शनिवार, 24 जुलाई 2021

 महाकवि विश्वनाथ पाठक

जयंती💐💐💐💐💐💐💐

सुधिलेखा

महाकवि विश्वनाथ पाठक

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मिसिर भारतेन्दु

अयोध्या म जन्मे अवधी के बड़े कबि बिस्वनाथ पाठक जी संस्कीरत के मास्टर रहैं।इनका जनम24 जुलाई सन 1931मा फैजाबाद के पठखौली  गाँव मा  भवा रहै। इनके  पिता  रामप्रताप पाठक रहै। वुइ  फैजाबाद सहर के मोदहा नाव कै मोहल्ला मा रहत रहैं। सन 2010 म उनका अवधी भासा केर सबते बड़ा साहित्य अकादमी सम्मान मिला रहै।'सर्वमङ्गला' औ 'घर कै कथा'  उनकी अवधी कबिताई केरी बहुत जरूरी किताबें छपी रहैं। पाठक जी अपभ्रंश, पाली औ संस्कीरत के बड़े विदुआन रहैं।उनकी कबिताई केर महातम पूरे अजोध्या इलाके म ब्यापा हवै।हर दफा नेवरतन के मौके पर उनकी लिखी  सर्वमङ्गला केर पाठ उनके गांव जवार के मनई करत अहैं।अवधी समाज के सच्चे गायक पाठक जी केर नाव पढ़ीस,बंसीधर सुकुल,रमई काका के साथै बहुत आदर ते लीन जात अहै। उनकी ‘सर्वमंगला’ के दुइ सर्ग अवध विस्वविद्यालय के बी.ए.पाठ्यक्रम के -तिसरे साल मा विद्यारथिन बरे पढै खातिर तय कीन  गये हैं । सर्वमंगला महाकाव्य केरि कथावस्तु दुर्गासप्तशती ते लीन गइ है।लेकिन  ‘घर कै कथा’ मा कवि के अपनेहे सामाजिक जीवन केरि सच्चाई दर्ज किहिस हवै। पाठक दादा संस्कृत भाखा क्यार सिच्छक रहे ,वुइ गाथासप्तशती औ वज्जालग्ग क्यार खुबसूरत अनुवादौ कीन्हेनि रहै। सबके सुख कि औ भले कि चिंता कवि के मन मा सदा ब्यापी रही-

फूले फरे सभ्यता सब कै पनपे सब कै भासा 

संचित ह्वैहैं लोक सुखी सब जाए भागि  निरासा |(सर्वमंगला)

पाठक जी अवधी समाज औ अपने आसपास कि जिनगी के सुख दुःख बहुत नीके देखिन समझिन  औ लिखिन रहै| ‘घर कै कथा’ म गाँव जवार कि जिनगी के मनोरम चित्र भरे परे हवैं |किसान कि गिरिस्ती केर सामान देखा जाय -बिन चुल्ला कै घिसी कराही चिमचा मुरचा खावा|एक ठूँ फूट कठौता घर मा यक चलनी यक तावा। (- आजा)

हमरे गाँव क किसान आजौ अपनी जिनगी के अभाव से संघर्ष करत अहै |वू अबहिनो अभाव औ गरीबी  म हँसी खुसी रहत अहै | वहिकी गिरिस्ती बड़ी न भय है, मुला वाहिका आतमबल औ जुझारू पना कम नही भवा | गाँव कि ब्याहता के सादे  सौन्दर्य केर चित्रण देखे वाला है -‘दुलहिन गोड़े दिहीं महावर माथे बिंदु सलोना | ऊ छबि ताके सर्ग लोक से परी लगावे टोना |(घर कै कथा )’

देसी लोक सौन्दर्य केर तो खजाना उनकी कबिता म भरा परा है | असली सुन्दरता तो सादगी म होत हवै|गाँव कि दुलहिन जब पाँव म महावर और माथे पर बिंदिया लगावत अहै तो स्वर्ग  कि अपसरा ते जादा सुन्दर देखात अहै |कवि कहत अहै कि वहि गाँव कि दुलहिन कि सुन्दरता ते होड़ करै बदि स्वर्ग  कि अपसरा टोना टोटका करै लगती हैं | पाठक जी हमरे अवधिया समाज कि नस नस ते वाकिफ रहें |येहिकी तरक्की खातिर उनकी चिंता उनकी  कबिताई मा साफ़ देखात अहै | भैया सुशील सिद्धार्थ सन 1990  ‘बिरवा’ पत्रिका केर  अंक उनपर  निकारिन  रहै| बादि म औरी  कैयो पत्रिका के अंक पाठक जी की कबिताई  पर निकरे | अवधी भासा केर गौरव तब अउर बढ़िगा जब उनका पहला साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला |अब तो फैजाबाद म उनके नाम ते कौनिव संस्था बनी हवै| महाकवि विश्वनाथ पाठक की सुधि का नमन |

 अवधी डायरी

भैया धुतू धुतू 

मिसिर भारतेन्दु

बाबू अद्याप्रसाद उन्मत्त अवधी के बड़े  परसिद्ध कबि रहैं ।पहिले अवधी कि कबिता कबिसम्मेलन के बहाने सुनी सराही जात रहै ।निम्बिया तरे छपरा  तरे कितौ बाग़ खरिहान मा  किसानन के बीच मा गाई जात रहै । चौमास होय चाहै चैत  बैसाख जब किसान का फुरसत होत रहै यही तना कबिताई,नौटंकी,भागवत,आल्हा वगैरह के गायन मा टेम कटत रहै ।गाँव के अंगूठाटेक मनई अवधी कि  सब कबिताई  समुझत रहैं बीच बीच मा अपने  मन माफिक  सुझावौ देत  रहैं। हिन्दी अखबारन या पत्रिका मा अवधी कि कबिता न छापी जात रहै, अवधी केर तो कौनो अखबार निकरै नहीं । उन्मत्त जी केर जन्म 13 जुलाई सन 1935 मा  प्रतापगढ़  मा भवा रहै । उनका निधन सन 2006 म भवा रहै ।वुइ अवधी कि बड़ी सेवा कीन्हेनि रहै ।'माटी और महतारी'उनकी कबिताई केर संग्रह बहुत पाहिले छपा रहै। अवधी भासा ते उनका प्रेम बचपने ते रहै ।वुइ जब धुतू धुतू सुनावत रहैं तो मालुम होत रहै कि सांचौ परिवर्तन कि तुरही बाजि रही है कहूँ पुरान भीत गिर रही है औ नई भीत उठत अहै।बिचारन  ते कांगरेसी और प्रगतिशील चेतना के कबि रहैं, लेकिन अपनी माटी औ भासा का महतारी मानत रहैं ।अब तौ तमाम हिन्दी वाले  अवधिया अवधी के नाम ते सनकहा बैल तना बिचुकत अहैं ।

सन 1988 से 1993 के बीच  मा जब वुइ दिल्ली के यमुनाबिहार मा रहत रहैं  तब उनते दुइ दफा मुलाक़ात भय रहै । वहि दिनन मा  त्रिलोचन शास्त्री ,उन्मत्त जी, आकाशवाणी के हमार  दोस्त भाई सोमदत्त शर्मा सब यमुनाबिहार म रहत रहैं । हम भजनपुरा म रहित रहन , यही के पास सादतपुर मा बाबा नागार्जुन,विष्णुचंद शर्मा,चित्रकार कबि  हरिपाल त्यागी , कहानीकार महेश दर्पण  अलाव के संपादक रामकुमार कृषक सहित और कैयो साहित्यकारन के निवास हवैं ।याक दिन त्रिलोचन जी ते अवधी कबिताई पर बात होत रही तो वुइ कहेनि- 'आप उनमत्त जी से मिलिए ,वो अवधी के अच्छे कवि हैं ।' तब अक्सर सबते घरेलू गोष्ठिन म कितौ सरकारी साहित्यिक समरोहन मा मुलाक़ात हुइ जात रहै । वही दिनन मा उन्मत्त जी ते निकटता बनी रहै। “धुतू धुतू” जस उनकी  बहुत ख़ास प्रसिद्द कबिता उनके मुंह ते तबहीं सुना रहै ।बहुत नीके सुर मा वुइ गावति रहैं सब अर्थ खुलति जात रहै ।तब वुइ यमुनाबिहार मा अकेले रहत रहैं कांग्रेस पार्टी के कौनेव अखबार केर संपादन देखत रहैं । “धुतू धुतू” उनकी  सिग्नेचर कबिता कही जाय सकत हवै।एक अंश देखा जाय-

नकली समाजबाद खोखली आजादी पपवा प परदा महतिमा कि खादी 

केकरे रकतवा से बेदिया गै लीपी 

ओकरे असनवा पे बैठिगे  फसादी 

मारि के धकेल द्या न सोझे उतरै

नई भीत उठथ  पुरान भीत गिरै

हो भैया धुतू धुतू ।

उन्मत्त जी अवधी लोकधुन औ लोकछंद के साथे  आधुनिक अवधी कि  प्रगतिशील चेतना के कबि रहैं ।बड़प्पन यू कि हमारी तुकबन्दी वाली कबिता सुनिके वहिकी बहुत सराहना किहन ,बोले भैया लिखत रहेव । उनते  बतकही करत बेरिया  मालुम होत रहै कि कौनेव मिठुआ  आंबे के बिरवा तरे जुड़ाय रहे  हन । गावन म अभाव, सामाजिक दुःख तकलीफ अउर गैरबराबरी  कि तमाम तस्बीरै तो उनकी कबिताई म झलकती हवैं  गाँव कि बिरहिन बरखा कि राति मा अपने पति का यादि कै रही है, अउर बदरा ते बतलाय रही है । बिरहिनी कहत अहै- रे कजरारे बदरा तू अतनी जोर ते बरस कि हमरे पिया का घर की यादि आय जाय ।आगे वा कहत बा कि हिंया हूम के बरस ,हूम क मतलब करेजे म हूक  पैदा करे वाली आवाज के साथ बरस । तनी देखा जाय उन्मत्त जी की कबिताई- 

‘राह निहारत सगरी रतिया तिल तिल के सरकी , ऐसन बरस बिदेसी कंता का सुधि आवै घर की ।

हिंया हूम के बरस कजरारे बदरा 

तनी झूम के बरस कजरारे बदरा।’ उन्मत्त जी की कबिताई केर भावपच्छ बहुतै सबल अउर मार्मिक हवै।दुनिया कि कौनो महतारी अपने बचवा कि भूख नहीं देख सकत । महतारी पर लिखी उनकी कबिताई केर भाव देखि के जिउ जुड़ाय जात अहै -

‘भूख देखेव तो बावन करमवा किहेव ,माई पूरा तु आपन धरमवा किहेव 

मोरे डेकरे गयिउ तू अघाय मैया ,अहै को मोरे तोहरे सिवाय मैया ।’ पेट भरे पर जब लरिका डकरत हवै, तो उन्मत्त जी कहति हैं कि वहिकी डकार सुनिके महतारी केर पेट आपुइ  भरि जात हवै।सांचौ महतारी के अलावा लरिका के लिए पूरी  दुनिया मा अउर दूसर को अपन होत है ? महतारी क अपनी औलाद ते ज्यादा कुछू पियार नाई होत।वुइ सांचौ अपनी माटी अवधरानी केर करजु चुकाय गये ।अब हम अवधियन का अवधी मैया कि सेवा करेक होई ।

यहौ खुसी कि बात आय कि अयोध्या के आसपास  पढीस,बंसीधर सुकुल,मृगेश,विश्वनाथ पाठक  अउर उनमत्त जी की कैयो कबिता बीए. के बिद्यार्थिन क पढाई जाती हवैं ।सुना हवै अपने जनपद प्रतापगढ़ मा वुइ कविकुल नाम कि संस्था बानाएन रहै ।जो कबि पढाये जात हैं उनकी कबिताई पर बतकही होय लागत हवै, जो पाठ्यक्रम मा नहीं लागि पावत हैं वुइ हाली ते बिलाय जात अहैं । कबि तो कीरति के बिरवा होत हैं इनकी सुधि का ज़िंदा राखेते बहुत सीख मिलत अहै ।रीतिकाल के कबि साइत मतिराम कहिन रहै- 'कीरति के बिरवा कबि हैं इनको कबहूँ कुम्हिलान न दीजै ।' उन्मत्त जी की यादि आवत है तो उनकी धुतू धुतू वाली कबिता दिमाग म गनगनाय के नाचै लागत हवै, काने म तुरही कि धुनि बाजै लागत अहै।उनकी सुधि का नमन ।

मंगलवार, 27 अप्रैल 2021


(अवधी किहानी )

गुलाबी रूमाल भारतेंदु मिश्र

    आठ नवम्बर कि संझा रही टीवी पर खबर सुनिके बैठके म नोटबंदी कि  खबर पर चर्चा हो लगीरज्जो जादा पढी लिखी न रहै लेकिन,तना समझ गय  कि रात बारह बजे के बाद से हजार और पांच सौ के नोट बाजार म न चलिहैं | प्रधानमंत्री जी बिधि ते हर चैनल पर हाँथ हलाय के नोटबंदी कि घोषणा करत देखाई   देत हैं वहिते मनई हैरान रहैंरज्जो के मन मा एक डर घुसि के बैठ गवा  वाहिका महसूस भा कि कोई वहेक लूटे लेत अहै ,कि मानौ कोऊ वहिका  गला घोटे दे हो औ वह रोइव न पावत रही टीवी पर खबर सुनिके रज्जो बैठके  से भीतर वाले कमरे म चली गयीं  बेहोस करे वाली खबर के बाद आज दुसरी कौनिव खबर म वहिकी कोई दिलचस्पी न बची रहै लेकिन हुसियार रज्जो जिज्जी बैठके से ई तना उठीं कि मानो यह खबर उनके कामे कि  रहै खबर सुनिके नरेंद अपनी दुलहिन ते कहेसि -‘सुनती हो,बारदाने के जो बीस हजार रुपया धरे हवैं वुइ सब बदलेक परिहैं ... याक  नई मुसीबत आ गय..’

‘ हमार तो ठीक अहै लेकिन ... भगवानी दादा...., उनके जो हराम कि कमाई आवत है..उनका का होई ?...जो चार साल म गाडी कोठी सब खरीद लिहिन |’

अरे ,वुइ सब विधायक जी के मनई आंय उनकी चिंता न करो वुइ सब नोट बदल लेहैं .. ..तुम आपन फिकिर करो| ..रज्जो जीजी से पूछ लेव उनके पास ..सायद ..कुछ नोट पड़े हो ?

उनके पास कहां?...पिछले महीना कमल क जब डेंगू भा रहा तब पूछा रहै ...जिज्जी   के पास होता तो तब्बै  निकाल के देतीं ..वुइ कमल  केतना चाहती हवैं |’

तो ठीक आय ,चलो हमका  जादा परेसानी न होई |नीक भवा कुछ तो नकली नोट बंद हुइहै| ..’

रज्जो के कान मानौ बैठके कि देवाल पर चपक गे रहैं |वहिकी बेचैनी बढ़ै लागि रही |वहिका दुःख अस रहा कि जीका कोई समझ न सकत रहैसमस्या असि कि वा परिवार म कोहू ते हिव् न सकत रही तीन साल पहले पति के स्वर्गवासी होके बादि ते  अपने मैके रुकंदीपुर म हमेसा के लिए आ गय रही |धन्निबाद आय हमरे गंवारू  औ कस्बाई  समाज क  जो आजौ  तमाम सदिय  पुरानी रीति रिवाज  ते  जकड़ा है, जहां रिश्तेदारी कि सरम अबै बाकी वैनरेंद बड़ी हिनी रज्जो क अपने  घर मा है खाय का अभयदान दै दिहिन रहै बेवा औ निपूती रज्जो रुकंदीपुर लौट के न अवती तो आखिर उर कहाँ जातीं पति बहुत चाहत रहै रज्जो क लेकिन विधवा होके  बाद देवर  देवरानी मिलिकै एक्कै महीना म रज्जो क बेघर क  दिहिन् रहै परिवार म जायदात के नाम पर खेतिव न रही लै दैके  याक परचून कि  दूकान हती  हिका  अब देवर महे  चलात  है बस वह दुकनिया वुइ  परिवार के पेट भरेक क साधन रही रज्जो पति के इलाज के टेम अपन धराऊ जेवर बेच दिहिस रही आदमी तो नहीं बचा लेकिन इलाज औ किरिया से बचे हजार के दस नोट वहिके तीर जरूर रहैं जिनका वा सबसे छिपा के धरिस रहै |

ससुराल ते आयेके बाद से रज्जो एक बक्सा म अपनी  धराऊ पुरानी साड़िन के बीच म वुइ नोट क  लुकुवाये धरे रहै ,बक म सदा ताला लगाये रहै,वहिकी कुंजी लाकेट कि  ना अपने गले म पहने रहै ताकि वहिके अलावा कोई दूसर बक्सा न खो लेभौजी याक दुइ दफा पूछेसि कि बक्से म ऐस का धरा हैतो रज्जो कहिन्  रहै –‘अरे कोई संपदा तो है नहीं कुछ तुम्हारे जीजा के ख़त हैवुइ ख़ास हमरे खातिर  लिखे गए हैं |दुइ साड़ी हवैं जो वुइ  हमरे लिए बड़े मन से लाये रहैं |उनकी दुइ चार  तस्बीर हवैं  |सुबह नहा  धो के हम उनका ध्यान करित है..बसजेवर सब उनकी बीमारी म बिकाय गा रहै |..’

लेकिन आज रज्जो क नीद न आयीजब सब सो  गए तो धीरे से रज्जो  अपन बक्सा खोलिस रात की मद्धिम रोनी म गुलाबी साडी के पल्लू के नीचे लुकाए धरे  हजार वाले वुइ  नोट  क आहिस्ता से निकारेसि  फिर यहर वहर देखके  उनका दुइ  दफा गिनेसि यहिके बाद फिर हुवें धरै लगी लेकिन मन न माना,बो लाल औ बैंजनी छबि वाले सब नोट नजदीक से निहारइ  फिर चूम   फिर तिसरी दफा  गिनि कै वही पल्लू के नीचे लुकाय के धइ दिहिस या बात वा कोऊ ते बताएस न रही डेंगू होये पर भतीजे कमल के इलाज के टेम जब पैसा कि बहुत जरूरत रही  तब्बौ वा ई नोट न निकारेस रहै , मुला  भतीजे के ठीक  होये  के लिए माता का उपवास औ पूजा करे म वा  पीछे न रही |कौनिव तना टेम पर इलाज हुइगा रहै तो कमल बच गवा |लेकिन रज्जो जिज्जी के नोट  क राज जाहिर न हुइ  पावा अपने दुलारे भाई भौजी और कमल के साथ वा तब जो छल किहिस रहै है सोच के वा आज बहुतै बेचैन ई जात रही | अब ई नोट काँटा तना वहिके करेजे म घुसै लाग रहैं | कौनिव तना उठिके पानी पियेसि ,तनी  बेचैनी कम भइ  फिर वाहिका  यादि  वा ,मरती बेरा पतिदेव समझायेन रहै -‘रज्जो हम रही चाहे न रही ,पैसा दबा के राखेव आखिर म वहै काम आ |’ अब जब पति परमेसुर  चले गए तो उनकी बात का पालन वा नियम से करत रही ...यहिमा धोखा कैस..भवा बहुबिध  दिमाक लगायेसि मुला  आज वहिकी हिम्मत डोल गय रही ऐस कुदिन आ वा सोचिस न रहै कि घर मा धरे धरे नोट कागद हुइ जैहैं | अब तो वहिके सब नोट बेकार हुइ गे रहैं |..

मुसीबत या रहै कि नोट बदले कैसे जांय रात भर मरे मंसवा कि हिदायत याद करती रहीभाई के निस्वार्थ प्रेम और खून के रिस्ता क सोचिके मन ही मन रोवत रही कौनो रा  नजर न आवत  ही अपने भैया औ भौजी कि नजर म गिर जा  कि संका अलग ते  वाहिका खाए जा रही| कमल कि बेमारी म वा ई रुपया भैया क दै देतै तो ठीक होतै ,लेकिन अब का ?..वुइ बेरा क झूठ छिपावै बदि अब का बहाना बनावै..सब साफ़ बता दे तहूँ भैया भौजी औ बेटवा जस भतीजे कमल केर बिसुवास  खो जाई |.. का पता बहिनी कि स धोखेबाजी क नरेंद की बिध समझी समझबो करी कि नहींका कीन जाए यही धरमसंकट म वह डूबी रही कि तबहें वाहिका बकसा  वहै गुलाबी रुमाल  नजर आवा |यू वही धराऊ साड़ी के साथ वहिके  पतिदेव देवाइन रहै रज्जो कि आँखी चमक गयीं |वा सब नोट रूमाल म बांधेसि  औ अपने सीने म ब्लाउज म लुकाय के धइ लिहिस |अब भोरहर हो वाला रहै चटकई तैयार हुइकै वा मंदिर के बहाने बाहर निकर आयी |

दिमाग म खुराफात कि चकरघिन्नी  चलत रही, वा अब सोचिस कि मंदिर म पति परमेसुर के नाव ते  दान क देई ,लेकिन वा फिर दुचित्ती हुइगै कि देउता हमार कौन सुन लिहिन हैफिर विचार आवा कि पंडितवा क दैके नोट बदलाय लीन  जाए..लेकिन वहूका सब किहानी बतावेक परी  कौन हमार सगा आय , बेईमानी क ले  तब ?....लेकिन गाँव म सबका हमरे झूठ का पता चल जा तो सब हमरे नाव् पर थुकिहैं | ..अब  उमिर म लगी कालिख कैसे साफ होई ?...पैसा कोई चोरी क तो आय न ...कालाधन थोरो आय मंदिर म काली मैया कि  मूर के समुहे वा   देर तके  देवी क ध्यान करत रही|आँखी बंद करै तो सब करिया नजर आवै,जिउ घबराय वा झट्ट दे आँखी खोलिस मंदिर क एक चक्कर लगाइस |घंटा बजाइस  ... अबकी फिर ध्यान लगावे बदि आँखी बंद किहिस तो भैया भौजी औ कमल केर चेहरा दीख परा - आगे देखिस कि भौजी के हाथ म खप्पर है,भैया के हाथ म तिरसूल औ कमल के हाथ म तलवार हवै|तीनो वहिके गुलाबी रुमाल  म बंधे रूपया  छीनै बदि  आगे आ  रहे हैं | ..हरबराय के वा फिर आँखी खोलिस  कुछ बर्राय  लागि - कालाधन न आय  ..गलत पैसा  आय ..|

मन्दिर केर पंडित देखिस तो पूछ लिहिस -‘का भवा रज्जो बुआ?’

कुछौ  आय पंडित भैया ,सब ठीक है|

 रज्जो खुद का संभारेसि फिर सोचिस  न होय तो लिके  बैंक की तरफ देखि   | टेसन के तीर कसबे क एक्कै पंजाब नेशनल बैंक है वा अब वहिके नेरे पहुँचि  गय रही हुआँ तो सैकरन कि  भीड़ रही |पुलिस वाले लाठी भांज रहैं मेहेरियन वाली  लाइन के नेरे जा के देखिस हुआँ बड़ी लम्बी लाइन रही |बहे लाइन म लगी याक  लरिकौरी महेरिया गस  खा के गिर परी |वाहिका जोर क लेबरपेन हो लगा रहै |  आसपास ठाढी महेरिया वाहिका संभारेनि मुला  वा हुवनै बच्चे क जन्म दै दिहिस तिनुकै देर म वुइ मेहेरिया  के घर वाले आ गये|रज्जो यू सब देखके अउर  घबरा   | मुला अपन काम नहीं क पायी...रुपया बदलै कि वहिकी चाहत मनहे म धरी रहि  अब वहिका ध्यान आवा कि गाँव  कौनो मनई  देखि ले तब्बो पोल खुल जाई तनी भीड़ न होत तो साइत चुप्पे कोसिस कइ लेतै |

बैंक से वापस घर का आयी, रुमाल ते सब नोट निकारेसि उनका फिर ते गनेसि    माथे लगा के  गुलाबी पल्लू वाली साड़ी कि परत म वही तना लुकाय के धइ दिहिस |हालात ते  हारे के बाद कबो कबो मनई कि हिम्मत बढ़ि जात हैअब रज्जो के पास कौनो  विकल्प न रहा दूसरे दिन रज्जो  हिम्मत किहिन  अपनी भौजी ते सब सच्चाई बता दिहिन |

री जिज्जी !, कमल कि बीमारी म रुपया होत भये तुम...मदत नहीं किहेव यू मलाल तो हमका  जिन्दगी भर रही |..यू तो कहो कि  मातारानी  की किरपा ते सब ठीक हुइगा |’

भौजी..गलती तो बहुत बड़ी है..लेकिन अब हमार इज्जत तुम्हारे हाथ म है|..दूसरेन ते जादा हमका  भैया औ कमल कि चिंता हवै |..उनकी नजर   हमका  न गिराये हाथ जोरित अहै बस यह बिनती मान लेव तुम जो चाहो हमको सजा दै दे |’ अतना कहे के बाद रज्जो अपन मुह पीटै लगी|

अरे रुको जिज्जी !,..अब बस करो| ..हम मान जा तब्बो यू कैसे हो ?.. जिज्जी कितौ इज्जत जा  या फिर पैसा हाथे से जाई..

‘....काहे भौजी?

अरे हम अपन पैसा बतइबा तो तुम्हार भैया नोट बदल के अपने धंधे म लगा लेहैं तुमार बतैबा तो बात खुल जा न बतावा जाय तो  नोट कूड़ा हुइ जैहै|   

तो अब का कीन जा ?..तुमहे बताओ ?’रज्जो कहेनि |

जिज्जी अगर पैसा औ इज्जत दुनहू बचाना होय तो एक रस्ता हवै..अगर जो  तैयार हो तो बताओमुला वहिमा तिनुक खर्चा होई |’

 बताओ भौजी..कौनो रस्ता  बताओ ?..’

अरे अपने गाँव क मंगलुआ,दस के आठ दै रहा हवै|..आठ हजार चही तो बताओ. ?’

ठीक आय भौजी!..,नासपीटे क दुइ हजार दै देव |है ठीक ही ..दुइ हजार का नक्सान हो ..मुला बात छिपी रही ... इज्जत बची रही |...या लेव कुंजी बक्सा खोल लेव |’

भौजी भौचक्की हुइकै रज्जो क मुंहू देखतै हि गईं | फिर कुंजी लैके बकसा कि तरफ  बढ़ी जीका  रहस्य जाने कि वहिकी बड़ी तमन्ना रहै | मन मा तीन साल से बक्सा केर रहस्य बना रहै भौजी बक्सा खोलै बदि लपक के कुंजी पक लिहिन |रज्जो दूर ते हेनि -‘ भौजी,गुलाबी साड़ी के पल्लू म देखो दस नोट मिलिहें.. |’

नोट गिनत भये भौजी बोली -‘ हाँ जिज्जी पूरे दस हैं...या साड़ी बहुत सुंदर है जिज्जी!..लेकिन..’

लेकिन अब हमरे काम कि नहीं रही .. तुम गुलाबी रंग वाले चार नोट मंगलुआ से इ आयेव |..बस ध्यान राखेव या बात हमरे तुमरे बीच रही |..साड़ी तो तुम्हार इनाम आय .. यहौ धइ लेव  एक्कै  दफा पहने रहन ..’

रज्जो अपने गुलाबी रूमाल ते अपनी डबडबाई आंखीं पोंछ लिहिस |

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