बुधवार, 27 जनवरी 2021

 

अवधी गीत काव्य की परंपरा

@  डॉ .भारतेंदु मिश्र


सभी जीवंत भाषाएँ अपने परिवेश की अन्य भाषाओं से बहुत कुछ लेती हैं और दूसरी भाषाओं को प्रदान भी करती हैं | यह संवेदनाओं की  आवाजाही ही हमारी साहित्यिक सामाजिकता का मूल है |  गहरी संवेदनाओं का परस्पर संवाद ही साहित्य है जिसमें यथार्थ जीवन की झलक विविध रूपाकारों में प्रकट होती है |  आज हिन्दी राज भाषा है और विश्व भाषा भी |लेकिन खड़ीबोली हिन्दी का इतिहास लगभग एक सदी पुराना ही है

जबकि अवधी,ब्रज,बुन्देली, राजस्थानीभोजपुरी जैसी लोक भाषाएँ और इनकी विविध बोलियों ने हजारों वर्षों की मौखक  अभिव्यक्ति के माध्यम से अपनी लोक परंपराएं विकसित की हैं | पिछले सौ वर्षों में हिन्दी प्रदेशों की ये लोकभाषाएं हिन्दी भाषा के लिए खाद पानी का काम करने लगीं | इसके बावजूद लोकभाषाओं की नदियाँ सूखी नहीं हैं | इसका सबसे बड़ा कारण यही रहा कि ये लोक भाषाएँ कोटि कोटि जन की मातृभाषा के रूप में आज भी जीवंत हैं |आजादी के बाद हिन्दी को राजदरबार मिला किन्तु इन लोकभाषाओं को वैसा राजाश्रय नहीं मिल सका |लोकभाषा में सर्वहारा वर्ग से सीधे जुड़े  कवियों ने कभी खड़ीबोली हिन्दी का विरोध नहीं किया | अब जब हिन्दी ने इन लोक भाषाओं के साहित्य की अधिकांश संपदा को प्राचीन हिन्दी के रूप में अधिग्रहीत कर लिया है तो लोकभाषाओं का साहित्य और लोक जीवन से जुड़ी मातृभाषाएँ  छीजने  लगी हैं|खासकर उत्तरप्रदेश में अब तक अनेक दलों की सरकारों ने लोकभाषाओं के संरक्षण की कोई समुचित व्यवस्था नहीं की |

जब हम समग्र  अवधी कविता की परंपरा की बात करते हैं तो उसमें प्रबंध काव्य और मुक्तक कविता की सभी छांदस विधाएं शामिल होती हैं ,विषय की दृष्टि से यहाँ केवल अवधी के गीतधर्मी कवियों की कविताई और उसकी परंपरा पर बात कर रहे हैं| मुक्तक काव्य में गीत,गजल, दोहा, घनाक्षरी,बरवै, पद,मुक्तछंद,हाइकू आदि विधाओं पर अलग से विचार किया जाना चाहिए| डॉ.श्यामसुन्दरमिश्र मधुप जी ने अवधी साहित्य का इतिहास में आधुनिक शोधपरक दृष्टि से  अवधी कविता की अनेक विधाओं पर अलग अलग विचार किया है | अवधी कविता में मुक्तक की परंपरा भी बहुत प्राचीन है किन्तु यहाँ हम नवजागरण काल से आधुनिक अवधी गीत परंपरा के विकास क्रम पर बात करेंगे | बाबू भारतेंदु हरिश्चंद्र जी के दोहे की भाषा पर यदि ध्यान दें तो वह भी अवधी कबिताई की लोकधर्मी चेतना का उद्घोष ही देती हुई दिखाई देती है-

निज भाषा उन्नति अहै/सब उन्नति को मूल|

बिनु निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को सूल| हिन्दीवादियों ने इस अवधी दोहे को खूब गाया बजाया किन्तु इसकी भाषा चेतना पर और निहितार्थ पर कभी गौर नहीं किया | दोहा अवधी का जातीय छंद है और इस दोहे की भाषा अवधी है | लोकभाषा की निजता का अर्थ तो गायब ही कर दिया गया |उन्ही दिनों  प्रताप नारायण मिश्र स्वयं ब्राह्मण होकर ब्राह्मणवाद के विरोध में लिख रहे थे उनके अवधी गीत की प्रगति चेतना देखें-

कासी पुन्नि ,गया मा पुन्नि /बाबा बैजनाथ मा पुन्नि

जो तुम द्याहौ बहुत खिझाय / या कौनिव भलमनसी आय |

तुम अधीन ब्राम्हन के प्रान  /ज्यादा कौनु बकै जजमान |

 

बीसवीं सदी के आरम्भ से ही अन्य भाषाओं की तरह अवधी में भी साहित्य की संपदा का विकास हुआ है | पिछले सौ वर्षों में शताधिक महाकाव्यों और प्रबंध काव्यों की सूची इस बात का प्रमाण है | दूसरी ओर मुक्तक कवियों की सूची भी कम नहीं है | आज आधुनिक अवधी में बलभद्र प्रसाद दीक्षित पढीस जैसे प्रगतिशील कवि की परंपरा को लगातार संवर्धित होते हुए देखा जा सकता है | उनकी कविताओं पर हिन्दी की छायावादी काव्य परंपरा का प्रभाव तो जग जाहिर है किन्तु अनेक नए प्रगतिशील आयाम खोलती हुई उनकी कबिताई अवधी में    नई तरह के गीत और सामाजिक वर्ग चेतना का भी सूत्रपात करती है | वे अवधी के पहले कवि हैं जो कविता के प्रयोजन को समझते हैं | दलित वंचित किसान मजदूर के जीवन को अपने समाज की भाषा में सर्वहारा  अशिक्षित जन के लिए लिखते हैं |दरबार में रहकर राजकुमार को खरी खरी सुनाते हैं| पहले दरबार की फिर आकाशवाणी की नौकरी छोड़कर खेत में हल चलाने का निर्णय लेना, उस समय के भी किसी कवि के लिए सहज नही रहा होगा| ऐसा व्यक्ति जब नवगीत के जनक  निराला की संगति  में रहा होगा तो अवधी में प्रगतिशील गीतों की रचना कैसे न करता? पपीहा बोलि जा रे/ हाली डोलि जा रे जैसे छायावादी गीतों के साथ ही उन्होंने प्रगतिशील चेतना के गीतों का भी शुभारम्भ किया-

ठुनकि ठुनकि ठिठुकी कठपुतरी|

रंगे काठ के जामा भीतर / अनफुर पिंजरा  पंछी ब्वाला

नाचि नाचि अंगुरिन पर थकि थकि/ठाढ़ि ठगी असि जसि कठपुतरी|(चकल्लस,1931)

ये प्रगीतशीलता पढीस जी की अवधी कबिताई का श्रेष्ठ उदाहरण है ,ज़रा विचार कीजिए कि हम सब सत्ता के हाँथ की कठपुतली ही तो  हैं जिनकी डोर किसी अन्य की अँगुलियों में है | ये गुलामी का चित्र भी कहा जा सकता है |दार्शनिक  बोध के भाव से पढ़े तो छायावादी गीत के रूप में भी देखा जा सकता है किन्तु यदि नए प्रयोग, नए प्रतीक और नई भाषा चेतना के आधार पर देखें तो यह नवगीत भी लगता है |

प्रसंगवश हिन्दी में नवगीत की परंपरा गीतांगिनी(1958) सं. राजेन्द्र प्रसाद सिंह से मानी जाती है | जो कविता64 और पांचजोड़ बांसुरी सं.चंद्रदेव सिंह से होते हुए नवगीत दशक (1980)सं. शंभुनाथ सिंह तक आती है |

सब जगह नई कविता और नवगीत की नवता को संपादकों ने अपनी अपनी तरह से विश्लेषित किया जिसके परिणाम स्वरूप नवगीत को आज अनेक आयाम मिल चुके हैं | उल्लेखनीय यह  भी है कि नवगीत में जिस लोकचेतना और लोकबिम्ब की बात की जाती है वह तो लोकभाषाओं से ही उसे मिली |

अवधी भाषी कवियों ने अवधी भाषा और खड़ीबोली दोनों में गीत  नवगीत लिखे |तात्पर्य यह कि नए समय में अवधी में  नवगीत लेखन की परंपरा का पुनराविष्कार या प्रचलन नया दिखाई दे सकता है किन्तु उसकी जड़ें सनातन गीत चेतना की ही तरह पुरानी हैं | अवधी साहित्यकारों का सौभाग्य है कि हमें अवधी साहित्य के इतिहासकार डॉ. श्यामसुन्दर मिश्र मधुप जैसा अवधी सेवी मिला| जिन्होंने अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थ में  अवधी कविता की  अनेक आधुनिक काव्य प्रवृत्तियां जैसे मुक्तछंद, गजल, दोहा, बरवै आदि  पर विचार करते हुए समकालीन  अवधी नवगीत पर भी विस्तृत  विवेचन किया है | निराला जी ने पढीस जी के जिस गीत को चकल्लस की भूमिका में  उद्धृत किया था उसका अंश देखिये कि किस प्रकार नवगीत की नई दृष्टि यहाँ उल्लेखनीय है-

फूले कांसन ते ख्यालय/ घुन्घुवार बार मुहं चूमैं

बछवा बछिया दुलरावै / सब खिलि खिलि खुलि खुलि ख्यालैं

बारू के ढूहा ऊपर /परभातु अइसि कस फूली

पसु पंछी मोहे मोहे /जंगल मा मंगल गावैं

बरसाइ सतौ गुण चितवइ / कंगला किसान की बिटिया ||

  यहाँ साफ तौर से नवता और जीवन के प्रति यथार्थवादी दृष्टि को देखा समझा जा सकता है |ऐसे लोकजीवन के बिम्ब उस समय की हिन्दी कविता में भी कदाचित ही देखने को मिलते हैं |उनदिनों हिन्दी के अधिकांश कवि दार्शनिक बोध की कवितायेँ लिख रहे थे या फिर गांधी नेहरू को लेकर कबिताई कर रहे थे | किसान चेतना के नाम पर हे ग्राम देवता नमस्कार जैसी गीत रचनाएं लिख रहे थे| हालांकि इन्ही दिनों  सन 1936 में प्रेमचन्द जी की अध्यक्षता में  प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अधिवेशन लखनऊ में हुआ था परन्तु शोषक शोषित की चेतना कवियों में भी नहीं उपजी थी| यही कारण है कि रामविलास शर्मा  ने पढीस जी  को पहला हिन्दी का वर्गचेतस कवि कहा था| एक उद्धरण से यह बात और साफ़ हो जाती है-

काकनि यह बात गाँठ बांधेव / उयि अउर आंय हम अउर आन ||

 

अवधी नवगीत की परंपरा का संकेत सूत्र हमें वंशीधर शुक्ल जी की कविताओं में भी देखने को मिलता है-

 

बदरा आय जा रे

गगरी छूछी बैल पियासे/ नीर पियाय जा रे

बैठ हवा पर छरकति घूमै /सुर्ज चाँद के तरवा चूमै

रोज सुनावै सरिया टूमै/ छिन छिन बिजुली का मुंह चूमै

तनी खिसियाय जा रे |

इस गीत में कवि बादल से दोस्तों की तरह उलाहना ही नहीं देता बल्कि उसके चाल चलन पर भी व्यंग्य करता है |बादल का स्वभाव खद्दर धारी नेताओं जैसा मालूम होता है | यहाँ गीत का नवाचार आकर्षित करता है | इसके साथ ही एक अन्य गीत का कथ्य देखें कितना  उल्लेखनीय है जहां सीधे अछूत के दर्द को उन्होंने लिखा है|अछूत की होरी शीर्षक गीत का एक अंश देखें-

हमें या होरिउ  झुरसावै

खेत बनिज ना गोरू गैया /ना घर दूध न पूत

मड़ई परी गाँव के बाहर /सब जन कहैं अछूत | गीत की इस नई चेतना को हम आज की दलित कविता और दलित विमर्श की दृष्टि से भी व्याख्यायित कर सकते हैं | तात्पर्य यह कि अवधी कवि की प्रगतिशीलता को देखें तो आजादी के आसपास भी जब छायावादी कविता का दौर था तब भी वह नए सामाजिक यथार्थ बोध को लेकर सजग हो चुका था | वंशीधर जी स्वतंत्रता संग्राम में कई बार जेल जाते हैं, अपनी कविता पुस्तकें  -राम मडैया और राजा की कोठी खुद ही छापकर मेले ठेले में बेचते हैं | अपने समाज को लगातार जगाते हुए चलते हैं| उठ जाग मुसाफिर भोर भई /अब रैन कहाँ जो सोवत है | जैसी गीत रचनाएं तो कोटि कोटि जन का कंठहार बनीं | अवधी का कवि जीवन की नई चेतना और नए सामाजिक चिंतन से जुड़कर उनके बीच रहकर वह दलित शोषित के साथ खड़े होकर अपने समाज को प्रगतिशील बनाने के लिए संघर्ष कर रहा था -

हमका चूसि  रही मंहगाई

रुपया रोज मंजूरी पाई/ प्रानी पांच जियाई

पांच सेर का खर्च ठौर पर / सेर भरे मा खाई

सरकारी कंट्रोलित  गल्ला हम ना ढूढे पाई |( वंशीधर शुक्ल)

 

अवधी में प्रगतिशील चेतना के एक अन्य गीतकार द्वारिका प्रसाद यादव यदुचंद जी हैं जो लखनवी भद्रजन पर व्यंग्य करते हुए घनाक्षरी के माध्यम से  कहते है-

दालि भातु घर क्यार हमका रुचत नाहीं

सडक पर ठाढ़े ठाढ़े चाटित पतौवा हन

चस्का सलीमा क्यार अंड मंड  कीने रहे

मड़राई अइसे जैसे कटे कनकौआ हन

स्यांठा अस देही पै फैसन के टीप टाप

रिस्टूरेंट केर मानौ मोटहा बिलौआ हन

जदुचंद दउआ करी तुमते हंसौवा नहीं

कसम गोमती कै हम पूरि लखनौआ हन |

अवधी कविता में घनाक्षरियाँ बहुत लिखी गयीं | ज्यादातर हास्य व्यंग के कारण आधुनिक समीक्षकों ने इन महत्वपूर्ण कवियों को भी नही पहचाना | लेकिन इस कविता में आधुनिक फैशन और उसके आकर्षण पर व्यंग्य दृष्टि तो उल्लेखनीय है ही |

 

आधुनिक अवधी कविता की त्रयी में तीसरे सर्वाधिक  प्रगतिशील चेतना वाले समाज सुधारक कवि गीतकार रमई काका हैं | समीक्षकों ने इन्हें भी हास्य कवियों की कोटि में धकेल दिया, जब कि काका की कविताई में व्यंजना की जो अद्भुत छवियाँ मिलती हैं वह अन्य अवधी कवियों के पास नहीं दिखतीं -

तुम बड़े भयेव तो ताड़ भयेव

तुम धरती मा जड  गाड़े हौ / औ आसमान हौ छुए लेत

जतनै तन बाढ़ा है तुम्हार /वतनै धरती पर भार भयेव|

अब इस गीत का स्वर लोकधर्मी तो है ही व्यंजना में साफ ध्वनित होने वाली अर्थछाया आधुनिक बोध की दृष्टि से समझी जा सकती है | ताड़ जैसे नेता या सामंत सिर्फ अपने लिए ही इस संसार में जीते हैं | वे धरती से, समाज से जितना चाहे सुविधाओं का दोहन करते हैं किन्तु बदले में समाज को और धरती को कुछ नही देते |ये शोषक दृष्टि आज भी हमारे समाज में विद्यमान है | रमई काका का एक अत्यंत प्रसिद्द गीत है जिसमें बाजारवादी धोखे के रूप में  नए गीत की चेतना हिलोर मारती है वह है -

हम गएन  अमीनाबादै जब ,कुछ कपड़ा लेय बजाजा मा

माटी कै सुघरि मेहरिया असि ,जंह खड़ी रहै दरवाजा मा

समझा दुकान कै यह मलकिन, सो भाव ताव पूछे लागेन

याके बोले यह मूरत है,हम कहा बड़ा ध्वाखा हुइगा ||

इस गीत में रमई काका का स्वर जिस बाजारवादी विडम्बना की ओर हमारा ध्यान खींचता है कि वह व्याकुल करने वाला है | जहां मूर्ति के शरीर पर पूरे कपडे तो हैं किन्तु किसान के घर की बहन बेटी के शरीर पर लाज ढकने के लिए वस्त्र नही हैं | अमीनाबाद तो प्रतीक है किन्तु इस बाजारवादी व्यवस्था ने हमारे वर्तमान जीवन और इक्कीसवीं सदी को भी पूरी तरह अपने आगोश में ले लिया है | जबकि हिन्दी के कुछ स्वनाम धन्य प्रोफेसर इसे हास्य की कविता बताने लगते हैं |

व्यंजना की ऐसी ही किरणे रमई काका के गीतों से फूटती हैं किन्तु स्वनाम धन्य डॉ. नामवर जैसे आलोचक खड़ीबोली हिन्दी और गद्य कविता के प्रसार की राजनीति में बिंधते चले गए और लोकभाषा के सृजन का तिरस्कार करने के लिए उसे बोली बना डालने पर तुले रहे | जब चार पांच दशकों तक हिन्दी के छात्रों को लोकचेतना की धारा से काट दिया गया ,पाठ्यक्रमों में नीरस गद्य को कविता के रूप में ठूंस दिया गया तो इस ओर देखना लोगों को गंवारपन जैसा महसूस होने लगा | अब तो कुछ महान चिंतकों ने लोकभाषा के सृजन को हिन्दी की क्षति भी कहना शुरू कर दिया है |

ज़रा सर्वेश्वर की उषा कविता याद कीजिए - राख से लीपा हुआ चौका, उसका बिम्ब बहुत विख्यात हुआ |अब ज़रा रमई काका का गीत बिम्ब देखिए-

हर भीति पर किरण की अब छाप लागि गै है

सुभ काज मा ज्यों ऐपन की थाप लागि गै है

टुटही रहै मडैया मौक़ा लगाय लीन्हेसि

नीचे उतरि किरनिया चौका लगाय दीन्हेसि

खटिया तरे लखत हैं लरिका अजब तमासा

किरनै चुवाय दीन्हेनि हैं धूप  के बतासा ||

ऐसा जनवादी लोक सौन्दर्य के प्रभात का चित्र समूची हिन्दी कविता में मेरी जानकारी में नहीं आया |जहां तक मेरा अनुमान है यह गीत सर्वेश्वर की उषा कविता से पहले ही लिखा गया था |

केदारनाथ अग्रवाल जी हिन्दी के बड़े प्रगतिशील कवि माने जाते हैं, आपातकाल की नसबंदी जैसी त्रासदी का प्रतिरोध करते हुए अवधी में उनका गीत स्वर देखिए-

हम तौ उनका वोट न देबै /जे हमका बधियाइन है

जे भारत का अमरीका कै/पाही देस बनाइन है

अमरीका कै बनियागीरी /हमारे ठांव बुलाइन  है

डालर के हाथन मा सौपिन /हमका बेंचि बहाइन है ||

 

अवधी हिन्दी के कवि और नाटककार लक्ष्मण प्रसाद मित्र जी ने कुछ बहुत मार्मिक कवितायेँ लिखी हैं -सपनु शीर्षक उनके गीत का स्वर देखिए-

काकनि हम एकु सपन द्याखा

कोटिन कंकाल किसानन के /लाखन मजूर मरहे झरहे

कौनिव बिधि तन मा प्रान राखि/लड़ि रहे मौत ते जौ फुरहे|

इसी गीत के अंत में मित्र जी लिखते है-

हमका जिउ राखे का नाहीं / उनका घिउ खाति लपन द्याखा||

पारिजात महाकाव्य के रचयिता गुरुभक्त सिंह मृगेश जी के गीत का एक अंश देखिए -

खेती बेसार बिनु का बोई /कैसे कै पोत अदा होई

रमदिनवा  अबकी जाड़े मा /कुरता ना पाई तौ रोई

बस यही फिकिर मा आपन हम  अलमस्त जवानी भूलि गयेन|

हिन्दी,अवधी के प्रसिद्द कवि त्रिलोचन शास्त्री जी ने अवधी में तीन हजार के लगभग बरवै लिखे हैं इसके अतिरिक्त कुछ मुक्तछंद कवितायेँ भी अवधी में लिखी हैं,, जो उनके कविता संग्रह मेरा घर में संकलित हैं  | पाँचू शीर्षक कविता का एक अंश देखिए -

क हो पाँचू / कबले तू पेटहा भा/ एनके ओनके खटव्या/ रुक्ख सुक्ख जेस जुरे /भखि लेव्या,परि रहिव्या |

इसी क्रम में माताप्रसाद मितई के मुसहर जाति के दुखद जीवन पर लिखे गीत का अंश उल्लेखनीय  है |वे जौनपुर के थे और पूर्वी अवधी को अपनी मातृभाषा मानते थे | नई चेतना और अवधी गीत के प्रसार में उनका भी योगदान उल्लेखनीय है | देखा जाय-

नाम मुसहरवा है/कौनव सहरावा ना

कैसे बीते जिनगी हमार |

जेठ दुपहरिया म सोढ़िया चिराई करी

बहै पसिनवा कि धार |

 

 इसीप्रकार अन्य अनेक अवधी कवि नई चेतना के साथ अवधी कविताई में अपने गीत स्वर के साथ उपस्थित दिखाई देते हैं - जिनमें श्याम तिवारी,विकल गोंडवी,युक्तिभद्र दीक्षित पुतान,चतुर्भुज शर्मा,रूप नारायण त्रिपाठी,श्रीपाल सिंह क्षेम,दूधनाथ शर्मा श्रीष ,हरिभक्त सिंह पवांर, लक्ष्मी शंकर मिश्र निशंक, सत्यधर शुक्ल,घुरू किसान,लवकुश दीक्षित, बेकल उत्साही,जमुई खां आजाद,पारसनाथ भ्रमर,रफीक शादानी, काका बैसवारी,श्मयामसुंदर मिश्र मधुप,आदित्य वर्मा ,हरिश्चंद्र पांडे सरल, रामइकबाल त्रिपाठी अनजान, राधा पांडे, मलखन यादव अनपढ़,आद्याप्रसाद उन्मत्त, गीता श्रीवास्तव,रमाशंकर विद्रोही,जगदीश पीयूष,विद्याबिंदु सिंह,रामकृष्ण संतोष,सुशील सिद्धार्थ, आदि का नाम शामिल किया जा सकता है | इनमें से क्रमश: कुछ लोकधर्मी मार्मिक गीत नवगीत के अंश दृष्टव्य हैं |गंगा जी की आरती और उनकी अर्चना करने के बाद कवि का उपालंभ का स्वर देखने योग्य है -

हथवा मा फूल नयनवा म बिनती

सुनी ला अरजिया हमार हो गंगा जी|

देंहिया कै दियना परनवा कै बाती

झिलमिल झिलमिल  बरे सारी राती

तबहूँ न कटे अन्हियार होगंगा जी ||( रूप नारायण त्रिपाठी)

लोकभाषा का गीतकार चांदनी रात में गाँव की जिन्दगी का मनोरम चित्र खींचता हुआ सचमुच कितनी दृढ़ता और साक्षी भाव से किसान के श्रम सौन्दर्य  को अंकित करता है -

 निकरी अंजोरिया कै देखि कै किसनवा

नाहीं जानै रतिया औ जानै न बिहनवा

हरवा बैल लैके करै दाहिन बांव

बड़ा नीक लागै अंजोरिया म गाँव ||( दूधनाथ शर्मा श्रीष)

गाँव की स्त्री अपनी जैसी स्त्री के रूप सौन्दर्य का नैसर्गिक रूप से चित्रण करते हुए बताती है कि कितनी ऐसी स्त्रियाँ हैं जिनके पति परदेश में हैं और वे आज भी दुखी मन से उनके कुशल सन्देश की प्रतीक्षा करती रहती हैं |

ओनई कारी हो बदरिया/छलकइ अंखिया कै गगरिया

गोरिया पाती जोहै ना |

रचिकै मेहेंदी भरि गदोरिया/ गोरिया पाती जोहै ना ||(गीता श्रीवास्तव)  

घर के दरवाजे की नीम तो घर की सदस्य जैसी है |उसके न रहने से पर्यावरण और घर की रौनक ही चली गयी है| अब तो कौए भी इस ओर छत पर नहीं आते |

दुधवा कै खिरिया लै ओखै मंतरिया

भूले से कगवा न बोलै अंटरिया

जैसे परनवा हेरान /कहाँ गयी निम्बिया जवान ||( पारसनाथ भ्रमर )

परदेश जाने वाले पति को समझाती पत्नी उसे सचेत करती है कि अब बंबई न जाना -

 

खारा पानी बिसैली बयरिया / बलम बम्बैया न जायेव

रोज सुना हुवां  चक्कू चलत है /बड़ मनइन के दादा पलत हैं

टोना मारत है फ़िल्मी गुजरिया /बाम बम्बैया न जायेव |

( बेकल उत्साही)

बरसात में आम तौर पर गाँव का जीवन कितना कष्टमय हो जाता है यह कहने की बात नहीं है |उन्नाव के एक किसान की आपबीती कविताई का करुण  गीत स्वर देखिए-

गोंहू भीज,भीजि गै गोजई /कैसे बीज बोवै का जोगई

टपका ते हैरान बेटौनू/ ढूंढत फिरत परात

बदली गै अबकी कै बरसात /रही रही जिउ घबरात |

(घुरू किसान)

 

वृद्धा स्त्रियाँ महुआ बीन रही हैं,तो कहीं आम और कोई हलवाहा होरा भून रहा है कोई सीला बीन रहा है तो कोई खलिहान से बोरा लादे आ रहा है |एक ओर अरहर की फलियाँ बज रही हैं तो वहीं दूसरी ओर गोरी के कंगन रुनझुन कर रहे हैं | ऐसे किसानी के लोकबिम्ब अवधी कविता की बड़ी पूंजी हैं |   

बूढा बिनैं महुआ गदेलवै टिकोरा

कतौ चरवहवै चना का लावै होरा

केहू बिनै बलिया लालन लिहें कोरा

केहू खरिहनवा से लादे आवै बोरा

कतहूँ तो बाजै अरहरी कै छिमियाँ

तो कतो बाजै गोरी कै कंगनवा ना |( जमुई खां आजाद )

संयुक्त परिवार में भाभी और देवर के रिश्ते में फंसी घबराई हुई  स्त्री के मनोविश्लेषण की अद्भुत व्यंजना का स्वर भी इसी अवधी लोक जीवन में देखने को मिल जाता है |

 

निहुरे निहुरे कैसे बहारौं अंगनवा/टुकुर टुकुर देवरा निहारै बेइमनवा

भारी अंगनवा न बैठे ते सपरै /निहुरौं तो बैरी अंचरवा न संभरै

लहरि लहरि लहरै उघारै पवनवा/टुकुर टुकुर ..( लवकुश दीक्षित)

गाँव में आसन्न मृत्यु बोध के दृश्य आम हैं,जलाभाव वाले  मरुभूमि के गाँव की कल्पना करके कवि इस कठिन जीवन बोध से भी हमें जोड़ता है |ऐसे वातावरण में  सुख और सुख की छाया भी कहाँ संभव है|

 

हारी जिनगी मौत न हारी /जनम तो यहि जग इक लाचारी

कस कुटिया कस रंग महलिया/ मौत न देखे ठांव कुठाँव

मरुथल बीच बसा जब गाँव /फिर कस बगिया फिर कस छाँव |

(हरिश्चंद पाण्डेय सरल )  

 

बेकारी,नफरत और मंहगाई जैसी सब अव्यवस्थाओं के जिम्मेदार तो प्रजातंत्र के संरक्षक नेता जी ही हैं |कवि उन्हें ही व्यंग्य करते हुए याद करता है |

ई मंहगाई ई बेकारी /नफरत कै फ़ैली बीमारी

दुखी अहै जनता बेचारी /बिकी जात बा लोटा थारी

जियो बहादुर खद्दर धारी |(रफीक शादानी)

अवधी की कवयित्री बालिकाओं की भ्रूण हत्या के विचार से व्याकुल है |ये अनैतिक कैंसर जैसी  बीमारी हर तरह से  हमारे समाज को खोखला करती जा रही है | इस सामाजिक सोच के कारण अनेक विकार जन्म ले रहे हैं, लिंगानुपात पर भी प्रतिकूल  प्रभाव पड़ रहा हैं -

 

केका तू कहबू मैया रानी बिटेवा /केका तू गोदिया खेलउबू

के तोहे अम्मा कहिके बोलाए /केका तू करबू सिंगार हो

जन्म से पाहिले मारिउ न हमका / बस यही बिनती हमार हो |

( राधा पांडे )

इन विविध संवेदनाओं के गीत बिम्बों को देखकर यह कहा जा सकता है कि अवधी का कवि अपने लोक से सदैव संपृक्त रहा उसने अपने संगी साथी किसान मजदूर के साथ अपना जीवन जिया है | ये गीत किसी कल्पना की उड़ान में नहीं लिखे गए | ये हमारे अवधी जनमानस और यहाँ के सर्वहारा वर्ग की कठिनाइयों और उनसे जूझते हुए सतत संघर्षशील जीवनी शक्ति के अप्रतिम उदाहरण हैं | कठिनाइयां बढी हैं जीवन और दुस्तर हुआ है किन्तु किसान मजदूर से जुड़ा अवधी कवि उनके साथ आज भी खडा है | सिकुड़ते खेत , बेरोजगारी ,विस्थापितों की पीड़ा  बेदखली का दर्द, गाँवों का शहरीकरण, धर्म और जाति का दंश , ग्रामीण स्त्रियों के दुःख और उनकी लोकधर्मी उत्सव परंपरा महगाई, स्वास्थ्य, चिकित्सा, राजनीति इन सभी विषयों पर नए पुराने सभी गीतकार लगातार लिख रहे हैं |

 

बिरवा में सबसे पहले सुशील सिद्धार्थ ने अवधी नवगीत प्रकाशित करने शुरू किये थे | बाद में अवधी गीत नवगीत की रचनाशीलता को रेखांकित करने का काम डॉ.रामबहादुर मिसिर दवारा  नखत-(1,2,3)  संकलन के माध्यम से भी हुआ | जगदीश पीयूष जी ने अवधी ग्रंथावली के अलावा   बोलीबानी में अवधी गीत नवगीत की रचनाधर्मिता को प्रतिष्ठित किया है | इसका एक अन्य प्रमुख दस्तावेज अवधी त्रिधारा(2007) को माना जाता है जिसकी भूमिका, के खंड में डॉ.मधुप, डॉ. कैलाश देवी सिंह और संपादक डॉ.रामबहादुर मिश्र ने समकालीन अवधी गीत नवगीत की चर्चा की है |इसमें लगभग 35 कवियों के गीत नवगीत संकलित हैं| गीत नवगीत पर काम करने वाले शोधार्थियों ने इस पुस्तक को लेकर काम भी किया है | इसी प्रकार डॉ.अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी द्वारा संपादित  समकालीन अवधी साहित्य  में प्रतिरोध(2018) और आधुनिक अवधी कविता(2020) जैसी पुस्तकें भी आधुनिक अवधी गीत नवगीत की रचनाशीलता के दस्तावेज कहे जा सकते हैं |

   इसके अतिरिक्त इस समय नई पुरानी पीढी के पीढी के गीतकारों में, चन्द्र प्रकाश पांडे, अशोक अज्ञानी, बजरग बिहारी बजरू,विनय भदौरिया,ओम निश्चल, अजय प्रधान, अनुराग आग्नेय, प्रदीप शुक्ल, आशाराम जागरथ,चन्द्र प्रकाश गिरी,रमाशंकर वर्मा,अमरेन्द्र अवधिया,,शैलेन्द्र कुमार शुक्ल, ममता सिंह, मृदुला शुक्ला, विनय विक्रम,संजय अवधिया जैसे असख्य नए पुराने कवि अवधी गीत की रचनात्मक परंपरा को सतत आगे बढ़ा रहे हैं |इन सबके अवदान से ही अवधी नवगीत का चेहरा चमकता है आगे भी इसकी आभा बिखरती रहेगी |

प्रमुख संदर्भ  -

1. अवधी साहित्य का इतिहास,- डॉ.श्याम सुन्दर मिश्र मधुप

2. बिरवा- पत्रिका- डॉ. सुशील सिद्धार्थ

3. अवधी त्रिधारा, एवं नखत  - डॉ.रामबहादुर मिश्र

4. मेरा घर -त्रिलोचन शास्त्री

5. अवधी भाषा और साहित्य संपदा, तथा अवधी 

 - डॉ.सूर्यप्रसाद दीक्षित

6.  आधुनिक अवधी कविता- डॉ.अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी

7. अवधी कोश (इंटरनेट )- ललित कुमार 

संपर्क- 9868031384  

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