कथा कोरोना काल की
@ भारतेंदु मिश्र
काल कोरोना बिपदा बाढ़ी।
बढिगै कुछ कबियन की दाढ़ी।।
सन्नाटे मा बैठ लुकाने।
लाइव चर्चा के दीवाने।।
झरी भड़ांस चिराइंध फैली।
नक्कालन की खीस रुपहली।।
राजनीति का अरथु न जानै।
गदहा, ऊंटन का पहिचानै।।
गर्दभ कहैं सुसोभन आवौ।
ऊंट कहैं तुम गीत सुनावौ।।
छूटा लोक और लय छूटी।
इनकी सब कबिताई झूंठी।।
एहि बिधि रची सभा अनजानी।
नेट पर नट कूदै असमानी।।
घर मा बंद छलांगें मारैं।
दुनियाभर के कष्ट निवारैं।।
लॉकडौन का तीन तिलक्का।
मुँह पर बांधे रहौ मुसिक्का।।
सरै ताल मा जेहिबिध सनई।
मरे बहुत चौतरफा मनई।।
मिला न सबका कबरिस्ताना।
रहा मुखागिन का न ठेकाना।।
पसु पंछी सब खुल्ला घूमैं।
माता सुत का मुंह ना चूमैं।।
केतनेन का छूटा रोजगारू।
अपनै लरिका होइगे भारू।।
कथा कोरोना काल की आगे कही ना जाय।
दुइ गज की दूरी रखो पंडित कहैं उपाय।।.(खुसबू की गठरी ,से)
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