गुरुवार, 12 मार्च 2020

अवधी कथा साहित्य की परंपरा और समकाल :
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 2 लोग, मुस्कुराते लोग, पाठ

कथा-किहानी के बहाने
समीक्षा लेख  - शैलेन्द्र कुमार शुक्ल
मोब.न. 9695300251
ईमेल- shailendrashuklahcu@gamil.com


अवधी काव्य से लगभग सम्पूर्ण साहित्य जगत अवगत है। दुनिया के श्रेष्ठतम साहित्य ‘क्लासिक’ में अवधी के काव्य-ग्रंथ पद्मावत और रामचरितमानस अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। लेकिन जब हम अवधी गद्य की बात करते हैं तो अवधी के तमाम विद्वान लेखक हमें निराश करते हैं और यह कह कर अपना बचाव करते दिखाई देते हैं कि अवधी भाषा सिर्फ काव्य के लिए ही अनुकूलित है, इसमें गद्य नहींलिखा जा सकता। यह बात सिर्फ अपनी गलती को छिपने के लिए कही जा सकती, जबकि सच इससे इतर है। यदि हम सिर्फ गद्य में कहानी की ही बात करें तो देखते हैं कि अवधी में कथा की परंपरा बहुत पुरानी है लगभग काव्य के साथ-साथ ही उसका विकास हुआ है। ‘कथा किहानी’किताब के प्राक्थन में हिंदी के वरिष्ठ विद्वान विश्वनाथ त्रिपाठी लिखते हैं कि—“अवधी का गद्य प्रसिद्ध नहीं हैं किन्तु है वह भी प्राचीन, 12वीं शताब्दी की कृति ‘उक्तिव्यतिप्रकरण’ में प्राचीन अवधी की बोलचाल की भाषा के रूप मिलते हैं। बोली के रूप में अवधी गद्य का दो टूकपन और भावभिव्यक्ति जग जाहिर है।
लोक जीवन में अवधी का वार्ता साहित्य,कथा-कहानी के रूप में भरपूर है।” लोक भाषाओं की प्राचीन परंपरा
सदैव वाचिक रूप में ही रही है। हम देखते हैं कि अवधी का कथा साहित्य जितना पुराना है, उतना ही विपुल भी। अवधी की काव्य परंपरा में यदि देखें तो एक खास बात भी दिखाई देती है वह है काव्य का कथा रूप। महाकाव्यों में तो कथा का होना एक अनिवार्यता है लेकिन अवधी की आधुनिक कविताओं में भी कथा का एक बहुत सुंदर
ढांचा दिखाई देता है। अवध की लोक संस्कृति में भी कथा का अनुष्ठानिक परिदृश्य भी बहुत पुराना और व्यापक दिखाई देता है।करवाचौथ, सकट, भैयादूज, हरछठ, दिया-चिरइया और गौरहरी आदि अनुष्ठानों के मौके पर स्त्रियों द्वारा पाँच-सात कथा कहने की परंपरा आज भी बनी हुई है। इन कथाओं में स्त्री जीवन की त्रासदी और उसस मुक्ति के लिए कामना की अरदास सुनाई पड़ती है।

दूसरे अवधी गद्य में भरपूर रचनात्मकता के लिए जगह इसलिए भी है और अवधी की प्रकृति गद्य के लिए खूब अनुकूलित थी और आज तो और भी है क्योंकि जब सम्पूर्ण अवधी समाज आपस में रोज़मर्रा की बातें गद्य में ही करता है, तब उसका लिखित रूप भी काव्य की तरह खूब संभव है। अवधी का गद्य अपनी ध्वनि और वक्रोक्ति में बहुत ही शानदार और मार्मिक है, इसमें को दोराय नहीं। इसका प्रमाण आप कहीं अवध समाज में चार-जनो की बतकही सुन कर पा सकते हैं। आधुनिक अवधी साहित्य का यदि हम अध्ययन करें तो अवधी के कथा साहित्य की परंपर देख सकते हैं। यह लिखित सहित के रूप में भी रही है, जिसका इधर के कुछ दशकों में बहुत निखरा हुआ रूप हम देख सकते हैं। लेकिन इस तरफ हमें और सक्रिय होने की आवश्यकता है।

अभी हाल में अवधी के महत्त्वपूर्ण कवि और कथाकार भारतेन्दु मिश्र ने अवधी कथा साहित्य की एक किताब संपादित कर बहुत जरूरी काम किया है। उनका यह काम बहुत से लोगों को चौंका देता है। इस किताब का नाम है ‘कथा किहानी’ (समकालीन अवधी कहानियाँ)। यह किताब दो हिस्सो में है जिसमें पहला हिस्सा परंपरा का है और दूसरा समकाल का। परंपरा में छः कहानियाँ हैं—श्रीमती मोहिनी चमारिन की ‘छोट के चोर’, बलभद्र दीक्षित ‘पढ़ीस’ की ‘चमार भाई’, वंशीधर शुक्ल की कहानी ‘गाँव की जिंदगी’, रमई काका का रेडियो रूपक ‘जगरना बुआ’, लक्ष्मण प्रसाद ‘मित्र’ का रेडियो रूपक ‘सुनीता’ और त्रिलोचन शास्त्री की कहानी ‘देश-काल’।

मोहिनी जी द्वारा लिखित कहानी को विद्वानों ने अवधी की पहली आधुनिक कहानी माना है। इस पुस्तक में भी भारतेन्दु मिश्र ने कहाँ है कि यह कहानी 1915 में कन्यामनोरंजन (संपादक : ओमकारनाथ बाजपेई) में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी की लेखिका के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। ‘छोट के चोर’ कहानी बालसुलभ निश्छल लोकादर्श की कहानी है। इसे पढ़ते हुए, अनुष्ठानिक कहानियों की बरबस याद आ जाती है। लेकिन यह कहानी जिस दौर की है उसमें स्वतन्त्रताआंदोलन के मूल्य अपनी केंद्रीय प्रवृत्ति में उभर कर आते हैं।त्याग-बलिदान और प्रेम की ऐसी पराकाष्ठा का इतना कोमल और निर्णायक दुर्लभ रूप यहाँ दिखाई पड़ता है। यह कहानी अपनी भाषा में कथ्य के साथ शिल्प का जो अनुकूलन रचती है, वह बहुत ही बहुत सुखद है। संवाद का सहारा लेना शायद अवधी की पुरानी कथा परिपाटी को दर्शाता है, जैसा कि लोक-कथाओं में दिखाई देता है। यह कहानी वास्तव में ऐतिहासिक है।

अवधी साहित्य में ठीक से समय-संगत आधुनिकता की प्रवृत्तियाँ बलभद्र प्रसाद दीक्षित ‘पढ़ीस’ के साहित्य में दिखाई पड़ती हैं। पढ़ीस जी के साहित्य को पढ़ते हुए एक बात मुझे परेशान करती है कि उन्होंने अवधी में गद्य क्यों नहीं लिखा ! इस सवाल का जवाब मेरे पास नहीं। पढ़ीस जी ने रेडियो में काम किया, अवधी में वे अपनी प्रस्तुति देते थे, किसानों, मजदूरों और महिलाओं के लिए कार्यक्रम होते थे। उन्होंने गद्य भी लिखा है लेकिन खड़ी-बोली हिंदी में। ‘ला-मज़हब’ (1938) उनकी महत्वपूर्ण कहानियों का संग्रह है। लेकिन अवधी का गद्य उनके यहाँ नदारद है। हो सकता है, उन्होंने अवधी में गद्य लिखा हो जो अप्रकाशित रह गया हो। उनके सुपुत्र स्व. पुतान जी से मेरी एक मुलाक़ात है जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘कक्कू का बहुत साहित्य अप्रकासित रहि गवा’। काश, उनसे यह सवाल पूछा होता। खैर उनकी कहानियों और दूसरी तरह की गद्य विधाओं में अवधी गद्य की झलक मिलती है। भारतेन्दु मिश्र ने पढ़ीस जी के स्केच ‘चमार भाई’ को अवधी गद्य के बहुतायत प्रयोग को देखते हुए, इस किताब में शामिल किया है। यह कहानी अपने समय और सवालों के अनुरूप अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। नवजागरण कालीन साहित्य के धीर-गंभीर अध्येता डॉ. सुजीत कुमार सिंह जब ‘अछूत’ शीर्षक से राष्ट्रवादयुगीन (1920-1940) दलित समाज की कहानियाँ संकलित कर रहे थे, तो पढ़ीस जी की इस कहानी को अपनी किताब में शामिल किया था। ‘अछूत’ हिंदी साहित्य का बहुत महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है।

पढ़ीस के बाद अवधी साहित्य में सबसे महत्वपूर्ण नाम वंशीधर शुक्ल का है। वंशीधर शुक्ल ने 1947 में ‘बेदखली’ नामक कहानी लिखी थी। शुक्ल जी ने अवधी में कई कहानियाँ लिखी हैं। भारतेन्दु मिश्र ने इस संकलन में उनकी एक कहानी ‘गाँव की जिंदगी’ को शामिल किया है। यह कहानी ग्रामीण जीवन की रोज़मर्रा की समस्याओं का एक यथार्थ चित्र प्रस्तुत करती है। किसानी जीवन, आपसी झगड़ा और शासन की विकृति को यह कहानी बखूबी बयान करती है।

‘कथा-कहानी’ सकलन में दो रूपक भी परंपरा खंड में हैं- एक रमई काका का ‘जगराना बुआ’ और लक्ष्मण प्रसाद ‘मित्र’ का सुनीता।यह दोनों रूपक आकाशवाणी से प्रसारित होते रहे हैं। ‘जगराना बुआ’ की लोकप्रियता इस बात से ही पता चलती है, इस प्रस्तुति की याद हर उस व्यक्ति को अब तक बनी हुई है, जिसने भी इसे एक बार सुना। इसमें हास्य की रोचकता लिए ग्रामीण परिवारों की मानसिकता और सामाजिक बनावट को प्रस्तुत करती है। मित्र जी का रूपक ‘सुनीता’ बदलते समाज की विसंगतियों और विडंबनाओं को बहुत पुरजोर तरीके
से उठता है। और परंपरा खंड के अंत में त्रिलोचन की मशहूर कहानी ‘देशकाल’ संकलित है। इस कहानी कहानी में संवादों की भाषा ठेठ अवधी है, जो विषयवस्तु के अनुरूप अभिव्यक्ति को प्रतिष्ठित करती है।

अवधी की समकालीन कहानियों में भारतेन्दु जी ने 20 कथाकारों को शामिल किया है। अवधी कथा साहित्य के नजरिए से देखें तो यह अवधी की प्रतिनिधि कहानियों का संकलन है। ‘कथा किहानी’ खंड में सत्यधर शुक्ल से लेकर अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी तक अवधी की समकालीन कहानी परंपरा यहाँ देखी जा सकती है। यहाँ पहली कहानी सत्यधर शुक्ल की ‘फुलबासा की पंचाइति’ संकलित है। यह कहानी गाँव के जनजीवन में व्याप्त सामाजिक संबंधों के भीतर ताने-बाने के बीच बच्चों के झगड़े और आपसी प्रेम के मनोव्यवहार को दर्शाती है, जिसे लेखक ने बहुत साधारण ढंग से प्रस्तुत किया है। दूसरी कहानी जय सिंह व्यथित की ‘बड़की माई’है। यह कहानी भी ग्रामीण मन और उसकी विसंगतियों को बड़की माई पात्र के इर्दगिर्द रचती है। इन कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि बनावटी चमकदार कलात्मकता कहीं नहीं ठहर पाती।

प्रसिद्ध कथाकार शिमूर्ति की मशहूर कहानी ‘तिरिया चरित्तर’ अवधी की कथा-परंपरा स्थापित बिंदु है। वैसे भी हिंदी पाठ में यह कहानी बहु-पठित और खूब प्रसंसित रहीं है लेकिन अवधी साहित्य के नजरिए से यदि देखें तो इसमें अवधी की पुरानी वाचिक परंपरा बोलती है साथ ही समकालीन भावबोध को बहुत गहराई से उकेरती है।

अवधी की महत्त्वपूर्ण विदुषी विद्याबिंदु सिंह की कहानी ‘लड्डू गोपाल’ स्त्री अस्मिता के बरक्स पुरुष के छद्मपूर्ण व्यवहार को व्याख्यायित करती है। पुंसवाद की जड़ता को अवधी की लोक व्यवहार शैली में यह कहानी बहुत सहजता में अभिव्यत करती है। अवधी की लोक कथा परंपरा में स्त्रियों के दुख-दर्द का जो आख्यान हमारे समाज की स्थिति बयान करते हैं, उसी के बोध को यह कहानी और प्रमाणित करती है।

इस संकलन में इन कहानियों के अतिरिक्त ‘बहू होय तो अस’ मुहम्मद अखलाक, ‘बाबा जी’ रामबहादुर मिश्र, ‘असली मंसा’ सुरेश प्रकाश शुक्ल, ‘श्रवन कै जुबानी’ विनय दास, ‘डिप्टी साहेब’ ओमप्रकाश जयंत, ‘त्रिवेनी केरि बहुरिया’ सूर्य प्रसाद निशिहर, ‘मुंदरी बिटिया’ चंद्रप्रकाश पाण्डेय, ‘मुआवजा’ ज्ञानवती दीक्षित, ‘दाखिल खारिज’ भारतेन्दु मिश्र, ‘जमीन क्यार टुकड़ा’ रश्मिशील, ‘मरजादा’ सुनील कुमार बाजपेई, ‘बिटिया’ कृष्णमणि चतुर्वेदी, ‘पियास’ गंगा प्रसाद शर्मा गुणशेखर, ‘दाँव’ अजय प्रधान, ‘ओझा काका’ सचिन पाण्डेय नीरज,‘लल्ला न आवा’ अंजू त्रिपाठी, मतारी भासा अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी और बाल कहानियों में ‘खंडहर के वहि पार’ अद्याप्रसाद सिंह प्रदीप, ‘घुमंतू’ अशोक अज्ञानी की कहानियां संकलित हैं।

इन समकालीन कहानियों को समग्रता में यदि ध्यान से पढ़ें, तो कहना पड़ेगा कि अवधी की कविता आज जहां प्रतिष्ठित है वहाँ तक पहुँचने में अभी कहानी को वक्त लगेगा। हालांकि कुछ कथाकारों में वैसी ऊंचाई दिखाई देती है। अवधी की एक खासियत यह भी है कि रचनाकार अपनी कुंठा और जड़ता को छुपा नहीं पाता। अपनी मूल भाषा में लिखते हुए अपनी वैचारिक और सामाजिक समझ को बहुत खुले तौर पर लिख जाता है। भाषा में मुहावरे और कहावतें रचनाकार की संवेदनात्मक जमीन को सपष्ट कर देते हैं। इस नजरिए से देखें तो मुहम्मद अखलाक की कहानी ‘बहू होय तौ अस’ अच्छी कहानी। सहजता और पश्चाताप लोक सम्मत नैतिकता का आदर्श कहीं से बनावटी नहीं जान पड़ता। भाषा में एक स्वाभाविक संवेदना मन मोह लेती है। वहीं रामबहादुर मिश्र की कहानी ‘बाबा जी’ कथ्य और शिल्प दोनों में सामंती विकृति की शिकार कुंठा से घिरी हुई दिखाई देती है। कहानी में करेक्टर अपने अनुकूल भाषा बोले जिसमें कुंठा और समय की जड़ विकृतियाँ बढ़चढ़ कर बोल रही हों तो लेखक अपना बचाव कर सकता है लेकिन जब नैइरेटर की भाषा कुंठा और जड़ता के वशीभूत करतब दिखाने लगे तो लेखक कैसे सफाई दे पाएगा। ऐसी कहानियाँ समाज को कुछ नहीं दे सकतीं बजाय अश्लीलता और मूर्खता के जो पुंसवाद और सामंती धूर्तता का बाजार भर हैं।

सुरेश प्रकाश शुक्ल की कहानी ‘असली मंसा’ समाज के संकुचित स्वार्थ संबंधों के बारे में व्यथित मन की कथा कहती है तो विनय दास की कहानी ‘श्रवन कै जुबानी’ बदलते गाँव की विकृतियों को बयान करती है। सहजता और सरलता में इन कहानियों को अच्छी कहा जा सकता है। लेकिन इन कहानियों में वैसी स्मरणशीलता नहीं जैसी अवधी की लोक कथाओं में होती है और वैसी ऊंचाई भी नहीं है जैसी हिंदी कहानियों में दिखाई देती है। फिर भी इन कहानियों ने अवधी के अच्छे गद्य को विकसित करने का काम किया है, इससे गुरेज नहीं किया जा
सकता। इसी तरह की एक कहानी ओमप्रकाश जयंत की है ‘डिप्टी साहेब’ जिसमें स्कूल का हेड मास्टर डिप्टी साहब के स्कूल आने की सूचना पर स्कूल एक दिन के लिए व्यवस्थित रूप से संचालित करने का नाटक करता है। स्कूल निरीक्षण की सूचना मिलते ही लापरवाह और सुविधाभोगी अध्यापकों के हाथ-पाँव फूलने लगते थे, उसी का वर्णन इस कहानी में बहुत सरलता से किया गया है।

‘तिरवेनी केरी बहुरिया’ सूर्य प्रसाद शर्मा ‘निशिहर’ की कहानी भ्रष्टाचार या धांधली की घटना पर आधारित है। यह सहज कथा शैली की एक घटनात्मक कहानी है। कोई बड़ा उद्देश्य या समस्या को यह कहानी नहीं छूती। चंद्रप्रकाश पाण्डे की एक अच्छी कहानी इस संकलन में है ‘मुंदरी बिटिया’। यह कहानी अवधी की अब तक विश्लेषित कहानियों से अलग है। यह कहानी घटना के रोमांच से इतर समस्या और उद्देश्य को केंद्र में रख कर प्रगतिशील बदलावों का समर्थन करती है। कथाकार गाँव में धँसी विसंगतियों और बिडंबनाओं के विरुद्ध एक
सार्थक और समर्थ पहल करती कक्षा बारह की एक किसान बालिका को नायिका के रूप में प्रस्तुत करता।

ज्ञानवती दीक्षित की कहानी ‘मुआवजा’ एक खास विकृत मानसिकता की उपज है। इसकी भाषा संक्रमित होकर अपना सम्पूर्ण वर्गबोध लिए हुए है। इस कहानी में दलितों से पीड़ित सवर्णों की दयनीय दशा को दर्शाया गया है। यहाँ यह बताया गया है कि प्रदेश में दलितों की सरकार बन गई है जिसने सवर्णों से पीढ़ित दलितों को सरकार मुआवजा देती है, इसलिए दलित सवर्णों के खिलाफ झूठे मुकदमें लिखवा कर खूब पैसा कमा रहे हैं और बेचारे भोले भाले सवर्णों के घर परिवार बर्बाद हो रहे हैं, उनके घरों के संस्कारवान बेटे जेलों में सड़ रहे हैं। कुलमिलाकर ज्ञानवती जी दलित विमर्श के खिलाफ एक जोरदार सवर्ण विमर्श खड़ा करना चाहती हैं। सचमुच ऐसे संकुचित ज्ञानियों ने ही अवधी का बेड़ा गर्क कर रखा है।

इस किताब के संकलनकर्ता भारतेन्दु मिश्र की भी एक कहानी इस संकलन में है ‘दाखिल खारिज’। भारतेन्दु जी अपनी जमात में ही नहीं, आधुनिक अवधी गद्य के सबसे टिकाऊ और प्रेरणा-परक व्यक्तिव हैं। उन्होंने आधुनिक अवधी गद्य की गाड़ी को सचमुच जनपथ पर लाने का काम किया। भारतेन्दु जी अपनी जमात के सबसे समझदार और संवेदनशील अवधिया हैं। उनकी यह कहानी पढ़ते हुए यह बात पुनः प्रमाणित होती है। यह कहानी अवधी की लोक कथा परंपरा के तत्वों को अपने भीतर सँजोये हुए है साथ ही आज के प्रासंगिक सवालों को बहुत संवेदनात्मक स्वर देती है।

‘मरजादा’ सुनील कुमार बाजपेई की कहानी है। साफ-सुथरी और संवेदनशील। इस कहानी को पढ़ने बाद मैं सोच में पड़ गया कि यदि इसी कहानी को ‘बाबा जी’ वाले कथाकार लिखते या ‘मुआवजा’ वाली लेखिका ? एक भरे-पूरे परिवार की स्त्री चालीस बरस की उम्र में किसी दूसरे पुरुष के प्रेम जाल में फंस कर शादी कर ले और फिर बरामद के बाद ग्लानि से घुटती हुई आत्महत्या कर ले। मैं देर तक सोचता रहा, इस ग्लानि को सामाजिक मर्यादा की हकीकत से एक सधी भाषा में बिना बर्बर पुरुषत्व के उबाल मारे एक अवधिया बिना कुंठा के लिख दे
रहा है, तो इसे मैं अवधी कहानी के इतिहास की घटना मानता हूँ। हालांकि यह कहानी स्त्री विमर्श की कसौटी पर खरी नहीं उतरती फिर भी लोकवादी नजरिए से श्रेष्ठ कही जा सकती है। मैं एक समीक्षक के नजरिए से इस कहानी की तारीफ करता हूँ।

रश्मिशील अवधी गद्य का महत्त्वपूर्ण नाम हैं। उनकी कहानी ‘जमीन क्यार टुकड़ा’ लोकवादी विन्यास की बहुत अच्छी कहानी है। एक बूढ़ी मुस्लिम स्त्री की सेवा करता हिन्दू युवक इस कहानी की जीवटता को प्रतिष्ठित करते हैं। लेकिन इसमें हिन्दू मुस्लिम का धार्मिक समन्वय की कोई कीरत गाथा नहीं है, बल्कि उसके प्राणत्व रूप निश्छल ग्रामीण हृदय की प्रतिष्ठा हुई है। रश्मिशील की यह कहानी आधुनिक अवधी की बेहतरीन कहानी है।लोकवादी नजरिए से सहज स्त्री-विमर्श की एक अच्छी कहानी कृष्णमणि चतुर्वेदी की ‘बिटिया’ है। इस कहानी में पुरुष सत्तात्मक समाज में बेटे और बेटियों के बीच जो अभिभावकीय दुभाति दिखाई देती है, उसी की बहुत संवेदनशील परिणति इस कहानी में हुई है।बेटियों के प्रति हो रहे अन्याय और असमानता के विरुद्ध यह कहानी निर्णायक भूमिका में जोरदार है। ऐसी कहानियों से अवधी कहानी परंपरा को मजबूती मिलेगी।

गंगा प्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ प्रतिभा संपन्न लेखक है।संवेदनशीलता की शानदार मिसाल है उनकी अवधी कहानी ‘पियास’।जातीय अस्मिता और वर्गीय धारणा के छटपटाते संघर्ष को संवेदना की जिन आँखों से गुणशेखर जी देख आए हैं, वह अवधी कथा साहित्य की निधि है। कहानी की ठेठ अवधी और शानदार शिल्प इससे पहले शायद ही कहीं दिखे। गुणशेखर जी अवधी में इस तरह यदि और लेखन करें तो अवधी साहित्य का इतिहास उनका एहसानमंद रहेगा।

‘दाँव’ अजय प्रधान की कहानी है। इस कहानी के माध्यम से राजनीतिक वर्चस्व के लिए विधायक और सांसद कैसे जाति को संगठित कर और अपने लाभ के लिए अस्मिताबोध की तिकड़मी चाल चलते हैं, नाटकीय तरीके से प्रस्तुत की गई है। यह कहानी नाटकीय शिल्प से अच्छी है। ‘ओझा काका’ सचिन पाण्डेय का रेखाचित्र है भी इस संग्रह में सकलित है, जो बहुत साधारण ढंग का है।स्वार्थी होते समाज की व्यथा का संवेदनशील चित्रण करती कहानी ‘लल्ला न आवा’ अंजु त्रिपाठी की अच्छी कहानी है। इस कहानीमें तमाम विपन्नताएं झेलती और विकट संघर्ष में जीवन जीते हुए अपने बेटे को पालती हुई गाँव की माँ और पढ़-लिख कर बाहर शहर निकल
गए बेटे के बीच संबंधों और जरूरी कर्तव्यों की अवहेलना करते निहायत स्वार्थी होते समाज की खाई को दर्शाया गया है।

एक और कहानी इस संकलन में है ‘मातरी भाषा’ इसके लेखक समकालीन अवधी आंदोलन के कर्मठ, ईमानदार और प्रगतिशील विद्वान अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी हैं। इन्होंने समकालीन अवधी की चेतना में जान फूंकी है। उनकी यह कहानी भाषा की कुंठित राजनीति को बेनकाब करती है। मातृभाषा के ऊपर चालक लोग जो आवरण चढ़ाए दंभ से लबरेज शिष्टता का परचम फहराते घूमते हैं, उन्हें वाजिब तमीज सिखाती है यह कहानी।

इस संकलन में ‘खंडहर के वहिपार’ आद्या प्रसाद ‘प्रदीप’ और ‘घुमंतू’ अशोक ‘अज्ञानी’ की बाल कहानियाँ भी संकलित हैं। अपने पूरे सौष्ठव में यह अवधी कहानी का नायाब संकलन है। हालांकि इस संकलन में कुछ कहानियाँ निहायत खराब और कमजोर हैं, लेकिन उन्हें इस संकलन में जगह देना, मैं गलत नहीं मानता। क्योंकि जब प्रतिनिधि साहित्य की बात हो रही हो तो उन्हें जगह देनी ही चाहिए जिनके नामों का बहुत ढिंढोरा अवधी में बजता रहा है। समय अपनी आवश्यकतानुसार सबका आकलन कर ही लेगा, यह भी लगभग सच्चाई
ही है। अभी इस पर भरोसा मुझे भी है। अवधी गद्य के लगनशील  लेखक और संपादक भारतेन्दु जी का इस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए मैं अपनी ओर आभार प्रकट करता हूँ।
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कथा किहानी : भारतेन्दु मिश्र :: परिकल्पना प्रकाशन : 2019 :: मूल्य : 475

प्रस्तुति: ब्लॉगर 
prastuti 

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