शनिवार, 1 जनवरी 2011

समीक्षा
बैसवाडी के नए गीत
भारतेन्दु मिश्र
 
 कविवर चन्द्रप्रकाश पांण्डे के बैसवाडी के नये गीत शीर्षक काव्य संग्रह को पढते हुए मन प्रसन्न हुआ। सौभाग्य से कवि श्री चन्द्रप्रकाश पाण्डे लालगंज रायबरेली के बैसवारा क्षेत्र मे जनमे और उनकी मातृभाषा बैसवारी है इसलिए उन्होने बैसवारी को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम चुना। बैसवाडी या बैसवारी अवधी भाषा की ही एक बोली है। जायसी भी रायबरेली के थे। तात्पर्य यह कि कवि के पास अपनी भाषा मे कविताई करने का बहुत मौका है। कवि के पास जातीय छन्द हैं। गीतो के अलावा पुस्तक मे दोहे घनाक्षरी तथा  बैसवाडी कूट शीर्षक से कुछ फुटकर चौपाइयाँ भी संकलित हैं,अवध मे कूठ बोलने का अर्थ है व्यंग्य करना। कवि ने उसे ही कूट कहा होगा ऐसा अनुमान है। हमारे गाँवों मे आज भी व्यंग्य वचन दोहे और चौपाई के रूप मे चलते हैं।सम्भवत: यह तुलसी जायसी  राधेश्याम रामायण और गडबड रामायण आदि की सतत दीर्घ  लोक परम्परा का परिणाम हो। जिससे कवि की रचनात्मकता के अलावा उसकी प्रयोग क्षमता का भी परिचय मिलता है। दो बैसवाडी कूट देखें-
मंहगाई के बोल अमोल
खटिया खडी बिस्तरा गोल।
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ककुआ कहाँ कचेहरी जाई
झूठि कसम गंगा कै खाई।
 कुछ दोहे भी बडे मार्मिक बन गये हैं।विशेष बात यह भी है कि कवि के पास एक प्रगतिशील सोच भी सदैव विद्यमान दिखाई देती है। एक चित्र देखें-
सास बहू कुस्ती लडैं,बाप पूत मा मारु
कटाजुज्झ घर घर मची,जिनगी हुइगै भारु।
अवधी कविता मे ऐसे काव्य चित्र बहुत कम देखने को मिलते हैं। कवि के पास अवधी की जातीय छ्न्द परम्परा के अलावा अपने घर गाँव के अनुभवों की थाती भी है। गीतों के प्रयोग तो और भी सुन्दर हैं। ओ रे सुखुवा,का कम कीन कमाई,नौकरी सरकारी,फूलन कै कमताली,लरिका सूधे ब्वालति हैं,नकुनन ऊपर पानी,मटका कबौ न रोय,लरिकन बरे लंगोटी का,रामकली आदि गीत तो संग्रह की उपलब्धि कहे जा सकते हैं। हालाँकि प्रूफ की कुछ त्रुटियाँ रह गयी हैं और कहीं कहीं लिखित रूप या कहे कि पाठ्य रूप में छन्द की दृष्टि से मात्राओ की कुछ कमियाँ रह गयी हैं जो सस्वर गीतपाठ करते समय शायद न प्रतीत हों इसके बावजूद कवि की कविताई और अनुभवो की ताजगी मे कोई अंतर नही पडता। अभी अवधी का मानक रूप विकसित नही हुआ है यह भी एक कारण है। श्रव्य रूप मे इन कविताओ की व्यंजना सटीक है। बैसवाडे के गाँव का एक वास्तविक चित्र देखें-
सबते राम जोहार बनी है
लरिका सूधे ब्वालति हैं
पुछतिउ हैं का कबौ बहुरिया
बप्पा रोटी खाय लेव
बडी दूरि ते आयो पाहुन
बइठौ तनि सँहिताय लेव।
अंतत: कवि चन्द्रप्रकाश पाण्डे के इस बैसवाडी के नये गीत शीर्षक काव्य संकलन मे सचमुच बैसवारी या कहे कि अवधी के कुछ नये गीत और नयी प्रयोगधर्मिता अवश्य देखने को मिलती है। आधुनिक अवधी के कविसमाज मे इस पुस्तक का स्वागत किया जायेगा ऐसा मेरा विश्वास है। कवि ने अपनी इन कविताओ के बहाने बैसवाडी बोली के अनेक अप्रचलित शब्दो को पुनर्जीवित किया है। कवि को बधाई।
  

5 टिप्‍पणियां:

36solutions ने कहा…

क्षेत्रीय बोली भाषा को नेट में पाकर आनंद की अनुभूति होती है, इस ब्‍लॉग के लिए आपको धन्‍यवाद.

Amrendra Nath Tripathi ने कहा…

यह तो नयी जानकारी है मेरे लिए ! सुन्दर बुक-रिव्यू ! किताब कैसे पाउब ?

डॉ० डंडा लखनवी ने कहा…

सरस एवं प्रभावशाली प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकार कीजिए और गणतंत्र-दिवस के अवसर पर मंगल कामनाएं भी।
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मुन्नियाँ देश की लक्ष्मीबाई बने,
डांस करके नशीला न बदनाम हों।
मुन्ना भाई करें ’बोस’ का अनुगमन-
देश-हित में प्रभावी ये पैगाम हों॥
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सद्भावी - डॉ० डंडा लखनवी

भारतेन्दु मिश्र ने कहा…

उत्साहवर्धन के लिए सभी मित्रो को धन्यवाद।

भारतेंदु मिश्र ने कहा…

सभी मित्रो को उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद।