गहरी समझ
    पढीस जी को अवधी की गहरी समझ ही नही अवधी भाषा के सरोकारो की भी गहरी समझ थी।अवधी उनकी मातृभाषा तो थी ही।पढीस जी की भाषा और उनके भाषा ज्ञान पर रामविलास शर्मा जी कहते हैं-
‘उनकी हिन्दी बहुत साफ होती थी।वह संस्कृत शब्दो का बहुत सही उच्चारण करते थे।वह उर्दू के शब्द जहां लाते थे,बिल्कुल फारसी ढंग से उनका उच्चारण करते थे।किसी उर्दू वाले से बातचीत होने लगे तो वह इतनी साफ उर्दू बोलते थे कि वह आदमी यह कल्पना ही न कर सकता था कि ये गांव के रहने वाले हैं।कई जगहो पर वह बहुत सोफेस्टीकेटेड (परिष्कृत)हो जाते थे।यह संस्कृति उन्होने कसमंडा राज्य मे अर्जित की थी।कसमंडा राज्य में अंग्रेजी पढाने के लिए अंग्रेज (ट्यूटर)रखे जाते थे।वहां उन्होने अंग्रेजी भी सुनी थी।वह कभी कभी जब अंग्रेजी बोलते थे या हिन्दी मे कभी किसी अंग्रेजी शब्द का उच्चारण करते थे तो वह साधारण लोगो से बिल्कुल भिन्न होता था।वह अंग्रेजे के ढंग से उअसे बोलते थे।निराला जी यह बहुत किया करते थे कि इसमे ऐक्सेंट(बलाघात)कहां है यह शब्द कैसे बोला जाता है।पढीस जी उनको बताया करते थे कि यह शब्द ऐसे बोला जाता है और निराला जे चुपचाप मान लेते थे।..वह उच्चवर्ग की संस्कृति को खूब अच्छी तरह जानते थे।अवधी तो उनकी मातृभाषा थी।मुझसे और निराला जी से अवधी मे ही बातचीत होती थी।’(-पृ-9-वही-डां.रामविलास शर्मा)
तात्पर्य यह है कि पढीस जी ने अवधी इस लिए नही चुनी थी कि उन्हे अंग्रेजी उर्दू  या हिन्दी संस्कृत आदि का ज्ञान नही था। पढीस जी को अपने समाज की दरबारी भाषा अंग्रेजी और उर्दू का अच्छा ज्ञान था तो दूसरी ओर संस्कृत हिन्दी आदि उनकी जातीयता के स्वाभिमान की भाषाये थी जिन्हे उन्होने आत्मसात किया था।इसके बावजूद उन्होने अवधी को कविता के लिए चुना।अवधी को चुनकर वे निश्चित रूप से अपने समाज के सर्वहारा वर्ग की भाषा के साथ खडे होतेहैं।किसान और मजदूर के साथ खडे दिखाई देते हैं।दलितो और स्त्रियो के साथ खडे होते हैं।उन्हे अवधी मे पढाते समझाते भी हैं।दीनबन्धु किसान पाठशाला भी चलाते हैं।आकाशवाणी से भी वे अवधी भाषा के पहले कार्यक्रम के संस्थापक के रूप मे आदरणीय बन जाते हैं।
उनकी अवधी को पढकर यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि आधुनिक अवधी मे भी संस्कृत के अनेक शब्द अपभ्र्ंश और प्राकृत से होते हुए अवधी की थाती बन गये होंगे।खुसरो से लेकर जायसी तुलसी से होती हुई अवधी पढीस जी के यहां नई स्फूर्ति से भर जाती है।प्रो.सूर्यप्रसाद दीक्षित के अनुसार-
 ‘अवधी की मूल भाषिक प्रकृति एवं संस्कृति से ओतप्रोत पढीस जी का काव्य निस्सन्देह एक बहुमूल्य निधि है।’(पृ.61-अवधी भाषा और साहित्य संपदा,स्वाध्याय प्रकाशन,साहित्यिकी-निरालानगर लखनऊ)
पढीस जी संस्कृत के शब्दो को भी अवधी मे ले आने के लिए सजग दिखाई देते हैं।चकल्लस की भूमिका मे वे कहते हैं-‘घसियारिन लिखते समय मुझे क संस्कृत शब्द दिखाई दिया ।मैने उसे चट दीहाती मिरजई पहना अरुनारी का रूप देकर दीहातियो के बीचोबीच बिठा दिया।’(पृ.68-वही)
पढीस जी के समाज मे “मुहुर –मुहुर” जैसे संस्कृत के तत्सम शब्द रूप भी मिलते हैं पढीस जी उसका उसी अर्थ मे प्रयोग भी करते हैं।ऐसे भी अनेक शब्द हैं जो अब शायद अवधी मे न मिलें या बहुत कम प्रयोग के कारण धीरे धीरे लुत होते जा रहे हैं।बहुत सी वस्तुओ के प्रचलन से बाहर हो जाने कारण भी तमाम शब्द लुप्त हो जाते हैं जैसे-चंगरिया-(छोटी डलिया),अद्धा(छोटे आकार की बैलगाडी),पिछौरा(स्त्रियो के ओढने की चादर) मियाना-(वर वधू को लाने लेजाने के लिए पालकी)आदि।इसी प्रकार अनेक क्रियाओ के लुप्त होने से भी अनेक शब्द लुप्त हो जाते हैं।दूसरी ओर अनेक वस्तुओ के प्रयोग मे आ जाने से तमाम नए शब्द प्रयोग मे भी आ जाते हैं।सिगरेट के लिए-सिरकुट शब्द का प्रयोग पढीस जी करते हैं।पढीस जी नये शब्द गढते भी चलते हैं जैसे सृष्टि के लिए-सिरहिट ,सप्तर्षि मंडल के लिए-हन्नी ,चश्मा के लिए-टप्पा ,अद्भुत के लिए अजभुत,मोटरकार के लिए मोटूकाटयिं और बिजली के लिए कउन्धा ,शुद्धकुलवाला के लिए खरे खट-कुल शब्द का प्रयोग करते हैं।
इसके साथ ही काव्यात्मकता को अवधी सुर देने के लिए पढीस जी जगह जगह पर अवध के क्रियापदो और क्रियाविशेषणो का बेहतर उपयोग करते चलते हैं उदाहरणार्थ-हपर-हपर,मुलुर-मुलुर,सटर-पटर,सगर-बगर,भटर-भटर आदि।
निर्विवाद रूप से पढीस जी वो कविहै जो जानबूझकर अवधी मे कविताई करते हैं ।अवधी की गहरी समझ के साथ ही अवधी की शक्ति और उसके भविष्य पर भी उनकी टिप्पणी बेहद मार्मिक और उद्बोधन देने वाली है-“ पचास अथवा सौ वर्ष आगे चलकर जो खडी बोली देश के कोने कोने मे गूंजेगी उसका आज की खदी बोली से कितना भिन्न रूप होगा,इसकी कल्पना ही की जा सकती है।गांवो मे खडीबोली का सन्देश पहुंचाने मे माध्यम गांव वालो की ही बोली करनी पडेगी।”(पृ.67-वही) इस प्रकार हम देखते हैं कि पढीस जी भविष्यदृष्टा के रूप मे सन 1933 मे यह बात कह रहे थे।आज भी हमारी सरकारें अपने विकास कार्यक्रमो और योजनाओ को गांव तक पहुंचाने के लिए स्थानीय बोली और स्थानीय भाषा का ही प्रयोग कर रही हैं।हमारे समाज सुधारक और अब तो बाजारवादी ताकतें भी स्थानीय भाषा मे ही अपना कारबार करने के लिए विवश हैं।
पढीस जी अवधी के भविष्य को  लेकर जितना आश्वस्त थे वह कार्य आज भी लगातार जारी है ।आधुनिक अवधी के विकास की दिशा तय हो चुकी है।पढीस जी के बाद अवधी मे आये उनके लगभग समकालीन पं वशीधर शुक्ल और रमई काका जैसे कवियो ने अवधी को अवध के ग्रामीण जन की भाषा बनाने मे महती भूमिका निभायी।इसी क्रम मे उमादत्त सारस्वत,लक्षमण प्रसाद मित्र,चतुर्भुज शर्मा,गुरुप्रसाद सिंह मृगेश,राजबली यादव,सुमित्रा कुमारी सिन्हा,विश्वनाथ पाठक,त्रिलोचन शास्त्री,श्यामसुन्दरमिश्र मधुप आदि तक यह अवधी मे लिखने पढने की समझ साहित्यकारो मे दिखाई देती है।इसके बाद स्वातंत्र्योत्तर अवधी लेखन मे विकसित हुई यह परंपरा आज भी शताधिक गंभीर कवियो एवं अवधी गद्यकारो ने संभाल ली है।तथापि आधुनिक अवधी के उन्नायक तो पढीस जी ही हैं।उनका ऐतिहासिक महत्व कभी कम नही हो सकता।वे प्रारंभ से ही अवधी की प्रयोजनीयता को ध्यान मे रखकर कविताई करते हैं|                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                         
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                 

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