बुधवार, 31 अक्तूबर 2018


समीक्षा
भारतेंदु के पढीस
# डॉ.गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर
        
   पढीस जी को जब जब पढ़ा विद्यार्थियों  और विश्वविद्यालयी शोधकारों की टीकाओं में आयी पंक्तियों में पढ़ा|इसलिए कोई  सम्यक और सम्पूर्ण छवि मेरे मानस पटल पर अंकित न हो पायी लेकिन भारतेंदु के पढीस ने किसानी पीड़ा से गहरे जोड़ा भी और उनकी छवि को अंकित भी किया|
अभी दिल्ली जाना हुआ तो अग्रज भारतेंदु मिश्र जी की साहित्य अकादमी द्वारा भारतीय साहित्य के निर्माता श्रंखला के अंतर्गत प्रकाशित ‘बलभद्र प्रसाद दीक्षित पढीस ’ शीर्षक पुस्तक भेंट में मिली| उसे  किस्तों में पढ़ा|केवल १४४ पृष्ठों में पूरे पढीस जी को उतार लेने की कला पर मुग्ध हूँ|भारतेंदु जी में आलोचनात्मक मेधा के सृजन के लिए केवल यही पुस्तक पर्याप्त है|
आरंभ में कवि  का जीवन परिचय उसके बाद उनके कवि  रूप और कथाशिल्पी का परिचय कराते हुए लेखक ने बराबर सजगता बनाये रखी है कि ये रूप परस्पर टकराएँ नहीं|पढीस पर भले छायावादी प्रभाव यहाँ स्वीकारा गया है लेकिन उनके अविकल स्वर को प्रगतिवादी ही माना गया है|इस सन्दर्भ  में लेखक की यह टिप्पणी कि –‘जब एक ओर स्वतंत्रता संग्राम के सहभागी बुद्धिजीवियों की देश भक्ति पार्क कविताओं का दौर चल रहा था और दूसरी ओर छायावादी कविता की श्रंगारिक और नितांत वैयक्तिक प्रणयानुभूति की कवितायेँ लिखी जा रही थीं,उस दौर में पढीस जी अपने गाँव के मजदूरों किसानों के जीवन की आख्यान्धर्मी कवितायेँ लिख रहे थे|’ -उन्हें एक समाजचेता प्रगतिधार्मी कवि  सिद्ध करती हैं|
समाज में स्त्री की स्थिति से भी पढीस बेचैन रहे|उन्हें किसान और किसानी से कम चिंता स्त्री की नहीं रही|यह उनके चिंतन का  ही नहीं उनकी संवेदना का भी विषय रही|इसीलिए किसानी जीवन के अभावों के मध्य किसान की बेटी का जीवंत उभार उनका अभीष्ट बन जाता है-
फूले कासन ते ख्यालायि /घुन्घुवार बार मुहं चूमयि
बछिया बछवा दुलारावयि /सब खिलि खिलि खुलि खुलि ख्यालयि
बारू के ढूहा ऊपर परभातु अइसि कस फूली
पसु पंछी मोहे मोहे जंगल माँ मंगलु गावयि
बरसायि सतौ गुनु चितवइ  कंगला किसान की बिटिया|
पढीस जी का कविता से कहानी में प्रस्थान केवल विधागत नहीं |यह प्रस्थान भाषा से भी जुडा है|  वे अवधी से खडी बोली में जाते हैं और केवल आते ही नहीं पहचान भी बनाते हैं|इनके इस रूप के बारे में लेखक अमृतलाल नागर और मुंशी प्रेमचंद्र के सुपुत्र अमृत राय की टिप्पणियाँ भी उद्धृत करता है| ‘वह तस्बीरनिगारी में प्रेमचंद से आगे थे|’-नागर, और ‘कुछ बातों में प्रेमचंद से बड़े थे इनके गद्य में जो प्रभाव है और गहरी करुणा  है वह अन्यत्र दुर्लभ है|’-अमृत राय|
लेखक के इस कथन से भी कि- ‘ख़ास तौर से चरित्र चित्रण के मामले में अपने समय में अप्रतिम प्रतिभा के धनी थे|’सहमत  होने में शायद ही किसी को संकोच हो|क्योकि ये उस समय कहानियाँ लिख रहे थे जब कहानियों का प्रमुख स्वर ही चरित्र चित्रण था| सन 1938 में प्रकाशित कहानी संग्रह ‘ला मजहब ’ उन्हें एक श्रेष्ठ कथाकार के रूप में प्रतिष्ठापित करने के लिए पर्याप्त है|इस संग्रह की शीर्ष कहानी के साथ साथ  सन्निपात,पांखी,ढाई अक्षर,चिंतादास की गोली, व साथी आदि कहानियों का विस्तार से विश्लेषण करते हुए लेखक ने गद्यकार के उस प्रखर रूप को उद्घाटित किया है,जो  कवि रूप के नीचे दबा पडा था|भारतेंदु मिश्र पढीस के दलित विमर्श और दबे कुचले वर्ग के प्रति उनकी गहन संवेदना के साथ साथ स्त्री पुरुष के विषम अनुपात के लिए जताई चिंता का उल्लेख करते हुए उन्हें वह मुकाम दिलाना चाहते हैं जिस पर तथाकाथित प्रगतिशील काबिज हैं और पढीस जैसे असली हक़ दार अब तक पदच्युत  हैं-‘कुलीनता की जितानी आलोचना पढीस जी ने अपने  साहित्य में की है वैसी समतावादी दृष्टि बाद के बड़े लेखकों में भी नहीं मिलती है |’
‘चिंतादास की गोली ’कहानी के विश्लेषण में ही इस आलोचना पुस्तक में लेखक ने आगे लिखा है-‘ऐसी संवेदना में उस समय शायद ही कोई  कहानी लिखी गयी हो|प्रसंगवश इस कहानी में भारत की संभवत: पहली जनगणना में दर्शाए गए स्त्री पुरुष अनुपात  का भी उल्लेख है तब भी पुरुषों की तुलना से ढाई करोड़ महिलाएं कम थीं| ’
पढीस जी का दलित चिंतन केवल वैचारिक नहीं था|उन्होंने हरिजनों के बच्चों को बुलाकर घर पढ़ाना शुरू किया था वह भी उस समय जब ब्राह्मणों की कुलीनता का सूर्य समाज के ठीक सर पर चमक रहा था|वे अपनी प्रगतिशीलता कलम की नोक से नहीं हल की नोक से सिद्ध करने में विश्वास रखते थे|इसीलिए उन्हें ब्राहमणों के लिए निषिद्ध हल की मुठिया भी गही और किसानी के दर्द को किसी गरीब किसान में नहीं सीधे खेत में उतर कर करीब से देखा|
पढीस जी सहानुभूति के नहीं सघन संवेदना वाली अनुभूति के साहित्यकार हैं इसकी पुष्टि के लिए लेखक ने पुस्तकालयों में नहीं पढीस के गाँव और  खेत खलिहान में भी समय  गुजारा है | ऐसे श्रमसाध्य लेखक की सार्थकता इस पुस्तक के पढ़े जाने में ही है|पढीस के बारे में लेखक का मंतव्य है कि ‘उन्होंने जमीदार को न तो गाँव के अन्दर माना,और न परिवार के अंदर अपने को जमीदार बनाया|उनका सहज बोध इतना मानवतावादी था कि लोग उनकी थाह नहीं ले सकते थे|’ इतना  ही नहीं लेखक ने पढीस जी को प्रेमचंद और निराला के समकक्ष प्रतिष्ठापित किया है|-‘हिन्दी में तीन क्रांतिकारी लेखक थे –प्रेमचंद निराला पढीस|’ इससे स्पष्ट है कि आलोचक जहां पढीस जी के गद्य कहानी संसार को प्रेमचंद के विपुल रचना संसार के बराबर मानता है वहीं उनके काव्य जगत को निराला के समतुल्य|मुझे लगता है यहाँ आलोचक की दृष्टि व्यास पर नहीं समास पर है| भाषा भेद को भुलाकर ही हमारी आलोचना दृष्टि समरस हो सकती है|यह समरसता ही इस पुस्तक को सम्यक आलोचना दृष्टि से समृद्ध करती है|
कुछ चुनी हुई कवितायेँ भी यहाँ संकलित हैं|-अभिलास,ककनि जो हमहूँ पढि पाइति में -अशिक्षा ,पपीहा बोल जा रे –साजन आवें तब तुई आये /आजु बोल वुइ पार, बिटोनी में- बप्पा के तप की वेदी,अम्मा की दिया चिरैया ,घसियारिन में , ‘दुलहा के मुड़े पर गठरी /वह पाछे पाछे चली जाय /सुख झुलना झूलति |’ चेतौनी में-‘बर्न बने चारि मुलउ/जाति दद्दू याकयि आय| ’ किहानी में –‘सब द्याखयि कीन तमासा/वुइ कौधा हुइगें/बिजुली हुइगे| ’ और सत खंडे वाली में-  तुम्हरे पियारु के आसूं/हमका कस ना पघिलइहैं |’ कवि रचना संसार के संवेदात्मक घनत्व का अंदाज लगाना कठिन नहीं है|इन रचनाओं की अंतर्वस्तु अपने सामाजिक सरोकारों से लैस है और शैल्पिक तथा भाषिक संरचना काव्यशास्त्रीय सरोकारों से| इस पुस्तक में पढीस  जी के रेखाचित्र और निबंधों पर भी चर्चा की गयी है|
इनके मोवैज्ञानिक निबंध समाज की नाड़ी को किसी कुशल वैद्य की तरह पकड़ते ही नहीं रोग का कारण और निदान भी देते हैं|-‘बच्चे का स्वार्थ जब अतृप्त रह जाता है तो वह शैतानी करता है|हम इसे उसकी दुष्टता समझते हैं|’-पढीस
हम इसे केवल पारिवारिक शिक्षा तक सीमित मान ले तो यह हमारी नादानी होगी|यह तो शिक्षकों के प्रशिक्षण का ध्येय वाक्य बनाना चाहिए|इनकी इन्ही विशेषताओं के कारण डॉ.रामविलास शर्मा जैसे आलोचना की प्रथम पंक्ति के केंद्र में बैठकर आलोचक ने इन्हें हिन्दी के ‘वर्ग चेतस’ कवि  कहा है| कवि  और लेखक भारतेंदु मिश्र के पढीस में  हिन्दी की इस वर्गचेतना को स्पष्टत: पढ़ा जा सकता है|
पढीस जी पर लिखी गयी यह पुस्तक उनके  व्यक्तित्व और कृतित्व पर केवल बाह्य प्रकाश ही नहीं डालती अपितु उनके प्रतिपृष्ठ को आलोक में रखकर दिखाने का उपक्रम करती है|केवल 50/रुपये मूल्य की यह आलोचना पुस्तक केवल पुस्तकालयों की शोभा बनकर न रह जाए| यह चिंता विचारणीय ही नहीं आचरणीय  भी है|
बलभद्र प्रसाद दीक्षित पढीस जैसे ग्राम्य चेतना के कवि और लेखक पर लिखी इस पुस्तक के विषय में लिखते हुए इस बात का विशेष संतोष है कि इसे वह किसान भी खरीद सकता है जिसके लिए वे आजीवन चिंतित रहे|
लेखक-डॉ.गंगाप्रसाद शर्मा,गुशेखर ,प्रधानाचार्य -केन्द्रीय विद्यालय,भावनगर,गुजरात -फोन-8000691717


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