रविवार, 5 अगस्त 2012


अवधी उपन्यास की नई रोसनी- चंदावती


- रवीन्द्र कात्यायन

प.शिवराममिश्र शि.सा.सम्मान-2012 के अवसर पर चन्दावती का लोकार्पण बाएँ से श्रीमती भारती मिश्र,सम्मानित साहित्यकार डाँ उमाशंकर शितिकंठ,विभांशु दिव्याल,शिवमूर्ति. और भारतेन्दु मिश्र


चन्दावती पर बोलते हुए वरिष्ठ कथाकार-शिवमूर्ति जी
हिंदी साहित्य के विस्तार के साथ-साथ हिंदी की उपभाषाओं में भी आज नई-नई विधाओं में रचनाकर्म हो रहा है। अवधी, भोजपुरी, ब्रज, मैथिली आदि में लिखे हुए साहित्य की परंपरा बहुत पहले से है। लेकिन आज जिस तरह की रचनाएँ इन उपभाषाओं में लिखी जा रही हैं, उस तरह की पहले नहीं लिखी गईं। इसका नया उदाहरण है अवधी में लिखे जाने वाले उपन्यासों की परंपरा। अवधी में नए उपन्यासों की रचना अवधी में एक नया प्रस्थान बिंदु है। भारतेन्दु मिश्र के दो अवधी उपन्यासों– नई रोसनी और चंदावती के द्वारा अवधी में उपन्यास लेखन का नया दौर शुरू हुआ है। जिसके लिए डॉ. विद्याबिन्दु सिंह ने लिखा है- भाई भारतेन्दु मिश्र कै ई अवधी उपन्यास एक बड़े अभाव कै पूर्ति करै वाला है। वै ई उपन्यास लिखि कै एक लीक बनाइन हैं जौने से अवधी म लिखै वाले अवधीभासी प्रेरणा पाय सकथिन।  (भूमिका, चंदावती)


भारतेन्दु मिश्र का नया उपन्यास चंदावती समकालीन भारतीय ग्राम का यथार्थ रूप प्रस्तुत करता है। यह उनके पहले उपन्यास नई रोसनी का विस्तार ही है जिसमें एक नई कथा और नए वातावरण द्वारा आज के भारत का गाँव पुनः जीवंत हो जाता है। इस गाँव में सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक रूप में जो हो रहा है, उसका यथार्थ चित्रण चंदावती का प्रमुख उद्देश्य है जो पाठकों को तो आकर्षित करता ही है, इसके साथ उनके मन में कई प्रकार के असहज करने वाले प्रश्न भी खड़े करता है। लोक में रची-बसी संस्कृति का सूक्ष्म और मनोहारी वर्णन भी कथाकार की सफलता है। आज के बदलते गाँव की तस्वीर चंदावती उपन्यास में इस तरह प्रस्तुत की गई है कि वो हमारे सामने एक स्वप्न भी निर्मित करता है। स्वप्न परिवर्तन का, स्वप्न एक नई व्यवस्था का, स्वप्न जाति-व्यवस्था के प्राचीन भँवर में फंसे समाज को उससे मुक्त करने का और सबसे ज़रूरी स्वप्न स्त्री की मुक्ति का- वह भी ग्रामीण स्त्री की मुक्ति का। ग्रामीण-स्त्री, जो शायद कुलीन स्त्री-विमर्श के केन्द्र में नहीं है। बहरहाल...
चंदावती की कथा है एक बाल-विधवा लड़की चंदावती और गाँव के सभ्य, कुलीन और विधुर ब्राह्मण हनुमान शुक्ल की प्रेम कथा की, जिसकी परिणति विवाह में होती है। विवाह भी नए प्रकार का। ग्रामीण व्यवस्था में आज से तीस साल पहले इस तरह का विवाह एक क्रांतिकारी कदम था। गाँव के बाहर कुछ लोग नरसिंह भगवान के चबूतरा के सामने जाते हैं और सरपंच के सामने पंचायत होती है। फिर वहीं हनुमान शुक्ल और चंदावती तेलिन का विवाह होता है। न सिर्फ़ जाति के बंधन टूटने के स्तर पर बल्कि स्त्री और पुरुष की सोच में परिवर्तन के स्तर पर भी यह विवाह अनोखा था। यही नहीं समाज को जब पता चलता है, तो भी दोनों को कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। हाँ हनुमान के छोटे भाई छोटकऊ से उनका अलगाव घर में पहले ही हो चुका था, खेती को छोड़कर। और यह खेती ही चंदावती की हत्या और दौलतपुर गाँव में स्त्री जागरण का कारण बनती है।



हाशिए का विमर्श अवधी में इस तरह शायद पहली बार दिखाई दिया है। लोक गीतों और लोक संस्कृति में तो बहुत से चित्रण हुए हैं लेकिन आज के ज़माने का यह चित्रण अवधी में बिलकुल नया है। स्त्री कमज़ोर तो है लेकिन उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाली गाँव की अन्य महिलाएँ भी खड़ी हो जाती हैं। उसे जब उसका देवर और भतीजा उसके पति हनुमान शुक्ल की मृत्यु के बाद घर से बाहर निकाल देते हैं तो वो रोती नहीं बल्कि अपने घर के बाहर अनशन पर बैठ जाती है। यह है आज की स्त्री की जागृति- अपने अधिकारों के लिए। चंदावती शुरू से ही ऐसी ही निडर रही है। जब उसके सामने हनुमान शुक्ल विवाह का प्रस्ताव भेजते हैं तो वो उन्हें अपने घर बुलाती है और उनसे पूछती है कि तुम्हारे घर में हमारी स्थिति क्या होगी? पत्नी की या रखैल की? हमारे बच्चों को ज़मीन ज़ायदाद में हिस्सा मिलेगा या नहीं? आदि-आदि प्रश्न। कहना न होगा कि इस तरह का साहस हमारे समाज की लड़कियों में आज भी नहीं मिलता है। यदि हमारी लड़कियाँ चंदावती की तरह साहस और विवेक से काम लें तो न सिर्फ़ उनके प्रति अपराध कम होंगे बल्कि उनके ख़िलाफ़ होने वाले अत्याचारों को भी विराम लगेगा।        



पुरुष व्यवस्था के षड़यंत्र इतने ख़तरनाक हैं कि ऐसी साहसी चंदावती भी पुरुष द्वारा छली गई। हनुमान शुक्ल ने उसे विवाह से पहले नहीं बताया कि वो पहलवानी करते हुए चोट लगने से नामर्द हो चुके हैं। जब उसे पता चलता है तो बहुत नाराज़ होती है लेकिन क्या कर सकती थी। जितनी कोशिश कर सकती थी, उसने की लेकिन कोई संतान न हुई। और तीस साल के लंबे वैवाहिक जीवन के बाद हनुमान की मृत्यु ने उसे नए भँवरजाल में फंसा दिया। तेरहीं की रात को ही उसके देवर ने उसे घर से बाहर निकल जाने को कहा और सुबह होते ही उसे बाँह पकड़कर घर से निकाल दिया कि अब तुम्हारा यहाँ कोई काम नहीं। चंदावती सोच रही है- सीता होय चहै मीरा यहि दुनिया मा हर औरत का परिच्छा देक परति है। जीका मंसवा न होय, तीकी कवनिउ इज्जति नहीं। औरत तौ अदमी कि छाँह मानी जाति है, आदमी ख़तम तौ औरत जीते जिउ आपुइ खतम हुइ जाति है। बेवा कि जिन्दगी मुजरिम कि जिन्दगी तना कटति है। द्याखौ अब हमरी किस्मति मा का लिखा है। (पृ. 20)



इस षड़यंत्र में गाँव का प्रधान ठाकुर रामफल भी शामिल है, जिसने उन दोनों की शादी कराई थी। चंदावती को उस दिन की याद आ गई जब कूटी पर पंद्रह बीस लोगों की पंचायत लग गई थी- फेरे लेने से पहले। अधिकतर लोगों का विरोध ही था। सबसे अधिक हनुमान के छोटे भाई छोटकऊ का। लेकिन जायदाद के बँटवारे को रोकने के लिए वो मान गया। फिर धर्म के ठेकेदार पंडितजी दक्षिणा बढ़ाकर मंत्र पढ़ने के लिए तैयार हो गए। प्रधान रामफल हनुमान से बहुत से काम निकालता था सो उसने उनके हिसाब से ही सबको तैयार करवा दिया। पंडित ने कहा- तुम सब जनै तैयार हौ तौ बिधि-बिधान हम करवाय द्याबै। हमका तौ मंतर पढ़ैक है, संखु बजावैक है, अपनि दच्छिना लेक है। यू बिहाव नई तना का है। यहिमा दच्छिना सवाई हुइ जाई जजमान। बिहाव होई तो चंदावती तेलिन ते सुकुलाइन हुइ जाई। काहे ते जाति तो मर्द कि होति है। भगवान किसन कि तौ साठि हजार रानी रहै, सबकी अलग-अलग जाति रहै। सबका वहै सनमान रहै। परधान दादा जाति तो करमन ते बनति है, बेदन मा यहै सबु लिखा है। (पृ. 36) और इसी दिन को याद करके चंदावती सोच रही है- क़ि औरत कि जिन्दगी वहिके मर्द के बिना साँचौ माटी है- मर्द चहै सार नपुंसक होय, चहै कुकरमी होय लेकिन होय जरूर। (पृ. 46)



लेकिन चंदावती हार नहीं मानती है और गाँव की ही अन्य विधवा कुंता फूफू के साथ वहीं धरने पर बैठ जाती है। उन दोनों का साथ देने को गाँव की अन्य स्त्रियाँ भी शामिल हो जाती हैं। चंदावती के भाई संकर की बेटियाँ मीरा, मीना और ममता भी इस जंग में शामिल हो जाती हैं। चंदावती स्त्रियों के इस गुट को देवी दल का नाम देती है। वे सब वहीं पर देवी गीत, भजन गाती हैं और बीच-बीच में नारा लगाती हैं- सिव परसाद होश में आओ, चंदावती से ना टकराओ। यह जागरण ग्रामीण-स्त्री का नया जागरण है जो उसे इक्कीसवीं सदी की नारी बनाता है। देवी दल की स्थापना भी चंदावती का सपना है क्योंकि स्त्रियों की एकता ही उन्हें मर्द के अत्याचारों से मुक्त करवा सकती है। उसके लिए दुनिया भर की स्त्रियाँ देवी हैं जिन्हें जागृत करने की आवश्यकता है। वह अपने भाई संकर से कहती है- दुनिया भरेकि मेहेरुआ हमरे लेखे देबी आँय। वुइ जिन्दगी भरि अदमिन क कुछ न कुछ दीनै करती हैं, जेतना अदमी उनका देति है वहिके बदले वुइ हजारन गुना लउटाय देती हैं। वुइ अदमी क पैदा करै वाली हैं। अदमी हरामजादा वहेक बेज्जत करति है, वहेक नंगा कीन चहति है- वहे महतारी बिटिया के नाम ते याक दुसरे क गरियावति है। अब जमाना बदलि गवा है अब हमरे देस कि रास्ट्रपति प्रतिभा देबी सिंह हैं।” (पृ. 73)   
चंदावती के विरोध में गाँव का मुखिया, सारा सवर्ण समाज, उसका देवर और उसका परिवार, पुलिस व्यवस्था सब शामिल हो जाते हैं लेकिन अपनी बुद्धि और साहस के चलते चंदावती हार नहीं मानती। उसका मानना है कि दुनिया की हर स्त्री की एक ही जाति है- स्त्री जाति जिसके पास छिपाने को कुछ भी नहीं है। सभी एक तरह की दुख-तकलीफ़ सहती हैं, सभी एक तरह अपना घर-परिवार छोड़कर दूसरे के घर में अपनी जगह बनाती है और सब एक तरह से ही बाल-बच्चा पैदा करती हैं, और सब एक तरह ही पति की लातें खाती हैं। इसलिए वह अपने गाँव की स्त्रियों को एक जगह इकट्ठा करती है और उन्हें जागृत करती है। वह उन्हें जगाने के लिए एक गीत बनाती है जो देवी दल का स्वर बन जाता है-
गुइयाँ मोरी डटिकै रहौ
गुइयाँ मोरी बचिकै रहौ दर्द अपन आपस मा खुलि कै कहौ।  (पृ. 101)  



लेकिन चंदावती और कुंता दोनों का साहस भी उन दोनों की हत्या को रोक नहीं पाता है। उन्हें नहीं पता था कि उनका सामना पेशेवर हत्यारों से है जो किसी भी तरह से उन्हें छोड़ने वाले नहीं। धन-संपत्ति, जायदाद आदि के लिए तो लोग कुछ भी कर सकते हैं। ऐसे में छोटकऊ और सिवपरसाद अपने घर की स्त्री चंदावती के साहस से बौखलाकर उसके ऊपर हमले पर हमले करते हैं और अंत में कुंता फूफू के साथ उसकी हत्या तक करवा देते हैं। लेकिन जो काम चंदावती जीते-जी नहीं कर सकी, वो उसकी हत्या ने कर दिया। चंदावती के हत्यारे न सिर्फ़ पकड़े गए, बल्कि उसके हक की संपत्ति पर देवी दल, स्कूल और स्त्रियों के स्वरोज़गार केन्द्र की स्थापना भी हुई।



चंदावती उपन्यास को न सिर्फ़ ग्रामीण-स्त्री विमर्श के लिए याद किया जाएगा वरन् अपनी सांस्कृतिक विविधता के वर्णन के लिए भी भुलाया नहीं जा सकता। इसमें अवध के गाँवों की संस्कृति जीवंत रूप से अभिव्यक्त हुई है। विवाह में होने वाले नकटौरा का वर्णन बड़ा ही अद्भुत बन पड़ा है। लोकाचार भी इसमें आज की स्थिति के अनुसार दिखाई देते हैं। आज के गाँवों में राजनीति किस तरह अपना दखल देने लगी है, इसमें पता चलता है। छोटे से काम के लिए मंत्री निरहू परसाद की सिफ़ारिश लगवाना किस तरह घातक हो सकता है, चंदावती उपन्यास में पढ़ा जा सकता है। पुलिस, पत्रकार, मंत्री और प्रधान मिलकर किस तरह एक नई व्यवस्था का निर्माण कर रहे हैं- इस कृति में बड़ी सच्चाई से प्रदर्शित होता है। सबसे बड़ी बात यह कि इक्कीसवीं सदी में भारत में जाति व्यवस्था के प्रश्न अभी भी वैसी ही जड़ें जमाए हुए हैं, जो आज़ादी से पहले थे। भले ही चंदावती ने अंतरजातीय विवाह किया था, वो भी तीस साल पहले लेकिन अभी भी जाति के समीकरण अपनी पूरी शक्ति के साथ ज़िंदा हैं। ऐसा नहीं होता तो पत्रकार रुपए लेकर प्रधान ठाकुर रामफल का नाम रिपोर्ट से निकाल न देता। रामफल पत्रकार से कहता है कि- तुमरी बनायी खबरि क्यार माने होति है। सिवपरसाद, बिनोद औ छोटकौनू का कसिकै लपेटि देव। सब सार चूतिया बाँभन आँय। अपनी बिरादरी क्यार- माने हमार ध्यान राखेव।” (पृ. 122) । इस पर पत्रकार कहता है- “दादा तुम तो मजबूर कै दीन्हेव।” (वही) इससे पता चलता है कि जाति का दबाव अभी भी समाज में बहुत अधिक है जिसका अच्छा-बुरा प्रभाव समाज पर हमेशा पड़ता है।     
एक और आकर्षण है इस उपन्यास का कि यह बेहद पठनीय है और पूर्वदीप्त शैली का उपयोग करता है। चंदावती को बार-बार याद आता है कि किस तरह उनका विवाह हुआ था हनुमान शुक्ल के साथ। उपन्यास वर्तमान और अतीत के बीच कथा को इस तरह सुनाता है जैसे किस्सा सुना रहा हो। और इस किस्सागोई में वर्तमान और अतीत के सभी नाते-रिश्ते, संबंध उघड़ते चले जाते हैं। हर बात कहने के लिए कथाकार के पास कोई न कोई नया पात्र है जो अपनी स्टाइल में उस बात को बताता है। लेकिन इस वर्तमान और अतीत की लुका-छिपी के बीच कथारस में कोई बाधा नहीं आती है। कहीं-कहीं चंदावती का स्वप्न प्रवाह भी है, जब वो अपने अतीत की गहराइयों में खो जाती है। गाँव में स्त्रियों को जागृत करने के लिए लोक गीतों का सहारा लिया गया है। इतना ही नहीं, ग्रामीण संस्कृति में रची बसी गालियों का प्रयोग भी इसकी भाषा को और अधिक आकर्षक और प्रामाणिक बना देता है। छुतेहर, भतारकाटी, दहिजार आदि गालियाँ अश्लील नहीं लगती बल्कि लोक भाषा को जीवंत बना देती हैं।
ये उपन्यास स्त्री की कहानी तो है ही, पुरुष-सत्ता के षड़यंत्रों को समझने का एक सार्थक औजार भी है। गाँव में पुरुष-सत्ता को चुनौती देने का काम किसी स्त्री ने शायद ही किया हो। चंदावती गांव की पुरुषवादी व्यवस्था में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराती है और उसमें सार्थक परिवर्तन भी लाती है, भले ही उसे अपनी कुरबानी देनी पड़ती है- यह इस कृति की सबसे बड़ी विशेषता है। इसका गद्य इसकी ऊर्जा है जो कहीं भी बाधित नहीं होता और बिना रुके पढ़ा जाता है। नई रोसनी और चंदावती के बाद भारतेन्दु से अवधी उपन्यास परंपरा को और भी आगे बढ़ाने की उम्मीद है। हिंदी कहानी के शीर्ष हस्ताक्षर शिवमूर्ति का कहना है- यदि चन्दावती हिन्दी या किसी अन्य भाषा मे लिखी जाती तो बेस्टसेलर बुक होती।  
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संपर्कः अध्यक्ष, हिंदी विभाग एवं संयोजक पत्रकारिता एवं जनसंचार, मणिबेन नानावटी महिला महाविद्यालय, विले पार्ले (प), मुंबई-400056. मोबाइलः 09324389238. ईमेल: katyayans@gmail.com   

समीक्षा २.
(विनोद कुमार-महमूदाबाद )






समीक्षा 3(डा.गुणशेखर ,सूरत )



5 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

इसका अनुवाद होना चाहिए। शिवमूर्तिजी का कहना सही है। हिदी में ग्रामीण-स्त्री का विमर्श बहुत आवश्यक है।

भारतेंदु मिश्र ने कहा…

ध्न्यवाद सुन्दर सुझाव के लिए।

Abhishek ने कहा…

भारतेंदु जी,बड़ी खुशी हुई यह जानकर की आपने अवधी भाषा में उपन्यासों की रचना करके अवधी गद्य साहित्य को एक नई पहचान दिलाई है. आप अवधी में अधिक से अधिक उपन्यास लिखेंगे ऐसी आपसे अपेक्षा है. मेरी ओर से आपको बहुत बहुत शुभकामनायें.

Abhishek ने कहा…

मैं आप सभी अवधी भक्तों से एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ की क्या अतीत में अवधी भाषा में कोई फिल्में बनीं हैं? यदि बनीं हैं तो उन फिल्मों के क्या नाम हैं? मैं यह प्रश्न यहाँ इसलिए उठा रहा हूँ क्योंकि मेरा ऐसा विचार है की यदि उच्च कोटि के अवधी साहित्य पर आधारित फिल्में अवधी भाषा में बनें तो इससे अवधी भाषा की राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता और गरिमा और अधिक बढ़ेगी. इस विषय में आप लोगों के विचार जानने के लिए मैं तत्पर हूँ.
धन्यवाद

बेनामी ने कहा…

Hearty congratulations Bhartendu dadda.. I would surely read your book. A big thank you from youngsters of awadh like me, who want to read sensible and progressive material in our own language.