मंगलवार, 30 मार्च 2010

समीक्षा

‘ अवधी की महक है नई रोसनी मे’
* डाँ.जयशंकर शुक्ल
चर्चित कवि,कथाकार भारतेन्दु मिश्र का सद्य:प्रकाशित अवधी उपन्यास ‘नई रोसनी’ पढकर आश्वस्ति की अनुभूति हुई। अवधी मे नवगीत,दोहे तथा ललित निबन्धोँ की रचना वे पहले ही कर चुके है।अपनी मातृभाषा के साथ अनन्यता का उद्घोष है यह उपन्यास।भाषा पर लेखक का अधिकार है। सहज प्रवाह,ललित सम्प्रेषण का सजग दस्तावेज है “नई रोसनी”।कथानक के अनुरूप दृश्यो का संयोजन,संवेदना का बहाव,कसावट और बुनावट अवधी भाषा के जनसामान्य शब्दो का प्रयोग ,मुहावरो का बेहतर उपयोग इस उपन्यास की विशिष्टता है।मूलत:संस्कृत साहित्य के अध्येता होने के कारण भारतेन्दु की इस कृति मे रमणीयता का संचार यत्र तत्र सर्वत्र देखने को मिलता है। संवाद अत्यधिक प्रभावशाली है।
लेखक की पूर्व प्रकाशित उपन्यास ‘कुलांगना’के प्रतिपाद्य से इस उपन्यास का प्रतिपाद्य पर्याप्त भिन्न है। ‘नई रोसनी’मे भारतेन्दु लोकभाषा मे जनवादी चेतना लेकर आये है। निरहू और ठाकुर रामबकस के माध्यम से बुनी गयी इस ग्राम्य कथा मे समकालीन दलित चेतना का ऐसा सजीव चित्रण लेखक की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। अवधी मे प्रगतिशील चेतना ही ‘नई रोसनी’ का मूल स्वर है,जहाँ लेखक आभिजात्य के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल फूँकने को तैयार है। समकालीन अवधी लेखन मे इस तरह का नया प्रयोग अन्यत्र विरल ही प्राप्त होता है। उपन्यास मे पठनीयता का प्रवाह है,वह अलंकृत शैली मे नही लिखी गयी है। समय व घटना के अनुसार विलक्षणता स्वयमेव आ जाती है। ‘नई रोसनी’ का कथानक यथार्थ के धरातल पर उत्कीर्ण वह रचना है जिसमे लेखक अवध के आम आदमी की पीडा को व्यक्त कर उसके परिहार हेतु मार्गदर्शन भी कराता है। चित्रा मुद्गल के अनुसार “मेट्रो सिटी की अपसंस्कृति को पाँडे पनवाडी की सांकेतिकता के संक्षेप के बावजूद जिस सशक्तता और जीवंतता से उजागर किया है- वह भारतेन्दु के सतत चैतन्य रचनाकार की गंभीर रचनाशीलता के समर्थ आयामो की बानगी प्रस्तुत करता है।.....’नई रोसनी’ अवधी भाषा मे लिखा प्रेमचन्द की गौरवमयी परम्परा का संवाहक उपन्यास है।”
उपन्यास मे लेखक ने अंचल व लोक की एकात्म सत्ता को प्रतिष्ठित किया है। वह मिथको के अंकन मे पूरी तरह सफल हुआ है। मानवतावादी दृष्टिकोण के साथ-साथ प्रतीको के माध्यम से कथा की रवानगी काबिले-तारीफ है। जातीय अभिजात्य के चंगुल मे फँसे आम आदमी की यथास्थिति का ऐसा सुन्दर चित्रण समकालीन लेखन मे विरल ही प्राप्त होता है।यथा- ‘भोर भवा – निरहू ठाकुर के दुआरे खरहरा कीन्हेनि फिरि ठाकुर केरि भँइसि दुहिनि,तीकै आपनि भँइसि दुहिन। सुरसतिया ठाकुर के घर मा चउका बासन कइ आयी रहै।’ ठाकुर द्वारा दी गयी मदद और उस पर अघोषित ब्याज की माँग निरहू को जब व्यथित कर देती है तब वह अपनी पत्नी से कहता है- ‘ बसि बहुत हुइगै गुलामी। लाव पचास रुपया ठाकुर के मुँह पर मारि देई, अउरु नौकरी ते छुट्टी करी।...बुढवा पचास रुपया बियाजु माँगि रहा है।आजु ते काम बन्द।‘
उक्त उद्धरण मे कथानायक के आक्रोश का बिगुल है।
तो बदले मे ठाकुर रामबकस सिंह की डाँट-फटकार मे सामंतवादी स्वर का सर्वोत्तम अंकन है-- “ चूतिया सारे, दादा –दादा न करौ,अब घर का जाव नही तो द्याब एकु जूता। तुम्हार दादा परदादा तो कबहूँ हिसाब नही पूछेनि।..कहार हौ तौ कहारै तना रहौ..।’ भारतेन्दु अपने लेखन के प्रति पूरी तरह सजग है।वह छोटे पात्रो- सुरसतिया,रजोले,रमेसुर,बिट्टो,रिक्शेवाला,पनवाडी पाँडे आदि का
प्रयोग बहुत अद्भुत ढंग से करते है। निरहू का भोलापन देखिये-‘ भइया सत्ताइस नम्बर सीट खाली कइ देव।...हमार रिजर्वेसन है। एकु मोट आदमी सत्ताइस नम्बर पर बइठ रहै।..निरहू चिल्लाय लाग-सुनाति नही तुमका मोटल्लू। मोटल्ला बदमास मालुम होति रहै। निरहू की तरफ देखिसि अउरु मुँह पर अँगुरी धरिकै चुप रहै का इसारा कीन्हेसि। निरहू बेचैन हुए जाति रहै।यही बिच्चा मा याक मेहरुआ आयी वा मोटल्ले की तरफ अँगुरी
नचाय कै इसारा कीन्हेसि तौ मोटल्ला मनई हँसै लाग। उइ मोटल्ले मनई का चलै मा थोरी दिक्कति रहै। तनिक देर मा बगल वाली सीट वाला निरहू का बतायेसि ई दूनौ गूँगे-बहिरे मालुम होति है।’नई रोसनी मे ऐसे अनेक मनोवैज्ञानिक चित्र है। गाँव मे विपन्नता की दोहरी मार व्यक्ति को उसके अस्तित्व की सुरक्षा व संरक्षा के प्रति सन्दिग्ध बना देती है। रेल की यात्रा, कठिनाइयाँ, स्वभाव परिवर्तन, यात्रा की इस समग्र संचेतना मे पाठक भी अपनेआप को सम्मिलित पाता है। कलन्दर कालोनी का चित्रण दिल्ली महानगर मे बिखरे अनधिकृत व अविकसित कालोनियो का स्पष्ट रूप प्रस्तुत करता है। बंटी चौराहा ऐसी कालोनियो के आसपास के चौक चौराहो का सजीव अंकन है। पाडेँ का पान का खोखा व अरोडा का फ्लैट दिखाना जैसे प्रतीत एक अलग तरह के सामाजिक तानेबाने को प्रस्तुत करते है।
गाँव पहुँच कर दिल्ली का वर्णन, ठाकुर की नौकरी छोडना, इसके आगे ठाकुर का षड्यंत्र और निरहू पर बजरंग बली का आना उपन्यास के महत्वपूर्ण पडाव है। आज आजादी के बासठ वर्ष बाद के ग्रामीण व शहरी समस्याओँ के चित्रण मे भारतेन्दु पूरी तरह सफल सिद्द हुए है। उपन्यास का अंत कुलीनता पर आम जन की विजय का शंखनाद है। सचमुच ये उपन्यास अवध की सोंधी माटी की महक ताजा कर देती है।
रश्मिशील के अनुसार “अवधी मे लिखना पढना मानो भारतेन्दु जी के लिए अपने गलियारे की भुरभुरी मिट्टी अपने सिर पर उलीचने जैसा अनुभव है।” अंत मे मै भारतेन्दु जी को नई रोसनी की रचना हेतु बधाई देता हूँ।

कृति का नाम – नई रोसनी[अवधी उपन्यास]
कृतिकार - डाँ भारतेन्दु मिश्र
मूल्य - साठ रुपये
प्रकाशक - कश्यप पब्लिकेशन बी-481 यूजी -4,दिलशाद एक्स.डी एल एफ, गाजियाबाद-5.
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