बुधवार, 8 नवंबर 2017

                                                                 तिरलोचन ते पहिल भेंट

# भारतेंदु मिश्र

त्रिलोचन अपने गाँवमा पहेलवानी सीखेनि रहैं | देहीं दसा ते तो हट्टे कट्टे रहबै कीन असली तो तिरलोचन भासा के पहेलवान रहैं ,लरिकईं  म कबड्डी ख्यालति बेरिया वुइ अष्टाध्यायी के सूत्र दोहरावति रहैं  |तबहीं उनमा शास्त्री बनैके के सब लच्छन आय गे रहैं |बनारस म वुइ साहित्यिक गोष्ठिन के केंद्र बने रहे पैदर चलेम उनका कोई मुकाबला न रहै| जवानी के दिनन म वुइ साइकिल औ रिक्सौ चलावति रहैं | बहरहाल उनकी कबिताई बनारसै मा सबके गले क हार बनी| वुइ बहुती भासा सीखेनि रहै लेकिन कहति रहें - ‘तुलसीदास ते भासा सीखा है|’  ग़ालिब ते भासा कि रवानी, बाल्मीकि , कालिदास और भवभूति ते कबिताई की परंपरा सीखेनि रहै तो शेक्सपीयर ते सानेट सीखेनि | लेकिन मालुम होति है कि तुलसी उनके ख़ास वस्ताद रहैं ,येही कारन तिरलोचन तुलसीदास पर कइयो कबिता लिखिन है| अवधी म बरवै लिखति बेरिया तिरलोचन जी गोसाईं तुलसीदास क फिरि यादि करत हैं |अपने गाँव कि बोली भासा म कबिता लिखै वाला कबि सांचौ बलगर तो होई-
दाउद महमद तुलसी कइ हम दास
केहि  गिनती मंह गिनती जस बन घास|
त्रिलोचन खुद का मुल्ला दाउद,मलिक मोहम्मद जायसी औ तुलसी के दास बतावति हैं| माने उनकी बनाई अवधी वाली लीक पर तिरलोचन अमोला लिखेनि |अमोला के बरवै जेतने अनगढ़ औ सरल सहज है वतनै गंभीर औ किसान मंजूर परिवारन कि दसा बखानै वाले हैं| वुइ अपनी बोली भासा मा अपने गाँव जवारि के मनईन का सिक्षितौ करति चलति हैं|वुइ भूख देखिन रहै,अभाव झेलिन रहै लेकिन कब्बौ गलत राह नहीं चुनेनि ,काहेते सांचौ वुइ पहेलवान रहैं |उनकी पहेलवानी उनकी काठी ते झलकत रही|अभाव औ विपन्नता ते उनका पैदाइसी नाता रहै |वुइ सांचौ जंगली घास कि नाई प्राकतिक जिनगी जिए यह नैसर्गिक अरघान उनकी कबिताई कि असली रंगति आय|बरसन वुइ बड़ी केरि दाढी रखाए रहे|कहति रहैं- ‘ सरीर का खरपतवार आय -रोज रोज कि हजामत को करै केतना टाइम कि बचत है, खर्चा तो बचतै है| दाढी मूछ तो रिसि मुनियों की सान अहै |’ दाढी ते उनके चेहरे कि रौनक बनी रहै| चीन्ह वाले उनका जनतै रहैं, अनचीन्ह वाले मनई उनका साधू समझ लेति रहैं |राह मा देस परदेस सब लंग उनका बहुतै सनमान रहा| जादातर लरिकवा उनका बाबा कहतै रहैं| शिवांक उनका नाव ‘खरपत्तू बाबा ’ धरेसि रहै|

अवधिया रहैं तो हमका उनकी बातन मा बहुत रसु मिलत रहै|सन 1989 मा तिरलोचन शास्त्री ते पहिली दफा मुलाक़ात भय |  दिल्ली के सादतपुर मोहल्ले मा याक नागार्जुन नगर नाव कि बस्ती है|तब हुवनै   कानपुर के जनकवि शील जी के सम्मान मा समारोह आयोजित कीन गा रहै |तब हम भजनपुरा मा  रहन |वुइ समारोह म बाबा नागार्जुन ,त्रिलोचन शास्त्री,विष्णु चन्द्र शर्मा,डा.माहेश्वर,हरिपाल त्यागी,सुरेश सलिल ,रामकुमार कृषक,महेश दर्पण के अलावा दिल्ली के तमाम जनवादी,प्रगतिशील रचनाकार औ पढ़ैया लिखैया मिले| ई समारोह कि जानकारी हमका स्व.डा.बिंदुमाधव मिश्र जी ते मिली रहै| वहु  समारोह अपनी तन का अद्भुत समारोह रहा |सबते जादा आकर्षक तो ‘शील जी’ का कविता पाठ रहा | जहां तक हमका यादि है वुइ कइयो मार्क्सवादी विचारन कि कबितन के साथ यहु गीतौ सुनायेनि रहै| येहि गीत मा ख़ास बात है मनई के हार न माने कि प्रेरणा-

राह हारी मैं न हारा !
थक गए पथ धूल के उड़ते हुए रज-कण घनेरे ।
पर न अब तक मिट सके हैं,वायु में पदचिह्न मेरे ।
जो प्रकृति के जन्म ही से ले चुके गति का सहारा !राह हारी मैं न हारा !
‘राह हारी मैं न हारा’ –यह पंक्ति मन मा तब्बै ते बसि  गय है| यू समारोह कौनौ अकादमी वगैरह के कार्यक्रम जस न रहै|सब आपसी सहयोग ते व्यवस्था कीन गय रहै|
घर का बना भोजन ,गाँव जस वातावरण,मानो कोई पारिवारिक काम काज जस|ख़ास बात यह रहै कि  तब  पहली दफा  मिले तिरलोचन जी से निसंकोच बतियाये म हमका कौनिउ झिझक न भय वह उनते  पहिल मुलाक़ात रहै |बाबा नागार्जुन का  बस पैलगी कीन और उनते तब दूरि ही बैठेन ,काहेते सुना रहै कि वुइ बड़े गुस्सैल हैं |तब वुइ बीमारौ रहैं |तिरलोचन जी सहज अवधिया बुजुरुग की नाई बतुआत रहैं |कुछ दिन बाद पता चला कि तिरलोचन जी यमुनाविहारैम  रहति हैं| उनके सहपाठी पंडित गंगारतन पाणे  से हम  लखनऊ मा मिल चुके रहन | पाणे  जी बनारस के किस्सन मा अपने सहपाठी तिरलोचन जी का औ शंभुनाथ सिंह का जिकर बड़े चाव ते करत रहैं | येहीके मारे हम उनते  मिलैका मनु  बनावा  औ बस फिर उनका पता  खोजि  लीन |वुइ बहुतै निसंकोच ढंग ते मिलैक समय दीन्हेनि  उनकी छोटकी पतोहू ऊषा जी चाह पानी ते हमार स्वागत कीन्हेनि |तिरलोचन जी हमते हमरे बारे में पूछेनि  – हम  बतावा  कि हम संस्कृत म लखनऊ से एम्.ए. कीन  है, औ अब हियाँ याक सरकारी इस्कूल  म पढायिति है| औ दिल्ली विश्वविद्यालय ते ‘नाट्यशास्त्र में निरूपित विविध कलाए’ विषय  पर शोध करिति  है |हिन्दी म पढें लिखेक सौख है| आपके सहपाठी गंगारतन पाणे ते आपकि बड़ी तारीफ़ सुना है| वुइ बोले-‘ये शुभ लक्षण है क्योकि हिन्दी वालो को हिन्दी नहीं आती |’ ईके बाद घनी  देर तक वुइ पाणिनि ,कालिदास,बाणभट्ट पर चर्चा कीन्हेनि | हम चुपान बैठ रहेन वुइ संस्कृत का महत्त्व औ वहिकी सीमा वगैरह हमका बतावति रहे|येही बीच चाह आय गय रहै हम दुनहू जने चाय पियेन औ फिर बतकही आगे चली |अकबकाय के तिरलोचन जी पूछेनि  –‘आप श्रुतिधर हैं?’ मैंने कहा- ‘नहीं..मैं वेदपाठी नहीं हूँ ,मुझे वैदिक परंपरा आदि का भी विशेष ज्ञान नहीं है| बस थोड़ा काव्य और नाट्य साहित्य पढ़ा है|’ वुइ मुसक्यान औ अपने कुर्ते के खलीते से चुनौटी निकार के कहेनि - ‘देखो भाई, मैं ब्राह्मण तो नहीं हूँ लेकिन श्रुतिधर अवश्य हूँ|’ अब हम बिलकुल सहज हुइ गयेन रहै|हम कहा-‘ई परंपरा ते तो हमहूँ जुड़े हन |..हमार  दादा औ नाना सब  श्रुतिधर रहैं , सब चुनही का ही सेवन करते थे| लेकिन हम पनही लेइति  है |’ वुइ हँसे औ तमाखू के बारे म तमाम लोकविख्यात किस्सा  सुनावै लाग|हमहुक बतकही म मजा आवै लाग रहै|फिर बोले –‘पनही लेने -का एक और अर्थ भी है| ’ हम कहा ‘जी अभी तो पान वाली तम्बाकू से ही आशय है|’ वो बोले-‘हाँ पनही और पनही पूजन से बचिए|’
ईबिधि निर्विकार वातावरण म उनसे पहिल भेंट भय रहै| जैसे तमाम साहित्यकार नए लेखकन के सामने अपनी योग्यता क्यार भौकाल खडा करति  हैं ,वह बात उनमा न रहै|  ख़ास बात यह कि तिरलोचन जी अपनि  कबिता, अपनि किताब ,यानी अपने लेखन के बारे मा तब कोई बात नहीं कीन्हेनि | हमका कब्बौ न लाग कि हम इतने बड़े कबि के सामने बैठ हन,बादि  मा कइयो मुलाकातै भईं| तब हम यमुनाविहार के पास  भजनपुरा म रहित रहै| उनका घरु हमरे घर ते कोई आधे कि.मी. के फासले पर रहै| फिर का जब द्याखौ तब उनकी वार जाय लागेन | जब तक वुइ यमुनाविहार मा 
रहे अक्सर उनका असीस मिलत रहा| वुइ दिनन मा  आद्याप्रसाद उन्मत्त जी हुवनै रहैं |
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